Wednesday, 19 January 2011
विश्व मंच पर पहचान दिलाने से गौरवान्वित उत्तराखंड
पहले दक्षिण एशियाई शीतकालीन खेल समाप्त होते ही आयोजकों के साथ ही उत्तराखंड सरकार राहत की सांस ले रही है,
यह लाजिमी भी है। पहली बार किसी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता की मेजबानी से गौरवान्वित उत्तराखंड को यह आयोजन विश्व मंच पर पहचान दिलाने के साथ ही कई सबक भी दे गया। सबक इस मायने में कि धरातल पर ठोस कार्य किए बिना हवाई किले बनाने से कुछ नहीं होता। यह सही है कि इतने बड़े स्तर पर खेलों के आयोजन का प्रदेश के पास पुराना अनुभव नहीं था। जाहिर है कि ऐसे में कुछ न कुछ खामियां रहनी लाजिमी थीं, लेकिन यदि थोड़ी सी सतर्कता बरती जाती तो खेल और भी बेहतर हो सकते थे। तीन-तीन बार टलने के चलते आयोजकों को तैयारी के लिए पर्याप्त समय मिला था। बावजूद इसके आयोजक समय का सदुपयोग करने से चूक गए। दिसम्बर के पहले सप्ताह तक निर्माण कार्यों को लेकर ही असमंजस की स्थिति बनी रही। बाद में सरकार के हस्तक्षेप से ही हालात में सुधरने शुरू हुए। इतना ही नहीं तैयारियों की कमान स्वयं मुख्यमंत्री को संभालनी पड़ी। उन्होंने खेल मंत्री को निगरानी की कमान सौंपी। बावजूद इसके व्यवस्थाओं को लेकर असंतोष बना ही रहा। कुछ मामलों में आयोजकों की अपरिपक्वता भी सामने आई। मसलन, अंतरराष्ट्रीय नियमों की सही जानकारी के बिना ही एक स्पर्धा आयोजित कर दी गई। नियमानुसार किसी भी स्पर्धा में कम से कम तीन खिलाडिय़ों का होना जरूरी है, लेकिन खिलाडिय़ों की कमी के कारण आनन-फानन में दो को लेकर ही काम चलाया गया। बाद में इसे इवेंट के रूप में मान्यता नहीं मिल पायी। इससे स्पर्धा में प्रतिभाग करने वाले स्कीयर्स भी नाराज दिखे। इनमें से एक श्रीलंका और एक हिमाचल प्रदेश की थी। दोनों को मेडल से वंचित होना पड़ा। मौसम की मेहरबानी भी परेशानी बन गई। भारी बर्फबारी के दौरान औली में फंसे दर्शकों और टीमों को निकालने के समुचित इंतजाम नहीं थे। नेपाल से आये दल भटकते हुए किसी तरह जोशीमठ तक पहुंच पाया। खैर, फिर भी जैसा भी रहा, अच्छा रहा। लेकिन अब सरकार का दायित्व है कि इसे एक सबक के तौर पर ले। जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को कर्तव्य का जिम्मेदारी का बोध कराना भी सरकार को अपना फर्ज समझना होगा, तभी भविष्य में इस तरह के बड़े आयोजनों में फजीहत से बचा जा सकता है।
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मेरा उत्तराखंड महान उत्तराखंड
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