Sunday, 29 January 2012

ये उम्मीदों का पर्व है आप ही बनाएं अपनी तकदीर

उम्मीदों का उत्सव एक माह से मन रहा है। इस महापर्व का शिखर दिवस सामने है और आपका वक्त अब शुरू हो गया है। कल जब अखबार आपके पास होगा तो 28 तारीख निकल रही होगी। एक दिन बीच में होगा। अगले दिन आप अपने भाग्य का फैसला कर लेंगे। 31 तारीख से सन्नाटा छा जाएगा जो छह मार्च को टूटेगा। वैसे आपकी पूछ-गछ 31 से ही खत्म हो जाएगी।
इसके बाद आप सिर्फ दर्शक रह जाएंगे, शायद श्रोता भी नहीं।
हम बड़े खुश होते हैं जब दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्र की उपाधि से नवाजे जाते हैं। हमारी तुलना अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों से होती है। लेकिन जिन पश्चिमी देशों के प्रजातंत्र का हम उदाहरण देते हैं उनका प्रजातंत्र का इतिहास सैकड़ों साल पुराना है। इस दौरान उन्होंने अपने सामंती दर्प को नष्ट करके साफ सुथरी प्रजातांत्रिक व्यवस्था स्थापित कर ली। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे यहां हम आज भी अपने इन स्वत: मिलने वाले हक के लिए एड़ियां रगड़ रहे हैं। कभी आपने सोचा कि ये हक आपको जिनसे मिलना चाहिए वो दरअसल इसे आपसे छीन रहे हैं। इसलिए कि पूरे तंत्र में भ्रष्टाचार का घुन लग गया है। भ्रष्टाचार प्रजातंत्र क ी वाहक राजनीति के दोष का परिणाम है। होता ये हर समाज में है पर जिस प्रजातंत्र में भ्रष्टाचार पर निगरानी रखने वाला तंत्र और संस्थान-प्रतिष्ठान नाकारा हो जाते हैं वहां कोई भी पद, प्रतिष्ठा और ताकत का बेजा इस्तेमाल अपने हक में कर के आपको हेय और निकृष्ट बना देता है और खुद को और अपनी पीढ़ी को वहां स्थापित कर देता है जहां आपको प्रजा और उसको राजा का दर्जा मिल जाए। इसका एक और कारण है, सामंती व्यवस्था को नष्ट किए बिना प्रजातंत्र को अंगीकार कर लेना। अमेरिका ने अपने चार सौ साल के इतिहास में इसका उन्मूलन किया तो फ्रांस ने राज्य क्रंाति के द्वारा। इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति ने इसमें बड़ा रोल निभाया। हमने सिर्फ प्रजातंत्र अपनाया और उसकी मूल भावना को बिसरा दिया। नतीजा सामने है। आपके वोटों पर जीतने वाला सेवक नहीं शासक बन बैठता है।
भ्रष्टाचार केवल वही नहीं है जो दिखता है। यानी वह भौतिक ही नहीं अमूर्त भी होता है। भौतिक भ्रष्टाचार हमारे यहां सर्वव्यापी है। इसने पेशेवर रूप अख्तियार कर लिया है। लेकिन भौतिक भ्रष्टाचार घाव की पपड़ी है। वह ऊपर से दिखता नहीं।
ऐसे जानिए, जब आप तर्क और हकीकत को, तथ्यों को तोड़ें मरोड़ें और इन्हीं आधारों पर उसे सिरे से अस्वीकार कर दें तो समझ लीजिये अमूर्त भ्रष्टाचार की गिरफ्त में हैं। सत्ता प्रतिष्ठानों के सामंती स्वरूप के चलते समाज द्वारा प्रदत्त अधिकारों का अपने अवैध हितों के लिए प्रयोग करने के लिए नियम कायदे बना लेना या अपने पद या प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए अधिकारों का बेजा इस्तेमाल करना भी शासकों का एक खेल है और अमूर्त भ्रष्टाचार का एक और तरीका। क्षेत्रवाद, जातिवाद, धर्म इस तरह के भ्रष्टाचार के सबसे कारगर औजार हैं। ये इतने चतुर होते हैं कि पत्रकार, वक्ता, वैज्ञानिक, विद्वान तक इनकी कठपुतली बन जाते हैं। जिस विकास की हर नेता आपके सामने कसमें खा रहा है वह हर पांच साल में आपके सामने जादू की झप्पी की तरह प्रगट होगा और जो मिलेगा वह दाता की कृपा होगी आपकी जरूरत नहीं। समाज को कुंठित और अराजक बनाना ऐसे तत्वों का खेल है पर यह आपकी तकदीर नहीं है।
तकदीर तो खुद ही तय करनी पड़ेगी और प्रजातंत्र तभी आपकी तकदीर संवारने का जरिया बन सकता है जब आप उसके सवार बनें। क्षेत्र, जाति-धर्म या ऐसे ही और प्रलोभनों से दूर रहकर सही प्रतिनिधि का चुनाव करें। एक बार फिर से यह अवसर आपके सामने है, उम्मीद है लोक का फैसला आदर्श तंत्र के पक्ष में होगा।
•सुनील शाह(लेखक अमर उजाला हल्द्वानी के संपादक है )

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