चौहान ने इसी हफ्ते सेना के सबसे अहम पदों में शामिल डीजीएमओ ज्वाइन किया है। उनकी मां पदमा और पिता सुरेंद्र सिंह देहरादून के वसंत विहार में रहते हैं। चौहान परिवार मूलरूप पौड़ी के खिर्सू ब्लॉक स्थित ग्वाणा गांव का है। यह गांव चलनस्यूं पट्टी में आता है। 82 साल के हो चुके सुरेंद्र युवाओं की तरह जिंदादिल हैं। लाइव हिन्दुस्तान के साथ उन्होंने अपने बेटे के जीवन के कुछ क्षण साझा किए। उन्होंने बताया कि अनिल बचपन में पढ़ाई में बहुत अच्छे थे। किसी भी परीक्षा में दूसरी बार नहीं बैठे।
बकौल सुरेंद्र, मैं केंद्र सरकार में क्वालिटी कंट्रोल निरीक्षक था। इसलिए चाहता था कि बेटा भी इंजीनियर बने, लेकिन अनिल के मन में तो कुछ और ही था। एनडीए में चयन के बाद उन्हें इंटरव्यू के लिए इलाहाबाद आना था। कोलकाता से वो अकेले ही चल दिए। 1981 में 11 गोरखा रायफल्स में कमीशंड अफसर की रूप में ज्वाइन किया। सुरेद्र सिंह चौहान और पदमा चौहान कहते हैं कि बच्चे तरक्की करें तो हर माता-पिता को अच्छा लगता है। पर, इसके लिए माता पिता को उन्हें संस्कार देने होंगे। इसलिए बच्चों को यदि अच्छा नागरिक, अच्छा इंसान बनाना है तो माता-पिता को खुद भी वैसा बनना होगा।
न्यूक्लियर हमले के परिणाम पर लिखी किताब
डीजीएमओ अनिल चौहान ने परमाणु हमले और उसके परिणाम पर आधारित किताब भी लिखी। इसमें उन्होंने परमाणु प्रभाव पर उल्लेख किया है।
बहादुरी की भी मिसाल हैं डीजीएमओ चौहान
सेना के कई अहम पद और ऑपरेशन में चौहान की सफल भागीदारी रही है। उनकी बहादुरी को देखते हुए उन्हें विशिष्ट सेवा मेडल और अतिविशिष्ट सेवा मेडल के बाद हाल में उत्तम युद्ध सेवा मेडल भी मिल चुका है। यूएन के पीस कीपिंग मिशन के दौरान वो अंगोला में मिलिट्री आब्जर्वर के रूप में सेवाएं दे चुके हैं।
माता-पिता को हर रोज फोन करना नहीं भूलते
चौहान देश-दुनिया में भले ही कहीं भी रहे, लेकिन माता-पिता को फोन करना नहीं भूलते। सुरेंद्र कहते हैं कि फोन आता है तो अकेलापन पलभर में खत्म हो जाता है। चौहान की पढ़ाई पहली से आठवीं तक दिल्ली और इसके बाद 11वीं तक कोलकाता के फोर्ट विलियम स्कूल में हुई।
साभार-देहरादून, चंद्रशेखर बुड़ाकोटी, हिंदुस्तान
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