आधुनिकता के रंग में रंगी पहाड़ की नई पीढ़ी भी संस्कृति के प्रति है संजीदा
शहर की चकाचौंध से लोगों का जीवन स्तर ही नहीं जीवन शैली भी बदलती जा रही है। कहने को लोग पहाड़ छोड़कर खुद को देहरादून या दूसरे शहरों का बाशिंदा बताने लगे हैं, लेकिन आज भी आधुनिक परिवेश वाले पहाडी शहर में ‘पहाड़’ को भुलाना आसान नहीं है। यहां शादी ब्याह में सुनाई देने वाले वाली पहाड़ी वाद्य यंत्रों की गूंज के साथ ही बैंड की धुन पर पहाड़ में गाये जाने वाले लोक गीतों की धुन बजती है तो लोग बरबस ही थिरकने लगते हैं।
इससे साबित होता है कि उत्तराखंडी लोक जीवन की जड़ें इतनी गहरी हैं कि उन्हें भूलना या उखाड़ना आसान नहीं है। पहाड़ के लोग देहरादून या दूसरे शहरों में बसने के बाद आधुनिकता के साथ कदम से कदम मिलाने के लिए कदम ताल कर रहे हैं। विभिन्न क्षेत्रों में सफलता को छू रही नई पीढ़ी इस बात को साबित भी कर रही है। इसी भागमभाग में नई पीढ़ी अपनी मूल बोली-भाषा को भी भूल चुकी है, लेकिन बुजुगरे ने नई पीढ़ी में अपनी बोली-भाषा व संस्कृति के प्रति प्रेम की उस डोर को आज भी बांधकर रखा हुआ है। शायद यही वजह है कि तीन दशक से पहले गाये गये एक चर्चित गीत को देहरादून में भी उसी तन्मयता से सुना जाता है जितना पहाड़ की डांडी-काठय़ों में। गीत का नाम है ‘बेड़ु पाको बारो मासा, नारेण काफल पाको चेत।’दून में होने वाले शादी-ब्याह के इन आयोजनों में भले ही पंचतारा स्तर की तड़क-भड़क भी दिखने लगी है, लेकिन जब बैंड पर ‘बेड़ु पाको’ की धुन बजने लगती है तो सभी इस पर थिरकने लगते हैं। युवा पीढ़ी तो मानो मस्त हो जाती है। हालांकि ऐसा कोई सव्रे तो नहीं हुआ, लेकिन बैंड मास्टरों का भी कहना है कि समारोह से पहाड़ी परिवार का नाता है तो ‘बेडु पाको’ तो गाना ही गाना है। जब तक नहीं गाएंगे, बरात में वो रिदम व अपनापन नहीं आ पाता। शहर के ज्यादातर बैंड वादकों को यह गीत कंठस्थ है। बैंड की टीम बदलने पर नये साथियों को इस गीत के साथ अभ्यास भी कराया जाता है। इस मशहूर लोक गीत को धुन देने का श्रेय मोहन चन्द्र उप्रेती को जाता है। इसे आगे बढ़ाने में मोहन सिंह रीठागाड़ी व बृजेन्द्र लाल शाह का योगदान रहा है। सुदूर पहाड़ों से लेकर शहरों तक यह गीत सिरमौर बना हुआ है। समय- समय पर जुबान पर चढ़ जाने वाले कुछ अन्य गीत ‘ऐजा हे भानुमति पावो बजार.., टक टकाटक कमला बाढूली लगाये.., लीला घसियारी.., बबली तेरू मोबाइल. गैल्या धनुली जैसे गीत भी लोगों की पसंद बने हुए हैं। पहाड़ के प्रति प्रेम का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि शहरों में ही पैदा हुई नई पीढ़ी भी मशहूर लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी, प्रीतम भरतवाण, मीना राणा, हीरा सिंह बिष्ट, संगीता ढौंडियाल सहित अन्य गायकों को सुनने के लिए उनके कार्यक्रमों का बेसब्री से इंतजार करते हैं। ‘तेरु मछोई गाड़ बगिगे ले, खाले अब खा माछा, मुझको पाड़ी मत बोलो मैं तो देहरादून वाला हूं’ जैसे गीत भी खूब सुने और गाये जा रहे हैं। गीतकार नरेन्द्र सिंह नेगी का कहना है कि किसी क्षेत्र विशेष के वे गीत जिनमें लोकतत्व निहित हों, उन्हें कुछ भी हो जाए पर भुलाया नहीं जा सकता। ऐसे कई सदाबहार पहाड़ी गीत हैं, जिनके बारे में यह भी नहीं मालूम कि लिखे किसने। यही बात संगीतकार स्वामी एस. चन्द्रा भी कहते हैं। कि पहाड़ी गीतों में ‘बेड़ु पाको..’ कई साल से नंबर वन है। उनका कहना है कि इसके लिए काफी अभ्यास करना होता है।
बैंड पार्टियों को ‘बेड़ु पाको’
जैसे सदाबहार गीतों के लिए करनी पड़ती है विशेष तैयारी
(धन सिंह भंडारी- ऱाष्टीय सहारा )
शहर की चकाचौंध से लोगों का जीवन स्तर ही नहीं जीवन शैली भी बदलती जा रही है। कहने को लोग पहाड़ छोड़कर खुद को देहरादून या दूसरे शहरों का बाशिंदा बताने लगे हैं, लेकिन आज भी आधुनिक परिवेश वाले पहाडी शहर में ‘पहाड़’ को भुलाना आसान नहीं है। यहां शादी ब्याह में सुनाई देने वाले वाली पहाड़ी वाद्य यंत्रों की गूंज के साथ ही बैंड की धुन पर पहाड़ में गाये जाने वाले लोक गीतों की धुन बजती है तो लोग बरबस ही थिरकने लगते हैं।
इससे साबित होता है कि उत्तराखंडी लोक जीवन की जड़ें इतनी गहरी हैं कि उन्हें भूलना या उखाड़ना आसान नहीं है। पहाड़ के लोग देहरादून या दूसरे शहरों में बसने के बाद आधुनिकता के साथ कदम से कदम मिलाने के लिए कदम ताल कर रहे हैं। विभिन्न क्षेत्रों में सफलता को छू रही नई पीढ़ी इस बात को साबित भी कर रही है। इसी भागमभाग में नई पीढ़ी अपनी मूल बोली-भाषा को भी भूल चुकी है, लेकिन बुजुगरे ने नई पीढ़ी में अपनी बोली-भाषा व संस्कृति के प्रति प्रेम की उस डोर को आज भी बांधकर रखा हुआ है। शायद यही वजह है कि तीन दशक से पहले गाये गये एक चर्चित गीत को देहरादून में भी उसी तन्मयता से सुना जाता है जितना पहाड़ की डांडी-काठय़ों में। गीत का नाम है ‘बेड़ु पाको बारो मासा, नारेण काफल पाको चेत।’दून में होने वाले शादी-ब्याह के इन आयोजनों में भले ही पंचतारा स्तर की तड़क-भड़क भी दिखने लगी है, लेकिन जब बैंड पर ‘बेड़ु पाको’ की धुन बजने लगती है तो सभी इस पर थिरकने लगते हैं। युवा पीढ़ी तो मानो मस्त हो जाती है। हालांकि ऐसा कोई सव्रे तो नहीं हुआ, लेकिन बैंड मास्टरों का भी कहना है कि समारोह से पहाड़ी परिवार का नाता है तो ‘बेडु पाको’ तो गाना ही गाना है। जब तक नहीं गाएंगे, बरात में वो रिदम व अपनापन नहीं आ पाता। शहर के ज्यादातर बैंड वादकों को यह गीत कंठस्थ है। बैंड की टीम बदलने पर नये साथियों को इस गीत के साथ अभ्यास भी कराया जाता है। इस मशहूर लोक गीत को धुन देने का श्रेय मोहन चन्द्र उप्रेती को जाता है। इसे आगे बढ़ाने में मोहन सिंह रीठागाड़ी व बृजेन्द्र लाल शाह का योगदान रहा है। सुदूर पहाड़ों से लेकर शहरों तक यह गीत सिरमौर बना हुआ है। समय- समय पर जुबान पर चढ़ जाने वाले कुछ अन्य गीत ‘ऐजा हे भानुमति पावो बजार.., टक टकाटक कमला बाढूली लगाये.., लीला घसियारी.., बबली तेरू मोबाइल. गैल्या धनुली जैसे गीत भी लोगों की पसंद बने हुए हैं। पहाड़ के प्रति प्रेम का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि शहरों में ही पैदा हुई नई पीढ़ी भी मशहूर लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी, प्रीतम भरतवाण, मीना राणा, हीरा सिंह बिष्ट, संगीता ढौंडियाल सहित अन्य गायकों को सुनने के लिए उनके कार्यक्रमों का बेसब्री से इंतजार करते हैं। ‘तेरु मछोई गाड़ बगिगे ले, खाले अब खा माछा, मुझको पाड़ी मत बोलो मैं तो देहरादून वाला हूं’ जैसे गीत भी खूब सुने और गाये जा रहे हैं। गीतकार नरेन्द्र सिंह नेगी का कहना है कि किसी क्षेत्र विशेष के वे गीत जिनमें लोकतत्व निहित हों, उन्हें कुछ भी हो जाए पर भुलाया नहीं जा सकता। ऐसे कई सदाबहार पहाड़ी गीत हैं, जिनके बारे में यह भी नहीं मालूम कि लिखे किसने। यही बात संगीतकार स्वामी एस. चन्द्रा भी कहते हैं। कि पहाड़ी गीतों में ‘बेड़ु पाको..’ कई साल से नंबर वन है। उनका कहना है कि इसके लिए काफी अभ्यास करना होता है।
बैंड पार्टियों को ‘बेड़ु पाको’
जैसे सदाबहार गीतों के लिए करनी पड़ती है विशेष तैयारी
(धन सिंह भंडारी- ऱाष्टीय सहारा )
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