Saturday, 7 November 2009

-शैली कर्नाटक, पूजन परंपरा गढ़वाली

-लैंसडौन स्थित गढ़वाल राइफल्स का रेजीमेंटल दुर्गा मंदिर राष्ट्रीय एकता की मिसाल -तत्कालीन सेंटर कमांडेंट कर्नल युनूस खान ने रखी थी मंदिर की आधारशिला -महाराजा मानवेंद्र शाह ने किया था मंदिर का उद्घाटन -बाद में ले.जन. आरवी कुलकर्णी के निर्देशों में दिया गया कर्नाटक शैली का स्वरूप भारतीय सेना की विभिन्न इकाइयों में गढ़वाल राइफल्स का नाम खास तौर पर लिया जाता है। अपने शौर्य, पराक्रम व बलिदानी परंपरा की बदौलत राइफल्स के वीर जवानों ने विभिन्न युद्धों में देश की आन, बान, शान की रक्षा भी की है। यही वजह है कि गढ़वाल राइफल्स का रुतबा इससे जुडऩे वाले सैनिकों के लिए भी सम्मान का विषय बन जाता है। कुछ ऐसा ही है गढ़वाल राइफल्स का रेजीमेंटल दुर्गा मंदिर भी। कहने को तो, यह आम मंदिरों की ही तरह है, जहां मां दुर्गा की पूजा की जाती है, लेकिन इस मायने में अपनी तरह का अनूठा कि यह भारत की धार्मिक, सांस्कृतिक एकता का परिचायक भी है। गढ़वाल राइफल्स का मुख्यालय लैंसडौन में स्थित है। यहीं स्थित है राइफल्स का रेजीमेंटल मंदिर भी। वर्ष 1961 तक यहां स्थित दुर्गा मंदिर अस्थायी रूप से क्वार्टर गार्ड के निकट ड्रिल शेड के आरमर शाप में स्थापित था। बाद में रेजीमेंट का विस्तार होने पर मंदिर का स्थान छोटा पडऩे लगा। इस पर तत्कालीन सेंटर कमांडेंट कर्नल युनूस खान के नेतृत्व में वर्तमान मंदिर के लिए उपयुक्त स्थान का चयन कर दुर्गा मंदिर की आधारशिला रखी गई। मंदिर के निर्माण के बाद इसका उद्घाटन तत्कालीन टिहरी सांसद महाराजा मानवेंद्र शाह ने किया था। यहां उल्लेखनीय है कि टिहरी रियासत के अंतिम महाराजा होने के कारण उन्हें गढ़वाल रेजीमेंट के आनरेरी कर्नल की उपाधि मिली थी। रेजीमेंट के शताब्दी वर्ष 1987 के मौके पर तत्कालीन सेंटर कमांडेंट बिग्रेडियर जीएस भुल्लर ने मंदिर को भव्य रूप देने की योजना बनाई, लेकिन उनका स्थानान्तरण होने से योजना परवान न चढ़ सकी। सन् 1992 में मंदिर निर्माण की योजना को अमलीजामा पहनाने का निर्णय लिया गया। वैधानिक स्वीकृति प्राप्त होने पर रक्षा मंत्रालय व सेना मुख्यालय से आवश्यक धनराशि खर्च करने की अनुमति ली गई। बिग्रेडियर जगमोहन रावत के कमान संभालने के बाद मार्च 1993 को नवसंवत्सर के शुभ अवसर पर नए नक्शे के आधार पर मंदिर के निर्माण का श्रीगणेश किया गया, लेकिन फिर ब्रिगेडियर भी स्थानांतरित हो गए। मौजूदा मंदिर के स्वरूप का श्रेय पूर्व कर्नल कमांडेंट ले. जनरल आरवी कुलकर्णी को जाता है। उनके निर्देशों पर मंदिर को उत्तर- दक्षिण की समन्वित संस्कृति के अनुरूप तैयार करने का निर्णय लिया गया। मंदिर को चार भागों में बांटा गया है। पहले भाग मुखमंडल में प्रवेशद्वार है। मध्य में मां राजराजेश्वरी व उनके दोनों ओर श्रीगणेश व कार्तिकेय की मूर्तियां हैं। द्वार के स्तम्भों पर सुंदर कलाकृतियां हैं। दूसरे भाग में प्राचीन मंदिर (पुराने मंदिर) के ढांचे को मनमोहक कलाकृतियों से सजाकर नवीन रूप दिया गया है। तीसरे भाग में प्रार्थना प्रकोष्ठ है, जिसकी दीवारें दोनों ओर नौ-नौ स्तंभों पर टिकी है। इन स्तम्भों पर भी कलाकृतियां उकेरी गई है। चौथे एवं अंतिम भाग को प्रधान मंदिर के रूप में बनाया गया है। मंदिर के बाहर विभिन्न देवी-देवताओं की बीस मूर्तियां है। खास बात यह है कि मंदिर कर्नाटक शैली में बनाया गया है, लेकिन यहां पूजा की परंपरा गढ़वाली रीति- रिवाजों पर आधारित है। सेना के सूबेदार मेजर आनरेरी लेफ्ट धर्मगुरू पंडित तोताराम मलेठा बताते है कि सेना का हर साहसिक दल मंदिर में पूजा-अर्चना के बाद ही रवाना होता है। मंदिर में प्रतिदिन सुबह-शाम पूजा अर्चना के अलावा रविवार को विशेष आयोजन किया जाता है।

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