Thursday, 6 May 2010

-'कुदरत की हिफाजत है संस्कार

यहां जंगल और पानी हैं देवता --पर्वतीय क्षेत्रों में लोक जीवन की परंपराएं कर रही पर्यावरण संरक्षण -म_ी गांव और डख्याट गांव ने संरक्षित रखा है अपने जंगलों को -इन गांवों में कभी नहीं हुई पानी की कमी और बीमारी का प्रकोप Pahar1-उत्तरकाशी आस्था ईमान को जन्म देती है और पैसा भ्रष्टाचार को। इसे साबित करने के लिए किसी उदाहरण की जरूरत नहीं। देवभूमि में जो काम अरबों रुपये नहीं कर पाए, उसे आस्था ने कर दिखाया। पूर्वजों से विरासत में मिली परंपराओं को सहेजे ग्रामीणों ने जो मिसाल कायम की, वह सरकार और उन्नति के पथ पर दौड़ रहे समाज के लिए किसी आइने से कम नहीं। उत्तरकाशी जिले के म_ी और डख्याट गांव के लहलहाते जंगल आस्था और विश्वास से ही सींचे गए हैं। ये देवता के वन हैं, मजाल क्या कोई इन्हें काटने की सोचे। इन वृक्षों की बाकयदा पूजा-अर्चना की जाती है। पर्यावरण पर छाए संकट को लेकर दुनियाभर में चिंतन और मनन का दौर चल रहा है। योजनाएं बनीं, कानून बने और जनजागरूकता के नाम पर करोड़ों रुपये बहाए जा रहे हैं। पानी की तरह बह रहा पैसा भी हरियाली नहीं लौटा पा रहा है। गंगा और यमुना के मायके में श्रद्धा और विश्वास ने जो कर दिखाया वह सचमुच अनुकरणीय है। म_ी गांव के ऊपर का जंगल मटियाल देवता का जंगल कहलाता है। बांज, खर्सू और मोरू के इस घने जंगल को गांव के पूर्वजों ने देवता का जंगल घोषित कर दिया था, जिसकी बाकायदा पूजा की जाती है। जंगल में कोई भी ग्रामीण पेड़ों को काटना तो दूर उन्हें नुकसान तक नहीं पहुंचाता है। दस हजार पेड़ों वाले इस जंगल का साल में माघ व पौष मास में पूजन किया जाता है। तभी इसकी कटाई छंटाई और नए पेड़ों के लिये कलम भी लगाई जाती है। दूसरी ओर यमुना घाटी में डख्याट गांव में 15 हेक्टेयर भूमि में विकसित घना बांज का जंगल भी सौ साल पहले गांव के पूर्वजों की देन है। जंगल पनपाने के बाद पूर्वजों ने जो परंपराएं कायम की थी वो आज भी ज्यों की त्यों हैं। आज भी इस जंगल में कोई भी ग्रामीण हथियार लेकर नहीं जाता और ना ही पेड़ों को नुकसान पहुंचाता है। पंरपराओं में प्रकृति सर्वोपरि----- उत्तरकाशी: पर्वतीय क्षेत्रों में अब भी ऐसी परंपराएं कायम हैं, जिनमें प्रकृति को सर्वोपरि माना जाता है। धारा (पानी का स्रोत) पूजन भी ऐसी ही एक परंपरा है, जिसमें विवाह के बाद नवविवाहिता अपने ससुराल में सबसे पहले पानी के प्राकृतिक स्रोत की पूजा करती है। इसके अलावा उत्तरकाशी जिले के गाजणा क्षेत्र के हर गांव में एक पेड़ को पूजने की परंपरा आज भी कायम है। ठांडी गांव में खर्सू और मोरू के दो पेड़ों को चौरंगीनाथ और बौल्या राजा देवता का पेड़ माना जाता है। गोरसाड़ा गांव में भैरव देवता का खड़ीक का पेड़ और कमद गांव में चौरंगीनाथ का पेड़ भी पूजनीय हैं। ---लोकजीवन से दूर न हों जंगल उत्तरकाशी: जिन गांवों की परंपराओं ने जंगलों को संरक्षित रखा है उन गांवों में पानी की कमी महसूस नहीं की गई और ना ही उन गांवों में डायरिया या अन्य बीमारियों का प्रकोप हुआ। डख्याट गांव की प्रधान सुनीता जयाड़ा बताती हैं कि उनके गांव में अब भी पांच प्राकृतिक जल स्रोत हैं। गांव में आज तक डायरिया जैसी बीमारी का असर नहीं देखा गया। वहीं म_ी गांव के देशबंधु भट्ट बताते हैं कि उनके गांव में पानी का मुख्य स्रोत प्राकृतिक ही है।

1 comment:

  1. राकेश भाई,
    आज पहाड़१ देखा अच्छा लगा, आपके प्रयास की सराहना के लिए शब्दों की कमी पड़ गई, इसकी व्यापकता के लिए हम भी पूरा प्रयास करेंगे। आप साधुवाद के पात्र हैं, इस प्रकार के प्रयास निश्चित रूप से प्रवासी पहाडिय़ों और उनकी मैदानी होती जा रही संतानों और आने वाली पीडी को उत्तराखंड़ी थाती और पहाड़ की समृद्ध मूलजड़ों की ओर ले जाएगी।
    शुभकामनाओं के साथ।

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