हल्द्वानी: जी रया जागि रया, यो दिन यो मास भेंटने रया, स्यावे जै बुद्धि हो, स्यूं जस तराण, दुबै जसि जड़ है जो, धरती जास चकाव है जाया,
आकाश जास उकाव। बड़े-बुजुर्गो के इन्हीं आशीर्वचनों में निहित है हरेला पर्व का गूढ़ महत्व। अनूठी परंपरा वाला यह पर्व सुख समृद्घि का प्रतीक भी है।
श्रावण मास के प्रथम दिन कर्क संक्रांति के रूप में मनाए जाने वाला हरेला पर्व उत्तराखंड के पौराणिक पर्वो में है। इस दिन से सूर्य दक्षिणायन हो जाता है और कर्क रेखा से मकर रेखा की ओर बढ़ने लगती है। इसलिए इसे कर्क संक्रान्ति व श्रावण संक्रान्ति भी कहा जाता है। श्रावण मास का हरेला पर्व सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। ग्रीष्मकाल के बाद बरसात में चारों ओर हरियाली नजर आने लगती है। परिवार के मुखिया सावन मास शुरू होने के 10 दिन पूर्व टोकरियों में मिट्टी भर गेहूं, जौ, मक्का, उड़द, गहत, सरसों आदि सात प्रकार के अनाज को बोते हैं। पूजा स्थल में सुबह-शाम इसकी पूजा के समय बोए गए अनाज को पानी दिया जाता है। संक्रांति के एक दिन पूर्व हरेले की गुड़ाई की जाती है। शिव एवं पार्वती तथा लोक देवताओं की मूर्तियां (डिकारे) हरेले के पौधों के साथ रखकर पूजे जाते हैं। संक्रांति के दिन तक हरेले के पौधे 20 से 30 सेंटीमीटर ऊंचे व पीले रंग के हो जाते हैं।
संक्रांति सुबह टोली, अक्षत, फूल, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से पूजा कर पत्तियां देवी-देवताओं को चढ़ाई जाती हैं। फिर घर के सदस्यों के सिर पर रख घर के बड़े-बुजुर्ग जी रया जागि रया.. सरीखे दीर्घायु व बुद्धिमान होने का आशीर्वाद देते हैं।
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