Tuesday, 1 March 2011

नेफा (अरुणाचल) से लद्दाख तक प्रचलित नृत्य गीत है चांचड़ी

विख्यात: देवभूमि उत्तराखंड का सर्वाधिक प्रचलित नृत्य गीत है चांचड़ी नेफा से लद्दाख तक चांचड़ी की महक -लोकगीत पहाड़ी नदी की तरह हैं। जहां जैसी जमीन मिली, उसी के अनुरूप ढल गए और जब नृत्य इनके साथ जुड़ा तो नृत्यगीत हो गए। उत्तराखंड हिमालय का ऐसा ही नृत्यगीत है चांचड़ी, जिसके रंग अरुणाचल से लेकर लद्दाख तक किसी न किसी रूप में बिखरे हुए हैं। यही ऐसी विधा है, जिसमें सिर्फ मनोरंजन प्रधान नृत्य है। बाकी लोकनृत्यों में तो किसी न किसी रूप में देवत्व का भाव समाया हुआ है। आस्था और विश्वास से लेकर प्रेम, श्रृंगार, परिस्थिति, नारी व्यथा, याद, प्रकृति, पर्यावरण, फौजी जीवन जैसे प्रतिबिंबों की प्रतिकृति है चांचड़ी नृत्यगीत। लोकजीवन का यह रूप पूरे हिमालय में एक है, इसीलिए नेफा (अरुणाचल) से लद्दाख तक चांचड़ी की झलक देखी जा सकती है। गढ़वाल, कुमाऊं व जौनसार में भी इस के रंग अलग-अलग हैं। विभिन्न क्षेत्रों में प्रकृति एवं परिस्थिति के अनुसार चांचड़ी को चांचरी, झुमैला, दांकुड़ी, थड़्या, ज्वौड़, हाथजोड़ी, न्यौल्या, खेल, ठुलखेल, भ्वैनी, भ्वींन, रासौं, तांदी, छपेली, हारुल, नाटी व झेंता जैसे नामों से जाना जाता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि सभी जगह नृत्य के साथ अनिवार्य रूप से गीत गाने की परंपरा है। इन गीतों की रचना किसी गीतकार ने नहीं की, बल्कि लोक के सुर से जो बोल फूटे, वही कालांतर में लोकगीत बन गए।

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