( विजय त्रिपाठी)
उम्र के नौवें दशक से गुजर रहे शारीरिक तौर पर अशक्त लेकिन हौसले से भरपूर सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों के जरिए सिस्टम से जीवन भर जूझते रहने वाले परिपूर्णानंद पैन्यूली से हाल ही हालचाल लेते हुए पूछा कि कैसे हैं, तो पूरी मासूमियत से बोले-उत्तराखंड से अच्छा। अब उनकी ये हाजिरजवाबी महज ठिठोली थी या तंज, लेकिन आज राज्य स्थापना दिवस पर राज्य की हालत बयान करने के लिहाज से सर्वाधिक उपयुक्त। आज अपना उत्तराखंड 11 साल का हो गया है। बाल्यावस्था से किशोरावस्था की ओर बढ़ चला है। लेकिन पीछे मुड़कर देखें आंखें गीली हो आती हैं। तमाम आधारभूत-मूलभूत सुविधाएं अभी भी नवजात अवस्था में ही हैं, तमाम सपने अभी भी अधूरे ही है, तमाम ख्वाहिशें खारिज-सी हो चुकी हैं। अभी दो आज दो उत्तराखंड राज्य दो-जैसे नारे उस वक्त आवाज नहीं, जुनून थे। हमारा राज्य-हमारा राज की जिद से जूझकर-जान देकर हासिल किया गया उत्तराखंड आज खंडित आशाओं का प्रदेश बनता जा रहा है, शासन-सत्ता से नैराश्य घर करता जा रहा है। कुछ हमने तरक्की की है, कुछ मिसालें कायम की हैं, लेकिन ये लौ अ-विकास केघनघोर-घटाटोप अंधेरे का मुकाबला करने के लिए नाकाफी हैं।
बात तो यही तय थी, हमारे अगुवाकारों को इस राज्य की नई कहानी लिखनी थी, लेकिन हम ठगे से खड़े हैं। किसी शायर की चंद लाइनें ऐसे मौके पर बरबस याद आ रही हैं।
मुझे उससे कोई शिकायत ही नहीं
शायद मेरी किस्मत में चाहत ही नहीं
मेरी तकदीर को लिखकर खुदा भी मुकर गया
पूछा तो बोला ये मेरी लिखावट ही नहीं