Thursday, 6 May 2010
लटके-झटकों में गुजरा दौर, नहीं मिला 'ठौर
- अपनों के बीच बेगाने से हुए संस्कृति के संवाहक
- दस साल में भी सांस्कृतिक पहचान नहीं बना पाया यह पहाड़ी प्रदेश
- हवाई साबित हुए कला संस्कृति को बढ़ावा देने के दावे
- संस्कृति महकमे में धूल फांक रहे पहाड़ी लोकवाद्य
Pahar1-न सावन बरसा, न भादौ सूखाÓ, ऐसा ही है अपने संस्कृति महकमे का हाल। एक दशक बीतने जा रहा राज्य बने, लेकिन हम जहां थे, वहीं कदमताल कर रहे हैं और अपनों के बीच बेगाने से हो गए हैं संस्कृति के वाहक। बुजुर्ग कलाकार उपेक्षा सहने को मजबूर हैं और युवाओं का साल-दो साल में ही उत्साह ठंडा पड़ जा रहा है। ऐसा नहीं कि कला-संस्कृति को बढ़ावा देने के दावे न हुए हों। खूब हुए और साल-दर-साल हुए, पर हकीकत शर्मसार कर देने वाली है और यही वजह भी है कि कला-संस्कृति का धनी यह पहाड़ी प्रदेश देश-दुनिया में अपनी कोई सांस्कृतिक पहचान नहीं बना पाया।
राज्य गठन के पीछे एक वजह इस भूभाग को सांस्कृतिक पहचान दिलाना भी रही है, लेकिन हुआ कहां। बीते दस सालों में भाषा-संस्कृति को लेकर किसी भी स्तर पर गंभीरता दिखी हो, याद नहीं आता। इस अवधि में कला-संस्कृति के नाम पर जो भी घटित हुआ, वह विशुद्ध रूप से संस्कृति कर्मियों के स्वप्रयासों का फल है। सरकारों व संस्कृति महकमे का हाल तो 'नाच न जाने आंगन टेढ़ाÓ वाला रहा। महकमे की पहल पर साल में जो दो-चार बड़े सांस्कृतिक आयोजन होते भी हैं, उनमें भी स्थानीय कलाकारों की कितनी भूमिका होती है, यह बताने की जरूरत नहीं। फिर इन आयोजनों में ऐसा होता भी क्या है। वही दो-तीन पारंपरिक सांस्कृतिक दल, वही लटके-झटके और बाजारू गीत-संगीत। अगर यही संस्कृति है तो खुदा खैर करे।
संस्कृति के झंडाबरदार वातानुकूलित कक्षों में बैठकर यह भी भूल गए कि संस्कृति का संरक्षण भाषणों से नहीं होता। इसके लिए जड़ें सींचनी पड़ती हंै, लोक को गले लगाना पड़ता है। यहां तो उल्टा ही हो रहा है। युवा कलाकार उपेक्षित हैं और बुजुर्ग गर्दिश में। इन दस सालों में संस्कृति महकमा जिस एकमात्र उपलब्धि पर फूला नहीं समा रहा, वह है 122 लोकधर्मियों के लिए स्वीकृत एक-एक हजार रुपये की पेन्शन। इसे पाने के लिए भी उन्हें कम पापड़ नहीं बेलने पड़ते। संस्कृति के संरक्षण के नाम पर पहाड़ी लोकवाद्य संस्कृति महकमे में धूल फांक रहे हैं। अब कौन समझाए कि लोकवाद्यों का संरक्षण उन्हें म्यूजियम में रखकर नहीं, बल्कि व्यवहार में लाकर ही संभव है।
'जैकÓ पर घिसटती संस्कृति
संस्कृति महकमे में लगभग 95 सांस्कृतिक दल पंजीकृत हैं, लेकिन आयोजनों में भाग लेने का मौका चुनिंदा दलों को ही मिल पाता है और वह भी 'जैकÓ पर। बजट ले जाने में भी वह दल सफल हो पाते हैं, जिनकी 'जैकÓ है। समझा जा सकता है कि किस तरह 'जैकÓ पर संस्कृति को ढोया जा रहा है। इसी तरह विभाग में पंजीकृत लोक कवियों का हाल भी है। कुछ को तो खूब मौका मिल जाता है और कुछ मौका पाने को विभाग के चक्कर काटते रह जाते हैं।
''लोक विधाओं के संरक्षण-संवद्र्धन को सूबे के छह जिलों पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, बागेश्वर, टिहरी, चमोली व उत्तरकाशी में गुरु-शिष्य परंपरा की शुरुआत की जा रही है। इसके तहत छह विशेषज्ञ लोकधर्मी युवाओं को लोकगायन, राधाखंडी संगीत, लोकगाथा गायन, माच्र्छा नृत्य, ढोल सागर व छोलिया नृत्य की दीक्षा देंगे। इन विधाओं का विजुअल फार्म में डाक्युमेंटेशन भी होगाÓÓ।
- बीना भट्ट, निदेशक, संस्कृति विभाग उत्तराखंड
प्रस्तावित योजनाएं :
- उत्तराखंडी लोकनृत्यों को नई पहचान देने को तैयार होगा शास्त्रीय व लोकनृत्य का फ्यूजन
- सूबे के लोक कलाकारों को मिलेंगे आइडेंटिटी कार्ड
- कैटेगराइज्ड होंगे विभाग में पंजीकृत सांस्कृतिक दल
- अपडेट की जाएंगी सांस्कृतिक दलों से जुड़ी समस्त जानकारियां
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