Thursday, 20 May 2010
- देवभूमि : नीर-क्षीर की जगह बह रही मदिरा
- बढ़ रही शराब की खपत, उजड़ रहे घर, बिखर रहे परिवार
- गत वर्ष 400 लाख लीटर शराब की खपत
Pahar1-: देवभूमि उत्तराखंड में नीर-क्षीर की जगत अब मदिरा की नदियां बहने लगी हैं। बढ़ रही खपत के अनुपात में आबकारी राजस्व भले ही कई गुना हो गया हो, लेकिन घर उजड़ रहे हैं और परिवार बिखर रहे हैं। पिछले साल सूबे में चार सौ लाख लीटर शराब और 110 लाख बोतल बीयर की खपत हुई। पहाड़ में जहां महिलाएं इस कारोबार में आगे आने लगी हैं वहीं बड़े नगरों में अब हाई क्लास महिलाएं भी इसका सेवन करने लगी हैं।
पहाड़ में एक दौर था जब शराब नहीं रोजगार दो के नारे गूंजते थे। अल्मोड़ा के बसभीड़ा से सत्तर के दशक का यह आंदोलन गांव-गांव चला। पर बदले वक्त में अब पर्वतीय समाज में शराब की स्वीकार्यता आम हो गयी है। शादी उत्सव जैसे कार्यक्रमों के अलावा देवकार्यों और मातमपुर्सी में भी आसुरी प्रवृति बढ़ गई है। सूबे में भले ही आयकर के बाद आबकारी से सबसे ज्यादा राजस्व मिलता हो, लेकिन बर्बाद हो रही युवा पीढ़ी की चिंता न तो नुमाइंदों को है न ही पहाड़ के कथित झंडा बरदारों को। वर्ष 2006 में नैनीताल शरदोत्सव में आये गायक अन्नू कपूर ने सूर्य अस्त पहाड़ी मस्त कहा तो इसका खूब विरोध हुआ, लेकिन हकीकत का आइना देखने के बाद भी आज विरोध करने वाले स्वीकारते है कि स्थिति दिनोंदिन बिगड़ रही है। अब तो भोर में ही कई शराबी नजर आ जाते हैं। फलस्वरूप शराब ने हजारों परिवार बेघर कर दिये हैं। कई परिवारों में हर रोज कलह अशांति का कारण शराब बन रही है।
आबकारी महकमे के आंकड़े देखे तो राजधानी दून पहले और धर्मनगरी हरिद्वार दूसरे स्थान पर है। भले ही इस बार महाकुंभ में करोड़ों लोगों ने यहां गोते लगाकर पुण्य कमाया हो। पर्यटक नगरी नैनीताल में भी शराब की रेलमपेल है। पूरे जिले में वर्ष 2008-09 में 65 लाख लीटर शराब और 15 लीटर बियर से गला तर किया गया है। महानगरों की तरह उत्तराखंड की राजधानी देहरादून, हल्द्वानी, रुद्रपुर, नैनीताल, हरिद्वार में तो महिलाओं में भी आसुरी प्रवृति पनपने लगी है। कई स्थानों पर साधु वेशधारी भी कच्ची-पक्की गटक जा रहे हैं। युवा पीढ़ी के अलावा शार्टकट तरीके से नव धनाढ्य बन रहे लोगों में भी शराब का प्रचलन बढ़ा है।
बहरहाल देवभूमि में जड़े जमा रही आसुरी प्रवृति ने यहां के सामाजिक और पारिवारिक ताने-बाने में सेंध लगा दी है। राजस्व के नाम पर जहां भविष्य से खिलवाड़ हो रहा है, वहीं कई परिवर बिखर रहे हैं। इसके बावजूद सरकार बिजली, पानी, राशन से ज्यादा इस बात की चिंता करती है कि शराब का ठेका किसी कीमत पर बंद नहीं होना चाहिए।
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आबकारी विभाग का आंकड़ा (वर्ष 2008-09)
जनपद देशी शराब विदेशी शराब बियर
चम्पावत 8.16 4.66 2.22
पिथौरागढ़ 5.58 9.98 5.87
बागेश्वर 6.21 6.08 2.01
अल्मोड़ा 20.98 34.94 5.43
यूएसनगर 16.49 9.79 16.23
नैनीताल 39.58 25.24 14.62
चमोली - 8.07 4.22
पौड़ी - 23.59 8.07
रुद्रप्रयाग - 4.02 0.30
उत्तरकाशी - 8.30 1.98
टिहरी - 16.61 6.38
हरिद्वार 52.97 12.97 13.57
देहरादून 60.80 34.04 27.02
कुल- 210.77 189.29 107.92
नोट- शराब लाख रुपये में तथा बियर लाख बोतल में है।
बदरीनाथ धाम के कपाट खुले

-चारधाम: हवाई सेवा को दो कंपनियों को अनुमति
फेरों की संख्या पर सरकार शीघ्र करेगी निर्णय
Pahar1-
सरकार ने चारधाम के लिए हेलीकाप्टर सेवा शुरू करने के लिए दो कंपनियों को अनुमति दी है। हालांकि फेरों की संख्या अभी निर्धारित नहीं की गई है। हेलीकाप्टर सेवा शुरू करने पर कुछ अन्य कंपनियों व सरकार के बीच अभी वार्ता जारी है।
चारधाम यात्रा को सरकार ने व्यापक तैयारी की है। संबंधित विभागों को यात्रियों की सहूलियतों का पूरा ख्याल रखने के कड़े निर्देश दिए गए हैं। इसे देखते हुए नागरिक उड्डयन विभाग ने यात्रा मार्ग पर हेलीकाप्टर सेवा शुरू करने की योजना बनाई और सरकार को एक प्रस्ताव भेजा। विभिन्न स्तरों पर हुई वार्ता के बाद दस कंपनियां यात्रा रूट पर हेलीकाप्टर सेवा शुरू करने पर राजी हो गई। बाद में किसी कारणवश दो कंपनियों के प्रस्ताव निरस्त करने पड़े। शासन द्वारा जारी आदेश में फिलहाल मैसर्स पवनहंस हेलीकाप्टर्स लिमिटेड व मैसर्स प्रभातम एविएशन प्राइवेट लिमिटेड को यात्रा रूट पर अपनी सेवाएं शुरू करने की अनुमति दे दी गई है। शेष छह कंपनियों द्वारा हेलीकाप्टर सेवा शुरू करने के बाद ही तय किया जाएगा कि एक दिन में कितने चक्कर लगाने हैं।
राज्य आंदोलनकारियों को नौकरी देने संबंधी शासनादेश निरस्त
-हाईकोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 14 व 16 का उल्लंघन करार दिया
, नैनीताल: हाईकोर्ट ने राज्य आंदोलनकारियों को नौकरी देने संबंधी
शासनादेश को संविधान के अनुच्छेद 14 व 16 का उल्लंघन करार देते हुए उसे निरस्त कर दिया है।
राज्य आंदोलनकारी करूणेश जोशी व नारायण सिंह राणा द्वारा हाईकोर्ट में दायर याचिकाओं में उन्हें शासनादेश के अनुरूप नियुक्ति दिए जाने का आग्रह किया गया था। याचिका कर्ता करुणेश जोशी का कहना था कि सरकार द्वारा 11 अगस्त 04 को एक शासनादेश जारी किया गया था, जिसमें उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारियों को सेवा नियमों में शिथिलता बरतते हुए तृतीय श्रेणी की नौकरियों मेें नियुक्ति देने के निर्देश दिये गये थे। याचिका कर्ता का कहना था कि उक्त शासनादेश के तहत आंदोलन के दौरान घायल होने के नाते वह नौकरी पाने का अधिकारी है, परन्तु सरकार द्वारा उसे नौकरी देने से इंकार किया जा रहा है। दूसरे याची नारायण सिंह राणा का कहना था कि सरकार के अनुमोदन बावजूद ऊधमसिंह नगर के जिला शिक्षाधिकारी द्वारा उन्हें विभाग में नौकरी नहीं दी जा रही है। दोनों याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान कोर्ट ने पूर्व में ऊधमसिंह नगर के जिला शिक्षाधिकारी को तलब किया था, जिस पर जिला शिक्षाधिकारी द्वारा याचिका कर्ता नारायण सिंह राणा को कोर्ट में नियुक्ति पत्र दिया गया।
इधर न्यायमूर्ति तरुण अग्रवाल की एकलपीठ ने दोनों याचिकाओं में एक साथ बहस सुनने के बाद पाया कि उक्त शासनादेश संविधान के अनुच्छेद 14 व 16 का उल्लंघन है तथा राजकीय कर्मचारियों की सेवा नियमावली में संशोधन किये बिना जारी किया गया है। एकलपीठ का कहना था कि उक्त शासनादेश विभिन्न न्यायालयों के न्याय निर्णयों के भी विरुद्ध है। इस आधार पर हाईकोर्ट की एकलपीठ ने राज्य आंदोलनकारियों को सरकारी नौकरियों में नियुक्ति देने संबंधी 11 अगस्त 04 के शासनादेश को निरस्त कर दिया।
342 संविदा प्रवक्ताओं की होगी भर्ती
- पर्वतीय क्षेत्रों के महाविद्यालयों में शिक्षकों की कमी को दूर करने में जुटा विभाग
- शासन को भेजा प्रस्ताव
, हल्द्वानी: पर्वतीय क्षेत्रों के महाविद्यालयों में प्रवक्ताओं की कमी को दूर
करने के लिए उच्च शिक्षा निदेशालय स्तर से कवायद चल रही है। निदेशालय की ओर से 343 पदों पर प्रवक्ताओं को संविदा पर नियुक्ति के लिए प्रस्ताव शासन को भेज दिया गया है। इससे उम्मीद जतायी जा रही है कि नये सत्र से दूरस्थ क्षेत्र के छात्र-छात्राओं को लाभ मिल सकेगा।
राज्य में 69 राजकीय महाविद्यालय संचालित हो रहे हैं। इनमें प्रवक्ताओं के 1260 पद सृजित हैं। इसमें 540 शिक्षक ही नियमित हैं। 384 प्रवक्ता विजिटिंग व संविदा पद पर कार्यरत हैं। इसमें से अधिकांश शिक्षकों ने अपना स्थानान्तरण शहरी क्षेत्रों के महाविद्यालयों में कराया है। इसके चलते पर्वतीय क्षेत्रों के महाविद्यालयों की स्थिति बेहद दयनीय हो रही है। शिक्षकों की जबरदस्त कमी है। राज्य लोक सेवा आयोग से समय रहते नियुक्ति नहीं होना भी समस्या बनी हुई है। अब इस कमी को दूर करने का प्रयास किया जा रहा है। इसके लिए उच्च शिक्षा निदेशालय ने 343 प्रवक्ताओं को संविदा पर नियुक्त करने के लिए प्रस्ताव शासन को भेजा है। उच्च शिक्षा निदेशालय के संयुक्त निदेशक प्रो. बहादुर सिंह बिष्ट ने बताया कि शिक्षकों की कमी को दूर किया जा रहा है। शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ किया जा रहा है। पर्वतीय क्षेत्रों के छात्र-छात्राएं भी उच्च शिक्षा का लाभ उठा सकें। इसके लिए संविदा पर प्रवक्ताओं की नियुक्ति के लिए प्रस्ताव शासन को भेजा गया है। उम्मीद है कि नये सत्र में शिक्षकों की कमी नहीं रहेगी।
भक्तों के दर्शनार्थ खुले केदारनाथ के कपाट

Wednesday, 19 May 2010
उत्तराखंड में राजकीय इंटर कालेजों में प्रवक्ताओ के लिए परीक्षा
उत्तराखंड में राजकीय इंटर कालेजों में प्रवक्ताओ के लिए परीक्षा तिथि २६ म्र्ई २०१० को ।
Thursday, 13 May 2010
उत्तराखण्ड सचिवालय/लोक सेवा आयोग परीक्षा परिणाम
Result of Data Entry Operator examination 2007
Result of Drug Inspector
Result of A.M.O. Male
Rejection List Of Candidates Applied For Lecturer In Govt. Inter College
शुद्विपत्र- उत्तराखण्ड सचिवालय/लोक सेवा आयोग समीक्षा अधिकारी/सहायक समीक्षा अधिकारी मुख्य परीक्षा-2007 से सम्बन्धित शुद्विपत्र
विज्ञप्ति-उत्तराखण्ड राज्य सम्मिलित सिविल/प्रवर अधीनस्थ सेवा (मुख्य)परीक्षा-2006 का परीक्षा परिणाम
विज्ञप्ति- उत्तराखण्ड सचिवालय/लोक सेवा आयोग समीक्षा अधिकारी/सहायक समीक्षा अधिकारी मुख्य परीक्षा-2007 से सम्बन्धित पाठयक्रम के प्रकाशन के सम्बन्ध में
विज्ञप्ति- सम्मिलित राज्य अभियन्त्रण सेवा परीक्षा 2007 के आयोजन सम्बन्धित विज्ञप्ति
चयन परिणाम-उत्तराखण्ड शासन के उच्च्ा शिक्षा विभाग के अर्न्तगत महाविद्यालयों में प्रवक्ता शिक्षा शास्त्र के रिक्त पदों हेतु
चयन परिणाम विज्ञप्ति-उत्तराखण्ड शासन के चिकित्सा, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के अर्न्तगत चिकित्सा अधिकारी विशेषज्ञ-उप संवर्ग के पदो पर चयन हेतु
see-http://gov.ua.nic.in/tenders/showtenders.aspx?Did=22
Thursday, 6 May 2010
-बदरीनाथ में तैयार हो रहा है 'नन्हा भारत
-नौ हेक्टेयर क्षेत्र में फैल रहा है बदरीश एकता वन
-सभी राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों को वन क्षेत्र में आरक्षित है भूमि
-पर्यावरण संरक्षण को आस्था से जोडऩे की हो रही है अनूठी पहल
-यात्री यात्रा की स्मृति में वन क्षेत्र में लगा रहे हैं एक-एक पौध
Pahar1- गोपेश्वर(चमोली): श्रीबदरीनाथ धाम में मिनी इंडिया तैयार हो रहा है। महज सात वर्ष के इस नन्हे भारत की आबादी अब तक 734 हो गई है। आस्था और विश्वास से सींचे जा रहे इस भारत में सभी राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों के लिए भूमि आरक्षित है, जिनमें फिलहाल चार प्रजातियों की वंशवृद्धि की जा रही है। यह नया भारत न सिर्फ अनेकता में एकता का प्रतीक है, बल्कि देश और दुनिया को पर्यावरण संरक्षण के लिए एकजुट होने का संदेश भी दे रहा है।
बात हो रही है भू-बैकुंठधाम बदरीनाथ में तैयार किए जा रहे बदरीश एकता वन की। 23 जून 2002 को वन महकमे ने श्रीबदरीनाथ धाम में पर्यावरण संरक्षण को आस्था से जोडऩे की एक अनूठी पहल की। माणा और बामणी गांव के सहयोग से बदरीनाथ में देवदर्शनी के पास नौ हेक्टेयर भूमि का चयन किया गया। इस भूमि को 35 हिस्सों में बांटकर सभी 28 राज्यों व 7 केंद्र शासित प्रदेशों के लिए जमीन आरक्षित की गई, जिसे बदरीश एकता वन नाम दिया गया।
इसका मकसद था आस्था को पर्यावरण संरक्षण से जोडऩा। यानि बदरीनाथधाम में आने वाले यात्रियों को इस बात के लिए प्रेरित किया जाना कि वे अपने पूर्वजों, परिजनों, मित्रों अथवा यात्रा की स्मृति में अपने-अपने राज्यों के लिए आवंटित भूमि पर एक पौध रोपित करें। इसके लिए पेड़ लगाने वाले प्रत्येक यात्री को वन विभाग को सौ रुपए देने होते हैं, जिसमें वृक्ष की कीमत और उसके रखरखाव का खर्च शामिल है। धीरे-धीरे ही सही लेकिन यह योजना रंग लाने लगी है।
अब तक देश के कोने-कोने से यहां आए आम से लेकर खास तीर्थयात्री बदरीश एकता वन में भोजपत्र, कैल, देवदार, जमनोई प्रजातियों के कुल 734 पौधे लगा चुके हैं। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि प्रचार-प्रसार के अभाव में बदरीश वन फल-फूल नहीं पाया। हालांकि, अब बदरीश वन पर सूबे के मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल निशंक की नजरें इनायत हुई हैं। गत 26 अप्रैल को जोशीमठ पहुंचे डा. निशंक ने न सिर्फ बदरीश वन के कांसेप्ट की सराहना की, बल्कि उसके रखरखाव और सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम करने की अहम घोषणा भी की। नई व्यवस्था के तहत इस अनूठे वन को संवारा जाएगा। वन क्षेत्र पर लगे प्रत्येक पौधे पर उसे लगाने वाले व्यक्ति की नेम प्लेट भी लगाई जाएगी और वृक्ष की देखरेख के लिए बाकायदा कर्मचारी भी तैनात किए जाएंगे।
''बदरीश एकता वन को कैम्पा (कंपनसेटरी एफारेस्टेशन मानीटरिंग प्लान अथारिटी) प्रोजेक्ट के तहत विकसित करने के निर्देश मुख्यमंत्री ने दिए हैं। वन क्षेत्र में वृक्षों की देखभाल के लिए कर्मचारी तैनात होंगे और योजना के प्रचार प्रसार के लिए सभी राज्यों में प्रचार सामग्रियां भेजी जाएंगी। हाईटैक प्रचार को भी अपनाया जाएगाÓÓ
सनातन, डीएफओ अलकनन्दा भूमि संरक्षण वन प्रभाग
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नदियों का उद्गम स्थल ही 'प्यासा
हालात बेकाबू: प्रति व्यक्ति जरूरत
135 लीटर पानी की, मिल नहीं रहा
आधा भी
-17 लाख आबादी मात्र 10
लीटर प्रति व्यक्ति में ही चला रही है
काम
Pahar1- हल्द्वानी: पहाड़ों का पानी भले ही देशभर का गला तर कर रहा हो, पर यह सच है कि आज 'पहाड़Ó खुद भी प्यासा है। सरकारी विभाग के आंकड़े भी इस बात की गवाही दे रहे हैं कि उत्तराखंड के ग्र्रामीण इलाकों में रहने वाली 17 लाख आबादी को बमुश्किल 10 लीटर प्रति व्यक्ति पानी मिल रहा है, जबकि मानक अनुरूप जरूरत 135 लीटर प्रति व्यक्ति पानी की है। ऐसे में व्यक्ति क्या नहा रहा होगा और क्या पी रहा होगा, समझना कठिन नहीं है।
उत्तराखंड नदी-नहरों का प्रदेश कहा जाता है। हल्द्वानी में गौला नदी, कुमाऊं नेपाल सीमा में काली, अल्मोड़ा में नयार, बागेश्वर से सरयू, चौखुटिया से रामगंगा, बागेश्वर से गोमती तो अल्मोड़ा से कोसी नदी निकलती है। यहां से निकलने वाली यही नदियां देश की लाखों आबादी की प्यास बुझा रही हैं। मगर हैरत की बात तो यह है कि पानी देने वाला उत्तराखंड आज खुद ही प्यासा है। थोड़ी-बहुत राहत केवल तराई में है, पहाड़ पर तो केवल त्राहि-त्राहि है। सिंचाई विभाग के आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि नदियों का जलस्तर जहां तेजी से गिर रहा है तो जलस्रोतों की कमी के कारण नहरें सूखती जा रही हैैं। कोसी नदी का जलस्तर गिरने से अल्मोड़ा जिला त्राहि-त्राहि कर रहा है तो बागेश्वर समेत राज्य के कई पर्वतीय हिस्सों में तो लोग कई-कई दिनों का रखा पानी पीने को मजबूर हैं। गौला नदी का जल स्तर गिरने से कुमाऊं के प्रवेश द्वार हल्द्वानी की जनता को भी अब गला तर करने में दिक्कतें आ रही हैं। अगर जल संस्थान के निर्धारित मानकों की बात करें तो हर व्यक्ति को 135 लीटर पानी की जरूरत होती है। मगर पहाड़ के 21 ऐसे शहर-कस्बे हैं, जहां की आबादी को आधा यानि 70 लीटर पानी तक नसीब नहीं हो पा रहा है। ग्रामीण अंचलों में तो लोग 40 लीटर प्रति व्यक्ति पानी से ही काम चला रहे हैैं। सिंचाई विभाग के उच्चाधिकारियों का कहना है कि प्रदेश में करीब 39,180 ग्र्रामीण क्षेत्र हैैं। जिनमें करीब 70.60 लाख आबादी निवास करती है। इस आबादी में करीब 17 लाख लोगों को महज दस लीटर पानी ही रोजाना मिल पा रहा है। सोचने वाली बात है कि 135 लीटर पानी की जरूरत वाला व्यक्ति 10 लीटर पानी में कैसे जरूरत पूरी कर रहा होगा।
संकट हल करने का पूरा प्रयास: पंत
हल्द्वानी: पेयजल मंत्री प्रकाश पंत का कहना है कि पेयजल संकट तो है, मगर सरकार भी पूरी गंभीरता से उसको ले रही है। शहर की सीमा में आ चुकी ग्र्रामीण बस्तियों को स्वैप योजना से बाहर किया जा रहा है, ताकि इन्हें मानकों के अनुसार पानी दिया जा सके।
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-'कुदरत की हिफाजत है संस्कार
यहां जंगल और पानी हैं देवता
--पर्वतीय क्षेत्रों में लोक जीवन की परंपराएं कर रही पर्यावरण संरक्षण
-म_ी गांव और डख्याट गांव ने संरक्षित रखा है अपने जंगलों को
-इन गांवों में कभी नहीं हुई पानी की कमी और बीमारी का प्रकोप
Pahar1-उत्तरकाशी
आस्था ईमान को जन्म देती है और पैसा भ्रष्टाचार को। इसे साबित करने के लिए किसी उदाहरण की जरूरत नहीं। देवभूमि में जो काम अरबों रुपये नहीं कर पाए, उसे आस्था ने कर दिखाया। पूर्वजों से विरासत में मिली परंपराओं को सहेजे ग्रामीणों ने जो मिसाल कायम की, वह सरकार और उन्नति के पथ पर दौड़ रहे समाज के लिए किसी आइने से कम नहीं। उत्तरकाशी जिले के म_ी और डख्याट गांव के लहलहाते जंगल आस्था और विश्वास से ही सींचे गए हैं। ये देवता के वन हैं, मजाल क्या कोई इन्हें काटने की सोचे। इन वृक्षों की बाकयदा पूजा-अर्चना की जाती है।
पर्यावरण पर छाए संकट को लेकर दुनियाभर में चिंतन और मनन का दौर चल रहा है। योजनाएं बनीं, कानून बने और जनजागरूकता के नाम पर करोड़ों रुपये बहाए जा रहे हैं। पानी की तरह बह रहा पैसा भी हरियाली नहीं लौटा पा रहा है।
गंगा और यमुना के मायके में श्रद्धा और विश्वास ने जो कर दिखाया वह सचमुच अनुकरणीय है। म_ी गांव के ऊपर का जंगल मटियाल देवता का जंगल कहलाता है। बांज, खर्सू और मोरू के इस घने जंगल को गांव के पूर्वजों ने देवता का जंगल घोषित कर दिया था, जिसकी बाकायदा पूजा की जाती है। जंगल में कोई भी ग्रामीण पेड़ों को काटना तो दूर उन्हें नुकसान तक नहीं पहुंचाता है। दस हजार पेड़ों वाले इस जंगल का साल में माघ व पौष मास में पूजन किया जाता है। तभी इसकी कटाई छंटाई और नए पेड़ों के लिये कलम भी लगाई जाती है।
दूसरी ओर यमुना घाटी में डख्याट गांव में 15 हेक्टेयर भूमि में विकसित घना बांज का जंगल भी सौ साल पहले गांव के पूर्वजों की देन है। जंगल पनपाने के बाद पूर्वजों ने जो परंपराएं कायम की थी वो आज भी ज्यों की त्यों हैं। आज भी इस जंगल में कोई भी ग्रामीण हथियार लेकर नहीं जाता और ना ही पेड़ों को नुकसान पहुंचाता है।
पंरपराओं में प्रकृति सर्वोपरि-----
उत्तरकाशी: पर्वतीय क्षेत्रों में अब भी ऐसी परंपराएं कायम हैं, जिनमें प्रकृति को सर्वोपरि माना जाता है। धारा (पानी का स्रोत) पूजन भी ऐसी ही एक परंपरा है, जिसमें विवाह के बाद नवविवाहिता अपने ससुराल में सबसे पहले पानी के प्राकृतिक स्रोत की पूजा करती है। इसके अलावा उत्तरकाशी जिले के गाजणा क्षेत्र के हर गांव में एक पेड़ को पूजने की परंपरा आज भी कायम है। ठांडी गांव में खर्सू और मोरू के दो पेड़ों को चौरंगीनाथ और बौल्या राजा देवता का पेड़ माना जाता है। गोरसाड़ा गांव में भैरव देवता का खड़ीक का पेड़ और कमद गांव में चौरंगीनाथ का पेड़ भी पूजनीय हैं।
---लोकजीवन से दूर न हों जंगल
उत्तरकाशी: जिन गांवों की परंपराओं ने जंगलों को संरक्षित रखा है उन गांवों में पानी की कमी महसूस नहीं की गई और ना ही उन गांवों में डायरिया या अन्य बीमारियों का प्रकोप हुआ। डख्याट गांव की प्रधान सुनीता जयाड़ा बताती हैं कि उनके गांव में अब भी पांच प्राकृतिक जल स्रोत हैं। गांव में आज तक डायरिया जैसी बीमारी का असर नहीं देखा गया। वहीं म_ी गांव के देशबंधु भट्ट बताते हैं कि उनके गांव में पानी का मुख्य स्रोत प्राकृतिक ही है।
तंत्र विधान से होती है मां नंदा की पूजा
-चंदवंशीय राज परिवार के वंशज हर वर्ष नंदाष्टमी पर पहुंचते हैं अल्मोड़ा
अल्मोड़ा pahar1-
मां नंदा को शैलपुत्री, तारा व शक्ति की अधिष्ठात्री देवी के रूप में मान्यता प्रदान है। मां नंदा के प्रति आस्था, श्रद्धा व उनकी महत्ता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उत्तराखण्ड के हिमशिखरों का नाम मां नंदा के नाम पर हैं। इसलिए उन्हें पर्वतपुत्री भी कहा जाता है।
मां नंदा की पूजा के अलग-अलग विधान हैं। यूं तो पूरे उत्तराखण्ड की ईष्ट देवी के रूप में मां की मान्यता है। कुमाऊं के चंदवंशीय राजाओं की कुलदेवी के रूप में मां अल्मोड़ा की ऐतिहासिक नगरी नंदादेवी मंदिर में विराजमान है। राज परिवार के वंशज आज भी प्रतिवर्ष भाद्र मास के शुक्ल पक्ष में तंत्र विधान से मां की पूजा-अर्चना विधि-विधान से करते हैं। भाद्र मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी से गणेश पूजा के साथ मां का पूजा-अर्चन शुरू होता है। पूजा के दौरान यज्ञ, हवन, बलिदान किया जाता है।
नगर के जाने-माने शिक्षाविद् सुशील चन्द्र जोशी ने अपने एक लेख में कहा है कि 1670 ईसवी के आसपास राजा बाजबहादुर चंद ने मां नंदा को मल्ला महल में स्थापित किया। 1699 में राजा ज्ञान चंद तथा 1710 में राजा जगत चंद ने पुनरप्रतिष्ठित किया। अंग्रेज कमिश्नर ट्रेल ने 1816 व 1830 में वर्तमान स्थल मल्ला महल में स्थानांतरित किया। स्थापत्य कला की दृष्टि से मंदिरों की शैली उत्तर भारतीय नागरशैली है। नंदादेवी मंदिर की विशेषता यह है कि हर वर्ष लगने वाले नंदादेवी मेले व नंदाष्टमी के पर्व पर तांत्रिक पूजा-अनुष्ठान के लिए चंदवंशीय राज परिवार के नैनीताल लोकसभा के सांसद केसी सिंह बाबा प्रतिवर्ष यहां आते हैं। तांत्रिक विधान से होने वाली इस पूजा में अष्ट बलि दी जाती है। इसमें भैंसा, बकरी, नारियल आदि तंत्र पूजा में उपयोग होने वाली अन्य सामग्री शामिल होती है। अल्मोड़ा में बलिदान के समय भैंसे से निकले रक्त को टीका लगाने की पुरानी परंपरा है, जो आज भी बरकरार है।
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लटके-झटकों में गुजरा दौर, नहीं मिला 'ठौर
- अपनों के बीच बेगाने से हुए संस्कृति के संवाहक
- दस साल में भी सांस्कृतिक पहचान नहीं बना पाया यह पहाड़ी प्रदेश
- हवाई साबित हुए कला संस्कृति को बढ़ावा देने के दावे
- संस्कृति महकमे में धूल फांक रहे पहाड़ी लोकवाद्य
Pahar1-न सावन बरसा, न भादौ सूखाÓ, ऐसा ही है अपने संस्कृति महकमे का हाल। एक दशक बीतने जा रहा राज्य बने, लेकिन हम जहां थे, वहीं कदमताल कर रहे हैं और अपनों के बीच बेगाने से हो गए हैं संस्कृति के वाहक। बुजुर्ग कलाकार उपेक्षा सहने को मजबूर हैं और युवाओं का साल-दो साल में ही उत्साह ठंडा पड़ जा रहा है। ऐसा नहीं कि कला-संस्कृति को बढ़ावा देने के दावे न हुए हों। खूब हुए और साल-दर-साल हुए, पर हकीकत शर्मसार कर देने वाली है और यही वजह भी है कि कला-संस्कृति का धनी यह पहाड़ी प्रदेश देश-दुनिया में अपनी कोई सांस्कृतिक पहचान नहीं बना पाया।
राज्य गठन के पीछे एक वजह इस भूभाग को सांस्कृतिक पहचान दिलाना भी रही है, लेकिन हुआ कहां। बीते दस सालों में भाषा-संस्कृति को लेकर किसी भी स्तर पर गंभीरता दिखी हो, याद नहीं आता। इस अवधि में कला-संस्कृति के नाम पर जो भी घटित हुआ, वह विशुद्ध रूप से संस्कृति कर्मियों के स्वप्रयासों का फल है। सरकारों व संस्कृति महकमे का हाल तो 'नाच न जाने आंगन टेढ़ाÓ वाला रहा। महकमे की पहल पर साल में जो दो-चार बड़े सांस्कृतिक आयोजन होते भी हैं, उनमें भी स्थानीय कलाकारों की कितनी भूमिका होती है, यह बताने की जरूरत नहीं। फिर इन आयोजनों में ऐसा होता भी क्या है। वही दो-तीन पारंपरिक सांस्कृतिक दल, वही लटके-झटके और बाजारू गीत-संगीत। अगर यही संस्कृति है तो खुदा खैर करे।
संस्कृति के झंडाबरदार वातानुकूलित कक्षों में बैठकर यह भी भूल गए कि संस्कृति का संरक्षण भाषणों से नहीं होता। इसके लिए जड़ें सींचनी पड़ती हंै, लोक को गले लगाना पड़ता है। यहां तो उल्टा ही हो रहा है। युवा कलाकार उपेक्षित हैं और बुजुर्ग गर्दिश में। इन दस सालों में संस्कृति महकमा जिस एकमात्र उपलब्धि पर फूला नहीं समा रहा, वह है 122 लोकधर्मियों के लिए स्वीकृत एक-एक हजार रुपये की पेन्शन। इसे पाने के लिए भी उन्हें कम पापड़ नहीं बेलने पड़ते। संस्कृति के संरक्षण के नाम पर पहाड़ी लोकवाद्य संस्कृति महकमे में धूल फांक रहे हैं। अब कौन समझाए कि लोकवाद्यों का संरक्षण उन्हें म्यूजियम में रखकर नहीं, बल्कि व्यवहार में लाकर ही संभव है।
'जैकÓ पर घिसटती संस्कृति
संस्कृति महकमे में लगभग 95 सांस्कृतिक दल पंजीकृत हैं, लेकिन आयोजनों में भाग लेने का मौका चुनिंदा दलों को ही मिल पाता है और वह भी 'जैकÓ पर। बजट ले जाने में भी वह दल सफल हो पाते हैं, जिनकी 'जैकÓ है। समझा जा सकता है कि किस तरह 'जैकÓ पर संस्कृति को ढोया जा रहा है। इसी तरह विभाग में पंजीकृत लोक कवियों का हाल भी है। कुछ को तो खूब मौका मिल जाता है और कुछ मौका पाने को विभाग के चक्कर काटते रह जाते हैं।
''लोक विधाओं के संरक्षण-संवद्र्धन को सूबे के छह जिलों पिथौरागढ़, अल्मोड़ा, बागेश्वर, टिहरी, चमोली व उत्तरकाशी में गुरु-शिष्य परंपरा की शुरुआत की जा रही है। इसके तहत छह विशेषज्ञ लोकधर्मी युवाओं को लोकगायन, राधाखंडी संगीत, लोकगाथा गायन, माच्र्छा नृत्य, ढोल सागर व छोलिया नृत्य की दीक्षा देंगे। इन विधाओं का विजुअल फार्म में डाक्युमेंटेशन भी होगाÓÓ।
- बीना भट्ट, निदेशक, संस्कृति विभाग उत्तराखंड
प्रस्तावित योजनाएं :
- उत्तराखंडी लोकनृत्यों को नई पहचान देने को तैयार होगा शास्त्रीय व लोकनृत्य का फ्यूजन
- सूबे के लोक कलाकारों को मिलेंगे आइडेंटिटी कार्ड
- कैटेगराइज्ड होंगे विभाग में पंजीकृत सांस्कृतिक दल
- अपडेट की जाएंगी सांस्कृतिक दलों से जुड़ी समस्त जानकारियां
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