उत्तराखंड की रामलीलाओं
में गढ़वाल मंडल मुख्यालय पौड़ी में होने वाली रामलीला का शीर्ष स्थान है।
यूनेस्को की धरोहर बन चुकी यह ऐसी रामलीला है
, जिसने विभिन्न संप्रदायों के
लोगों को आपस में जोड़ने का काम तो किया ही, आजादी के बाद समाज में
जागरुकता लाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पारसी थियेटर शैली और
राग-रागनियों पर आधारित इस रामलीला का वर्ष 1897 में पौड़ी में स्थानीय
लोगों के प्रयास से कांडई गांव में पहली बार मंचन हुआ था।
इसे वृहद स्वरूप देने का प्रयास वर्ष 1908 से भोलादत्त काला,
अल्मोड़ा निवासी तत्कालीन जिला विद्यालय निरीक्षक पूर्णचंद्र त्रिपाठी,
क्षत्रिय वीर के संपादक कोतवाल सिंह नेगी व साहित्यकार तारादत्त गैरोला ने
किया। विद्वतजनों के जुड़ने के कारण पौड़ी की रामलीला को एक नया स्वरूप मिला
और आने वाले सालों में जहां रामलीला के मंचन में निरंतरता आई, वहीं इसमें
अनेक विशिष्टताओं का समावेश होता भी चला गया। वर्ष 1943 तक पौड़ी में
रामलीला का मंचन सात दिवसीय होता था, लेकिन फिर इसे शारदीय नवरात्र में
आयोजित कर दशहरा के दिन रावण वध की परंपरा शुरू हुई।
रोचक जानकरी।
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