Tuesday 1 March 2011

कला इतिहास, कलाकार मजदूर

जिन्होंने गढ़पतियों की विरुदावलियां गाई, राजाओं, तीर्थो, समाज सुधारकों, धर्माचार्यो और राष्ट्रीय आंदोलनों पर गीत रचे, आज शिव के इन्हीं वंशजों का अस्तित्व खतरे में है। पहाड़ों में उजड़ते घरों के साथ इनके सुर खो गए और ढोलक पर थिरकने वाले हाथ पत्थर तोड़ने को मजबूर हैं। हालात की लाचारी देखिए कि गीत, नृत्य और लोक नाटकों से देवभूमि की सेवा करने वाले बाद्दि आज इस शब्द से भी परहेज करने लगे हैं। सृष्टि के आदि संगीत का प्रारंभ जिन गंधर्वो ने किया बाद्दि (बेडा) उन्हीं की वंश परंपरा के कलाकार हैं। ये न केवल आशुकवि हैं, बल्कि महान इतिहासकार भी हैं। इन्होंने समाज की अच्छी-बुरी घटनाओं को ढोलक की थाप और घुंघरुओं की झनकार के साथ प्रस्तुत किया। गढ़वाल के जिस युग को इतिहासकारों ने अंधकार युग कहा, उस समय के गढ़पतियों का वर्णन भी बाद्दियों के गीतों में मिलता है। बादी गढ़वाल में लोकगीत, स्वांग, लांग और बेडावर्त जैसे अनुष्ठान के जनक हैं। मुखौटे बनाना, वादन कला, पौराणिक व सामाजिक गीतों की रचना करना इनकी प्रतिभा है। खिर्सू में बोर्डिग स्कूल का खुलना, पहाड़ों में पहली मोटर का आना, मंहगाई, स्वतंत्रता संग्राम, भारत-चीन युद्ध, प्रेम संबंध, सास की प्रताड़ना, बहुओं की आत्महत्या जैसी गढ़वाल की सामाजिक-राष्ट्रीय गतिविधियों का परिचय इनके गीतों में मिलता है। लाचारगी पेश करती तस्वीर साथी संस्था की ओर से किए गए 250 बाद्दि परिवारों के सैंपल सर्वेक्षण में 98 प्रतिशत की मासिक आय 500 रुपये से कम पाई गई। इनमें दो प्रतिशत सरकारी सेवा में और केवल दो लोग ही अध्यापन से जुड़े मिले। विधवा पेंशन लेने वाली महिलाओं का प्रतिशत दो है, जबकि 98 प्रतिशत दिहाड़ी मजदूरी से पेट पाल रही हैं।

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