Friday, 30 April 2010

-नंबर वन की दौड़ में उत्तराखंड सबसे आगे

- दो जिलों का डाटा पहुंचते ही तैयार हो जाएगा स्टेट रजिस्टर - सेंट्रल सर्वर से देखी जा सकेगी चालक व वाहन की जन्मकुंडली Pahar1-: यदि सब कुछ ठीकठाक रहा तो उत्तराखंड देश का ऐसा पहला राज्य होगा, जिसका अपना स्टेट रजिस्टर होगा। इस स्टेट रजिस्टर में 'सारथीÓ (लाइसेंस संबंधी साफ्टवेयर) व 'वाहनÓ (वाहनों के रजिस्ट्रेशन संबंधी साफ्टवेयर) शामिल हैं। यह रजिस्टर सेंट्रल सर्वर से जुड़ा रहेगा। इसके जरिए कहीं भी बैठकर वाहन व चालक की पूरी जन्मकुंडली बांची जा सकेगी। उत्तराखंड का संपूर्ण डाटा नेशनल इंफारमेटिक सेंटर (एनआईसी) को भेजा जा रहा है। एनआईसी ही विधिवत रूप से इस बात की घोषणा करेगा कि कौन सा राज्य स्टेट रजिस्टर तैयार करने में नंबर वन है। केंद्र में लंबे समय से एक नेशनल रजिस्टर तैयार करने की कवायद चल रही है। इसके तहत हर प्रदेश के वाहनों की जानकारी एक ही जगह से देखी जा सकेगी। इसी के तहत केंद्र ने हर प्रदेश को अपना स्टेट रजिस्टर तैयार करने के निर्देश दिए थे। पहले वाहनों का पंजीकरण कर उन्हें एक रजिस्टर में चढ़ाया जाता था। पहले अन्य प्रदेशों से किसी वाहन के संबंध में जानकारी प्राप्त करने के लिए पत्राचार के जरिए जानकारी हासिल की जाती थी। देश में आतंकी घटनाएं बढऩे के बाद वाहनों के लिए एक नेशनल रजिस्टर बनाए जाने पर जोर दिया गया, जिससे ही कहीं भी वाहन व चालक पर मिले प्रपत्रों के हिसाब से उसकी सही जानकारी प्राप्त की जा सके। इसके तहत सबसे पहले 'वाहनÓ साफ्टवेयर तैयार किया गया, जिसमें वाहन के रजिस्ट्रेशन संबंधी जानकारी डाली जाती है। इसके बाद 'सारथीÓ साफ्टवेयर डेवलेप किया गया। इसमें लाइसेंस बनाते समय लाइसेंस धारक के विषय में सभी जानकारियां डालने के अलावा उसकी अंगुलियां के निशान तक अंकित होते हैं। ये उन्हीं कार्यालयों में लगा है जो पूर्णत कंप्यूटरीकृत हो चुके हैं। इन कार्यालयों में अब वाहनों का रजिस्ट्रेशन व लाइसेंस बनाने की प्रक्रिया इसी साफ्टवेयर के तहत होती है। सूबे में संभागीय और उप संभागीय कार्यालय मिलाकर कुल 15 कार्यालय हैं। यह सभी कार्यालय कंप्यूटरीकृत हो चुके हैं। ऐसे में इन सभी कार्यालयों से 'वाहनÓ व 'सारथीÓ साफ्टवेयर का डाटा कलेक्ट कर एनआईसी को भेजा जा रहा है। अब सिर्फ पिथौरागढ़ और अल्मोड़ा का डाटा एनआईसी तक पहुंचना शेष है। डाटा तैयार है और एक दो दिनों में एनआईसी को भेज दिया जाएगा। एनआईसी को यह संपूर्ण डाटा उपलब्ध कराने वाला उत्तराखंड पहला राज्य होगा। हिमाचल प्रदेश भी उत्तराखंड से ज्यादा पीछे नहीं है, लेकिन अभी तक हिमाचल एनआईसी को पूरा डाटा उपलब्ध कराने में सफल नहीं हो पाया है। ऐसे में उत्तराखंड का ऐसा पहला राज्य बनना तय है, जिसका अपना स्टेट रजिस्टर होगा। सचिव परिवहन व परिवहन आयुक्त एस रामास्वामी का कहना है कि उन्हें उम्मीद है कि उत्तराखंड ऐसा करने वाला पहला राज्य होगा। उन्होंने कहा कि इतने कम संसाधनों में ऐसा करना अपने आप में एक बड़ा कार्य है। उन्होंने कहा कि दो जिलों का डाटा भी इसी सप्ताह भेज दिया जाएगा।

- बाघों की संख्या जानने को होगा री-सेंशस

-दूसरी बार नई पद्धति से राजाजी पार्क में होने जा रही गणना -रिपोर्ट पर डब्ल्यूआईआई करेगा मंथन Pahar1- बाघों का मसला है इसलिए फूंक- फूंककर कदम रखा जा रहा है। गणना की रिपोर्ट पर कोई सवाल न खड़ा हो, इसलिए री-सेंशस (पुनर्गणना) कराई जाएगी। राजाजी में बाघों की एक मई से गणना शुरू हो रही है। देश में लागू नई पद्धति के तहत दूसरी बार यह गणना होगी। पारदर्शिता के लिए गणना की रिपोर्ट आने के बाद वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट आफ इंडिया (डब्ल्यूआईआई) इसका अध्ययन करेगा। कैमरा ट्रैप पद्धति और एक मई से हुई गणना का मिलान करने के बाद ही दूसरी रिपोर्ट जारी होगी। 2005 में रिपोर्ट आई कि देश में करीब 4500 बाघ हैं। हालांकि इस बीच वनों में बाघ की तादाद घटने की खबरें आने लगी। इससे रिपोर्ट पर सवाल उठने लगे। काफी हंगामे के बाद हुई गणना में 3500 से 3600 के बीच बाघ की बात सामने आई। चूंकि मामला बेहद संवेदनशील था, इसलिए प्रधानमंत्री ने मामले में हस्तक्षेप किया। इसके बाद वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट आफ इंडिया और पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने 2007 में गणना कराई। इसकी रिपोर्ट में देश भर में 1411 बाघों की मौजूदगी की बात सामने आई। दरअसल इस गणना के दौरान वन विभाग के रिटायर्ड अधिकारियों और विशेषज्ञोंं को पर्यवेक्षक बनाया गया था। रिपोर्ट केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की ओर से जारी हुई। इसके बाद से इसी पद्धति से बाघों की गणना करने का निर्णय किया गया। पद्धति का नाम हैबीटाट इवैलुएशन एंड कैमरा ट्रैपिंग दिया गया। इसमें ट्रांजिट लाइन और जीपीआरएस सिस्टम के तहत गणना की जाती है। इसी पद्धति के तहत दूसरी बार राजाजी पार्क में बाघों की गणना एक मई से शुरू होने जा रही है। उत्तराखंड के जिम कार्बेट नेशनल पार्क और राजाजी नेशनल पार्क के जंगलों में बाघों की अच्छी खासी तादाद है। पिछले गणना में बाघों की रिपोर्ट भी आई थी। गणना में कोई चूक न रह जाए, इसलिए रिपोर्ट वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट आफ इंडिया को दिखाई जाएगी। इंस्टीट्यूट रिपोर्ट का अध्ययन कर संभावित जगहों पर कैमरा ट्रैप लगाएगा। फिर दोनों का मिलान कराया जाएगा। इसके बाद सही तस्वीर देश के सामने रखी जाएगी। राजाजी नेशनल पार्क के निदेशक एसएस रसायली ने बताया कि बाघों की गणना के उपरांत रिपोर्ट डब्ल्यूआईआई को सौंप दी जाएगी। इनसेट 2001 2003 2005 बाघ- 30 30 24 (राजाजी नेशनल पार्क की स्थिति) 2001 2003 2005 बाघ- 137 143 141 (कार्बेट नेशनल पार्क की स्थिति)

- परंपराओं ने संजाई प्राचीन धरोहरें

-वरुणावत के पांच कोस की परिधि में बिखरे पड़े हैं धार्मिक पुरावशेष -अनूठे शिल्प वाले मंदिर व मूर्तियों सहित प्राचीन गुफाएं भी हैं मौजूद -पुरातत्व विभाग ने नहीं ली है अभी इस क्षेत्र की कोई सुध उत्तरकाशी: वरुणावत पर्वत की पांच कोस की परिधि पौराणिक महत्व के अवशेषों से भरी पड़ी है। हालांकि प्राचीन काल के इन धार्मिक व ऐतिहासिक साक्ष्यों की ओर न तो पुरातत्व विभाग ने ध्यान दिया और न ही कोई विस्तृत अध्ययन सामने आया है। बावजूद इसके स्थानीय लोगों ने इन अवशेषों को अपनी परंपराओं में संजोया हुआ है। वरुणावत पर्वत के पूर्वी हिस्से में गंगा भागीरथी और वारुणी नदी के संगम से एक ऐसा क्षेत्र शुरू होता है जहां प्राचीन इतिहास के अवशेष बिखरे पड़े हैं। बड़ेथी में वरुणेश्वर मंदिर से शुरू होकर वरुणावत पर्वत के ऊपर शिखरेश्वर महादेव तक मंदिरों का शिल्प, शिवलिंगों व समय- समय पर खुदाई में मिली मूर्तियां हैरत में डालती हैं। बीते वर्ष ज्ञाणजा गांव के हारुना नामे तोक की प्राचीन गुफा में मिली भगवान कृष्ण के बालरूप की आकर्षक मूर्ति ने स्थानीय लोगों को हैरत में डाल दिया था। इससे आगे साल्ड गांव में जगन्नाथ मंदिर का अनूठा वास्तुशिल्प हर व्यक्ति को कौतुहल में डालने के लिये काफी है। साथ ही, साल्ड गांव में ही भगवती च्वाला का मंदिर, व्यास कुंड, समेश्वर देवता व नाग देवता के पौराणिक मंदिर व उनमें रखी मूर्तियां भी अत्यंत प्राचीन हैं। महावारुणी यात्रा मार्ग में पडऩे वाले ऊपरीकोट व भराणगांव भी इस लिहाज से अहम हैं। इन प्राचीन धरोहरों की अभी तक पुरातत्व विभाग ने सुध नहीं ली है। जबकि अकादमिक स्तर पर भी इस क्षेत्र का कोई अध्ययन सामने नहीं आ सका है। स्थानीय लोगों को भी इन धरोहरों के निर्माण की जानकारी नहीं है, लेकिन ये सभी धरोहरें उनकी परंपराओं से बखूबी जुड़ी हुई हैं। वारुणी यात्रा समेत, स्थानीय मेलों व धार्मिक क्रियाकलाप इन्हीं धरोहरों के इर्द गिर्द घूमते हैं। जगन्नाथ मंदिर के पुजारी सूर्य बल्लभ सेमवाल बताते हैं कि ये सभी धरोहरें अत्यंत प्राचीन हैं। इनके निर्माण व अवतरण के बारे में स्पष्ट ज्ञात तथ्य सामने नहीं आ सके हैं। उन्होंने माना कि पुरातत्व विभाग को ऐसे स्थलों को चिन्हित कर इनके संरक्षण के लिए आगे आना चाहिए। इस संबंध में क्षेत्रीय पुरातत्व अधिकारी पीपी बडोनी ने बताया कि बीते वर्ष ज्ञाणजा में मिली भगवान कृष्ण की अनूठी मूर्ति की सूचना मिली थी। उन्होंने स्वीकार किया कि इस क्षेत्र से समय-समय पर ऐतिहासिक व प्राचीन वस्तुओं के संबंध में सूचनाएं मिलती हैं। शीघ्र ही इस क्षेत्र में पुरातत्व विभाग का दल भेजकर अध्ययन कराया जाएगा। -

-'डाक्टर साब! पहाड़ कब चढ़ोगेÓ

सात साल के छोटे से वक्फे में मानदेय में तीन गुना बढ़ोतरी और फिर भी सैकड़ों पद खाली। चौंकिए नहीं, यह सौ फीसदी सच है और ऐसा हो रहा है सूबे के स्वास्थ्य महकमे में। प्रदेश सरकार ने डाक्टरों की कमी से निजात पाने को कांटे्रक्चुअल डाक्टर तैनात करने शुरू किए तो सात साल में इनका मेहनताना तीन गुना तक बढ़ा दिया मगर इसके बावजूद राज्य में अब भी डाक्टरों के पचास फीसदी पद खाली पड़े हैं। पहाड़ के लिए सेहत की सुविधाएं जुटाना सरकार के लिए सचमुच पहाड़ सरीखा ही साबित हो रहा है। उत्तराखंड को अलग राज्य बने दस साल होने को आए लेकिन हालात ये हैं कि चिकित्सालयों व स्वास्थ्य केंद्रों में डाक्टर जाने को तैयार नहीं। खासकर पहाड़ी जिलों में जिस तरह डाक्टरों के सैकड़ों पद खाली पड़े हैं उससे सरकार के सबको स्वास्थ्य सुविधा देने के दावे हवा हवाई ही नजर आते हैं। स्थिति किस हद तक चिंताजनक है इस तथ्य का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि राज्य में ऐलोपैथिक डाक्टरों के कुल पद 2200 हैं और इनमें से आधे के करीब रिक्त हैं। लगभग ग्यारह-साढ़े ग्यारह सौ डाक्टरों में से दो सौ के आसपास कांट्रेक्चुअल हैं। यानी छोटे से राज्य की आधी आबादी को ही सरकारी डाक्टरों से उपचार की सुविधा मिल पा रही है। यह स्थिति आज-कल नहीं बल्कि राज्य गठन के वक्त से ही बनी हुई है। इसीलिए राज्य सरकार ने वर्ष 2003 में कांट्रेक्चुअल डाक्टर (संविदा पर नियुक्त डाक्टर) की नियुक्तिकी प्रक्रिया आरंभ की। तब संविदा पर नियुक्त डाक्टरों के लिए मानदेय तय किया गया प्रति माह 11 हजार रुपए और अब सात वर्ष गुजरने के बाद यह पहुंच गया है 34 हजार रुपए तक। दरअसल सरकार ने डाक्टरों को लुभाने के लिए इनके मानदेय में लगातार बढ़ोतरी की और दुर्गम व अति दुर्गम क्षेत्र में तैनाती के लिए अतिरिक्त धनराशि का भी प्रावधान किया लेकिन डाक्टर साहब हैं कि पहाड़ चढऩे को राजी ही नहीं। वर्ष 2005 में कांट्रेक्ट पर नियुक्त डाक्टरों का मानदेय 11 से बढ़ाकर पहले 13 व फिर 15 हजार रुपए किया गया जबकि इसके अगले ही साल वर्ष 2006 में यह धनराशि पहुंच गई 18 हजार रुपए महीना। वर्ष 2009 में सरकार ने पहाड़ी व दुर्गम क्षेत्रों तक डाक्टरों को पहुंचाने के लिए अतिरिक्त मानदेय की व्यवस्था आरंभ की। इसके मुताबिक मैदानी क्षेत्र में 25 से 29 हजार, दुर्गम में 29 से 33 हजार और अति दुर्गम क्षेत्र में तैनात होने वाले कांट्रेक्चुअल डाक्टरों को 30 से 34 हजार रुपए प्रतिमाह तक मानदेय का प्रावधान किया गया। इस सबके बावजूद सरकार के तमाम प्रयास पूरी तरह परवान चढ़ते नजर नहीं आ रहे क्योंकि अब भी राज्य में डाक्टरों के आधे पद खाली ही पड़े हुए हैं। जितने डाक्टर सरकारी सेवा में हैं उनमें से तकरीबन आधे तो चार मैदानी जिलों में ही नियुक्त हैं। देहरादून, हरिद्वार, ऊधमसिंह नगर और नैनीताल जिलों में नियुक्त डाक्टरों की संख्या का आंकड़ा लगभग पांच सौ के आसपास पहुंचता है जबकि शेष नौ जिलों में छह सौ के आसपास सरकारी डाक्टर आम जनता के लिए उपलब्ध हैं। तस्वीर अपनी कहानी खुद बयां कर रही है, यानी अभी राज्य के पहाड़ी जिलों के बाशिंदों के पास यह कहने कि 'डाक्टर साब, पहाड़ कब चढ़ोगेÓ, कहने और इंतजार करने के अलावा कोई चारा नहीं। --- बोले स्वास्थ्य महानिदेशक '' डाक्टरों की कमी को पूरा करने लिए प्रयास जारी हैं। जल्द उत्तराखंड लोक सेवा आयोग से विभाग को अस्सी स्पेशलिस्ट व पचास महिला चिकित्साधिकारी मिलने जा रहे हैं। इसके अलावा मई अंत तक आशा है कि सुशीला तिवारी मेडिकल कॉलेज के डाक्टरों का पहला बैच हमें मिल जाएगा। जहां तक डाक्टरों का मैदानी जिलों तक सिमटे रहने का सवाल है इसके लिए स्थानान्तरण नीति को मजबूत बनाने की कोशिश की जा रही है। ताकि सभी जिलों में समान स्वास्थ्य सेवाएं मिल सकें। ÓÓ डा.सीपी आर्य स्वास्थ्य महानिदेशक, उत्तराखंड

-बढ़ता जा रहा है गंगा के आंचल पर मैल-

सफाई में अब तक 37 करोड़ रुपये किए जा चुके हैं खर्च pahar1- पवित्र गंगा का मैल धोने की जिम्मेदारी गंगा एक्शन प्लान से अब नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथारिटी के हवाले हो चुकी है लेकिन फिर भी अमृत जैसे गंगा के पानी की गुणवत्ता हरिद्वार जैसे तीर्थ में आचमन करने योग्य भी नहीं रह गई है। उत्तराखंड में अब तक एक्शन प्लान के अंतर्गत गंगा की सफाई में 37 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं मगर गंगा के आंचल का मैल लगातार बढ़ता ही जा रहा है। गंगा की सफाई के लिए केंद्र पोषित गंगा एक्शन प्लान 1985 में शुरू हुआ था। पहले चरण में तीन शहरों हरिद्वार, ऋषिकेश और स्वर्गाश्रम-लक्ष्मणझूला को इसमें लिया गया था। पहले चरण में 14.62 करोड़ रुपये खर्च हुए। एक्शन प्लान के दूसरे चरण में नौ शहर लिए गए हैं, जिनकी 30 परियोजनाओं में 23.38 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। इसके बाद भी यह तय नहीं है जिन शहरों-कस्बों में ट्रीटमेंट परियोजनाएं संचालित हो रही हैं, वहां का संपूर्ण सीवर और नाले इसके दायरे में आ गए हों। यदि गंगा के किनारे बसे किसी कस्बे के संपूर्ण सीवर तथा सभी गंदे नाले ट्रीटमेंट के दायरे में नहीं होंगे तो गंगा प्रदूषित होने से कैसे बच सकती है। उत्तराखंड में गंगा एक्शन प्लान की नोडल एजेंसी जल संसाधन विकास निगम के नोडल अधिकारी प्रभात राज कहते हैं कि अब गंगा एक्शन प्लान, नेशनल गंगा रीवर बेसिन अथारिथी में हस्तांतरित हो गया है। इस योजना के तहत 2020 तक गंगा को पूरी तरह क्लीन करने की योजना है। अर्थात गंगा के किनारे बसे हर शहर-कस्बे का सीवर तथा नाला ट्रीटमेंट प्लांट की जद में होगा। तेजी से बढ़ते जा रहे शहरीकरण के चलते हर नई बसासत को जब तक ट्रीटमेंट के दायरे में लेने की योजना नहीं होगी, गंगा में गंदगी जाने से नहीं बचाया जा सकता है। गंगा में शव दाह से भी अत्यधिक प्रदूषण होता है। हरिद्वार में विद्युत शव दाह गृह का निर्माण किया गया, जो शुरू से ही काम नहीं कर रहा है। कम लकड़ी में शव जलाने वाले दाह गृह चल रहे हैं। अब धूम्र रहित शवदाह गृह बनाने की योजना है लेकिन गंगा की धारा के साथ शवों का दाह करने की प्रवृत्ति नई तकनीकों को दरकिनार कर देती है। हरिद्वार में बिल्कुल यही हो रहा है। गंगा एक्शन प्लान के तहत वर्तमान में अलकनंदा और भागीरथी को शामिल किया गया है। उत्तराखंड की नदियां आगे जाकर कहीं न कहीं गंगा में ही मिलती हैं। इसलिए नदियों के किनारे बसे उत्तराखंड के 17 शहरों को ट्रीटमेंट प्लांट से जोडऩे का प्रस्ताव नोडल एजेंसी जल निगम ने केंद्र को भेजा है। मुश्किल यह है कि केंद्र परियोजना के बोझ को कम करने के लिए अपना हाथ खींचता जा रहा है। पहले गंगा एक्शन प्लान शत प्रतिशत केंद्र पोषित था। अब 70 प्रतिशत हिस्सा केंद्र और 30 प्रतिशत राज्य सरकार वहन करेगी। इतनी सारी योजनाओं के बावजूद हरिद्वार में गंगा का प्रदूषण स्तर इस कदर बढ़ गया है कि पवित्र गंगा का पानी आचमन करने योग्य नहीं रह गया है। अधिकारी दावा करते हैं कि कुंभ के लिए बनाई गई नई परियोजनाओं की वजह से गंगा का प्रदूषण कम हुआ होगा। वास्तविकता यह है कि गंगा में सीवर बहने से गंगा की हालत और खराब हुई है। यदि गंगा एक्शन प्लान के तहत भागीरथी और अलकनंदा को ही लिया जाए तो इन नदियों के किनारे बसे कई शहर और कस्बे अभी सीवर ट्रीटमेंट के दायरे से बाहर हैं। इनमें गोचर, नंदप्रयाग, कीर्तिनगर और केदारनाथ शामिल हैं।

पर्यटन के अरमानों को केंद्र ने लगाए पंख

-102 करोड़ के नौ महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट को मंजूरी -केंद्र के दिशा-निर्देशों के मुताबिक तैयार होंगे प्रोजेक्ट -मेगा सर्किट को 50 करोड़, सर्किट को आठ करोड़ व टूरिस्ट डेस्टिनेशन को मिलेंगे पांच करोड़ Pahr1- दुनिया की नजरों से दूर जगह-जगह बिखरी प्रकृति की खूबसूरती की नेमतों पर सिवाए इठलाने के उत्तराखंड के हाथ 'इकन्नीÓ भी नहीं लग रही। वजह ढांचागत सुविधाओं की कमी है। इसे जुटाने को केंद्रीय इमदाद पर टकटकी बांधे सूबे को राहत नजर आ रही है। केंद्र ने नए वित्तीय वर्ष तकरीबन 102 करोड़ के नौ महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट पर केंद्र की 'हांÓ ने राज्य के अरमानों को फिलहाल पंख लगा दिए हैं। खूबसूरती में सानी नहीं रखने वाले ऐसे स्थान काफी तादाद में उत्तराखंड में हैं, जहां पर्यटक पहुंच नहीं पाते। राज्य बनने के बाद पर्यटन से आमदनी की आस में जनता तरस कर रह गई है। यह तय है कि अपने दम पर पर्यटक स्थलों का विकास सूबे के बूते के बाहर है। इस वजह से केंद्र की मदद पाने को छटपटाहट बढ़ती जा रही है। राज्य ने ऐसे प्रोजेक्ट काफी संख्या में केंद्र को भेजे हैं। राहत यह है कि केंद्र ने नौ प्रोजेक्ट पर सहमति देने के साथ ही नए निर्देशों के साथ उनकी ठोस कार्ययोजना पेश करने को कहा है। जिन प्रोजेक्ट को वर्ष 2010-11 में प्राथमिकता दी गई, उनमें 50 करोड़ लागत से एक मेगा, 32 करोड़ लागत से चार सर्किट और 20 करोड़ लागत से चार टूरिस्ट डेस्टिनेशन विकसित किए जाने हैं। निर्मल गंगोत्री मेगा प्रोजेक्ट पर 50 करोड़, ऋषिकेश-नरेंद्रनगर-चंबा-उत्तरकाशी-भटवाड़ी-हर्षिल-गंगोत्री पर आठ करोड़, पंच प्रयाग-श्रीनगर सर्किट पर आठ करोड़, टिहरी झील डेस्टिेशन विकास पर आठ करोड़, अल्मोड़ा डेस्टिेशन विकास पर पांच करोड़, भवाली-रामगढ़-मुक्तेश्वर-धारी-भीमताल-सत्तल-हेडाखान-हल्द्वानी सर्किट पर आठ करोड़, हरिपुर व नानक सागर-श्यामलताल-चंपावत-लोहाघाट-मायावती-बगवाल-देवता-काठगोदाम सर्किट पर आठ करोड़, काठ की नाऊ-कूखेत-मनीला-मल्ला भिकियासैंण-नीलेश्वर मंदिर-जेनल-मासी-चौखुटिया-द्वाराहाट-कौसानी-बागेश्वर सर्किट पर आठ करोड़ का अनुमानित खर्चा आएगा। केंद्र के साथ सूबे के अफसरों की बैठक में इन प्रोजेक्ट का खाका तैयार करने को केंद्र ने निर्देश भी जारी किए हैं। इसके मुताबिक राज्यस्तरीय निगरानी समिति की बैठकों की कार्यवाही की नियमित सूचना केंद्र को भेजी जाएगी। हाईवे पर हर 30 किमी पर यात्रियों व पर्यटकों के लिए सड़क किनारे जरूरी सुविधाओं का बंदोबस्त करना होगा। पर्यावरण की सुरक्षा को सोलिड वेस्ट मैनेजमेंट, पर्यटन विकास के लिए एकीकृत ढंग से निजी व सरकारी क्षेत्रों की भागीदारी प्रोत्साहित करने, पार्किंग की समुचित सुविधाओं पर जोर दिया गया है। केंद्र ने पहले प्रस्तावित तीन प्रोजेक्ट औली इको टूरिज्म, देहरादून-हरिद्वार सर्किट व हरिद्वार मेगा सर्किट को भी मंजूरी दी है, लेकिन इनके लिए फंड उपलब्धता के आधार पर दिया जाएगा। पर्यटन प्रमुख सचिव राकेश शर्मा ने उक्त निर्देशों के मुताबिक प्रोजेक्ट की कार्ययोजना तैयार करने के निर्देश दिए हैं।

-कुछ मीठे, कुछ खट्टे अनुभव दे गया कुंभ

-चार माह के कालखंड में कई मुद्दों पर हुई सार्थक चर्चा हरिद्वार: पेशवाइयों से शुरू होकर ब्रह्मकुंड पर आखिरी डुबकी लगाने के साथ सदी का पहला महाकुंभ विदा हुआ। चार माह के इस कालखंड में मीठी यादें भी रहीं और कुछ खट्टे अनुभव भी। सामाजिक मुद्दों पर व्यापक चिंतन हुआ तो हादसों और अखाड़ों के आपसी मनमुटाव भी सामने आए। कुंभ आमतौर पर धर्म और अध्यात्म का संगम माना जाता है, लेकिन सदी के पहले महाकुंभ पर इसके इतर भी बहुत कुछ नया हुआ, जिसने देश दुनिया को सार्थक संदेश दिया। जनवरी माह में हाड़ कंपा देने वाली ठंड के बीच पेशवाइयों का दौर शुरू हुआ। सदी के पहले महाकुंभ में पेशवाई परंपरागत व आधुनिकता मिश्रित रही। नागा साधुओं ने धर्म रक्षा का संदेश दिया तो कई संतों ने कन्या भ्रूण हत्या रोकने, पर्यावरण के प्रति आम जन में चेतना जगाने का कार्य किया। घड़ी की सुई आगे खिसकी और पेशवाई का दौर थमने के बाद सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक सुरक्षा के मुद्दों पर व्यापक मंथन हुआ। कुंभ में पहली बार आंतरिक और बाह्य सुरक्षा पर विचार करने के लिए विषय विशेषज्ञ जुटे। विशेषज्ञ राय के आधार पर प्रस्ताव तैयार कर केंद्र और राज्य सरकारों को क्रियान्वयन के लिए भेजे गए। देश में आर्थिक असमानता दूर करने, आतंकवाद, संविधान सहित देश के विकास से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर कई दिन तक मंथन चला। नशा उन्मूलन सहित कई सामाजिक मुद्दों पर समाज के जागरूक लोगों व संस्थाओं ने अपनी भूमिका निभाई, जिसमें कई प्रमुख हस्तियां पहुंचीं। इस चार माह के दौरान शायद ही कुंभनगर में ऐसा कोई आश्रम, साधु-संतों के अस्थाई शिविर रहे हों जहां गो-गंगा के मुद्दे पर चर्चा न हुई हो। इस सार्थक पहल के बीच कई खट्टी यादें भी सदी के इस कुंभ को सालती रहेंगी। शंकराचार्य विवाद से इसकी शुरुआत हुई। चार मठों के इतर अन्य मठों को लेकर कई दिनों तक विवाद चलता रहा। चार पीठ, चार शंकराचार्य पर मेला प्रशासन ने मुहर तो लगाई, लेकिन विवाद का अंत तक पटाक्षेप नहीं हुआ। गंगा के मुद्दे पर अखाड़ों की एकता बिखर गई। गंगा पर जिस एका की जरूरत थी वह नहीं दिखी। यह मुद्दा फिर नेपथ्य में चला गया। कुल मिलाकर सदी का यह पहला महाकुंभ अपने साथ कुछ खट्टी तो कुछ मीठी यादों के साथ विदा हुआ। --- कुंभ पर दाग लगा गया हादसा -कुंभ संपन्न, पर दंश देता रहेगा बिरला घाट हादसा : महाकुंभ की विदाई हो चुकी है। अठाईस अप्रैल का अंतिम कुंभ स्नान निरापद संपन्न हो गया। जब कभी इस कुंभ को याद किया जाएगा उस पल महाकुंभ के दामन पर बिरला घाट हादसा 'टीसÓ बनकर चुभता रहेगा। महाकुंभ के चार महीने के दौरान कई श्रद्धालु, मेला प्रशासन, मेला पुलिस सहित आमजन तमाम अनुभवों से रूबरू हुए। सबके अपने अनुभव होंगे। स्नान पर क्या खोया, क्या पाया को लेकर भी चर्चाएं होंगी। सदी का पहला महाकुंभ था यह, इसलिए दुनिया की नजरें भी टिकी थीं इस पर। चार महीने के कुंभकाल के दौरान 11 स्नान पर्व, जिसमें चार शाही स्नान थे, को मेला प्रशासन और मेला पुलिस ने कमोबेश ठीकढंग से संपन्न करा दिया। लेकिन बिरला घाट हादसा जो चौदह अप्रैल को घटा, यदि यह असंयोग नहीं बनता तो महाकुंभ के दामन में कोई बड़ा दाग नहीं लगता। यह अलग बात है कि मेला प्रशासन और मेला पुलिस बिरला घाट हादसे को महज एक दुर्घटना करार देते रहे, दलील पेश करते रहे, पर इस धब्बे को वह इन दलीलों से छुड़ा नहीं सके। सवाल तो कई होंगे, जवाब भले ही नहीं देना पड़े, लेकिन उनके मन में भी यह पीड़ा रहेगी कि काश, सदी के महाकुंभ को निरापद शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न करा पाते। हां, इस बात की जरूर तारीफ होगी कि करोड़ों की भीड़ को भले ही कुछ बदइंतजामी के बीच संपन्न कराया गया हो, लेकिन मेला पुलिस की कुछ मामलों में पीठ भी थपथपाई जाएगी। मसलन इंटेलीजेंस के बेहतरीन तालमेल से कोई आतंकी वारदात करने की हिम्मत भी नहीं कर सका। जांबाज कमांडो हर मोर्चे पर तैनात किये गये थे। श्रद्धालुओं के साथ इनकी सहयोगी भूमिका को भी हमेशा याद किया जाएगा।

---कठिन है बाबा केदार की डगर

-केदारनाथ यात्रा को लेकर तैयारियों में जुटा प्रशासन -गौरीकुंड से केदारनाथ तक 14 किमी पैदल मार्ग पर हैं सबसे अधिक समस्याएं -समस्याओं को हल करने का हो रहा है प्रयास Pahar1- रुद्रप्रयाग केदारनाथ यात्रा को लेकर प्रशासन तैयारियों में लगा है। हालांकि प्रशासन के तमाम प्रयास के बाद भी केदारनाथ आने वाले यात्रियों को कई खामियों से दो चार होना पड़ता है और कड़े अनुभव के साथ वह यहां से जाते हैं। इससे सबक ले इस दफा यात्रा की तैयारियों को अंजाम दिया जा रहा है। केदारनाथ यात्रा अन्य धामों की अपेक्षा काफी कठिन यात्रा है। गौरीकुंड से केदारनाथ तक का चौदह किमी का सफर यात्रियों को तमाम समस्याओं से दो चार करा देता है। केदारनाथ यात्रा की व्यवस्थाएं भी पैदल मार्ग पर आकर टिक जाती हंै। प्रशासन भी गौरीकुंड से लेकर केदारनाथ तक यात्रा व्यवस्थाओं को दुरुस्त करने में पूरी ताकत झोंक देता है, लेकिन बावजूद इसके कई खामियां रह जाती हैं। प्रत्येक वर्ष यात्रा से पूर्व जिला प्रशासन यात्रा को लेकर तमाम बैठकें करते हंै और व्यवस्थाओं के चुस्त दुरुस्त होने का दावा करते हैं, लेकिन सभी व्यवस्थाएं पूरी तरह धराशाही हो जाती है। इसका खामियाजा देश विदेश से आने वाले तीर्थ यात्रियों को भुगतना पड़ता है। यात्रा के दौरान आने वाली प्रमुख समस्या -गौरीकुंड में हजारों वाहन के जाम में फंसने पर गंभीर समस्या -गौरीकुंड में पालकी, डोली व घोड़ा में प्रीपेड व्यवस्था के बावजूद दलालों का राज -रहने व खाने की कम गुणवत्ता के बावजूद अधिक महंगा -केदारनाथ पैदल मार्ग पर भारी गंदगी से चलना दुश्वार -जर्जर केदारनाथ पैदल मार्ग पर अक्सर यात्रियों के दुर्घटनाग्रस्त होना -केदारनाथ में ठंड होने पर अलाव व किसी यात्री की मृत्यु होने पर लकड़ी तक की व्यवस्था न होना केदारनाथ पैदल मार्ग को सुधारने में जुटा लोक निर्माण विभाग रुद्रप्रयाग: लोनिवि इन दिनों गौरीकुंड से केदारनाथ तक पैदल मार्ग की हालत सुधारने में जुटा हुआ है, ताकि यात्रा से पूर्व मार्ग को तीर्थ यात्रियों की आवाजाही के लिए सुगम व बेहतर बनाया जा सके। इस बार मार्ग को ठीक करने के लिए लोनिवि को दैवीय आपदा मद से 30 लाख रुपये आवंटित हुए हैं, इस धनराशि में से 18 लाख रुपये से रामबाड़ा में पुल निर्माण किया जा रहा है। मौजूदा समय में दो दर्जन से भी अधिक मजदूरों को कार्य पर लगाया है। लोनिवि ऊखीमठ के अधिशासी अभियंता राजेश पंत का कहना है कि गौरीकुंड से केदारनाथ तक पैदल मार्ग का सुधारीकरण कार्य किया जा रहा है। अब तक अस्सी फीसदी कार्य हो चुका है।

-अल्मोड़ा में विराजमान हैं अष्ट भैरव

-अष्ट भैरवों की छत्र छाया में है अल्मोड़ा -चारों दिशाओं में स्थापित हैं मंदिर, विपदाओं से करते हैं रक्षा Pahar1-, अल्मोड़ा चंद राजाओं के वंशज बालोकल्याण चंद ने 1563 ईसवी में अल्मोड़ा को यूं ही कुमाऊं की राजधानी नहीं बनाया। इसके पीछे यहां के पौराणिक महत्व को देखते हुए यह निर्णय लिया होगा। अल्मोड़ा नगर की महत्ता, विशिष्टता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यह नगर नवदुर्गा व अष्ट भैरवों की छत्र छाया में अपने स्थापना काल से ही रहा है। एक नगर में अष्ट भैरव, नवदुर्गा के मंदिर बिरले ही देखने को मिलते हैं। इसीलिए अल्मोड़ा को अपने विशिष्ट सांस्कृतिक, अध्यात्मिक व ऐतिहासिक महत्व के लिए जाना जाता है। कहा जाता है कि जहां भैरव विराजमान होते हैं वहां अनिष्ट, दु:ख दरिद्रता की छाया निकट नहीं आती। यहां तो अष्ट भैरव विराजमान हैं, जिसके कारण अल्मोड़ा नगरी प्रदेश, देश ही नहीं अंतरराष्ट्रीय मंच में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। इसे लोग अष्ट भैरव व नवदुर्गा का ही आशीर्वाद मानते हैं। यहां हम अल्मोड़ा नगर के अष्ट भैरवों का जिक्र कर रहे हैं। अष्ट भैरवों के नाम में लोकबोली का अपना पूरा प्रभाव है। यही कारण है कि स्थानीय बोली भाषा के आधार पर अष्ट भैरवों के नाम प्रचलित हैं। नगरवासी भैरवों को अपना ईष्टदेव मानते हैं। नगर के उत्तर दिशा में प्रवेश द्वार पर खुटकुणी भैरव का ऐतिहासिक मंदिर है। जाखनदेवी के समीप भैरव का मंदिर है, जो अष्ट भैरव में एक है। इसी प्रकार लाला बाजार के पास शै भैरव मंदिर है। जिसका निर्माण चंदवंशीय राजा उद्योत चंद ने कराया था। बद्रेश्वर मंदिर से पूरब की ओर अष्ट भैरवों में एक भैरव शंकर भैरव के नाम से आसीन हैं। थपलिया मोहल्ले में गौड़ भैरव का मंदिर स्थापित है। चौघानपाटा के समीप अष्ट भैरवों में एक मंदिर बाल भैरव का है। यह मंदिर भी चंद राजाओं के काल का बताया जाता है। पल्टन फील्ड के पास गढ़ी भैरव विराजमान हैं, जो दक्षिण दिशा के प्रवेश द्वार पर रक्षा के लिए स्थापित किए गए हैं। पल्टन बाजार में ही अष्ट भैरवों में बटुक भैरव का मंदिर बना है। रघुनाथ मंदिर के समीप तत्कालीन राजमहल के दक्षिण की ओर काल भैरव मंदिर स्थापित है। इसी क्रम में बिष्टाकुड़ा के समीप अष्ट भैरव में एक प्राचीन भैरव मंदिर की स्थापना भी चंदवंशीय राजाओं के काल की मानी जाती है। एडम्स इंटर कालेज के समीप भी एक भैरव मंदिर है। इसे भी अष्ट भैरवों में एक बाल भैरव नाम से उच्चारित किया जाता है। यूं तो पूरे नगर में भगवान भैरव के 10 मंदिर विभिन्न स्थानों में हैं। कुछ बुजुर्गों का कहना है कि दो मंदिर निजी तौर पर बनाए गए हैं। यूं तो भैरव मंदिर में दु:खों के निवारण, अनिष्ट का हरण करने की कामना से लोग रोज मत्था टेकने जाते हैं। लेकिन शनिवार को भैरव मंदिरों में खासी भीड़ रहती है।

Thursday, 22 April 2010

जब रासलीला की चाह में शिव बने 'गोपीÓ

-श्रीकृष्ण का रास देख उपजी महादेव में भी यह भावना -श्रीकृष्ण ने पहचाना और नाम दिया गोपीनाथ -इसी नाम पर गोपेश्वर का भी नाम रखा गया Pahar1-गोपेश्वर (चमोली) रुद्र हिमालय में स्थित गोपेश्वर को प्राचीन एवं पवित्रतम तीर्थ माना जाता है। पुराणों के अनुसार इंद्रियों के नियंता और पशुओं के पति भगवान शिव को यहां गोपेश्वर या गोपीनाथ भी कहा जाता है और इन्हीं के नाम पर चमोली जिले के इस कस्बे को गोपेश्वर नाम मिला। शिव का नाम गोपीनाथ पडऩे के पीछे एक रोचक कहानी है। लोकमान्यता है कि सृष्टि रचनाकाल में जब गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण राधा के साथ महारासलीला में निमग्न थे, तो उन्हें देख भगवान शिव में भी गौरी के साथ रासलीला करने की इच्छा जाग्रत हुई, परन्तु भगवान त्रिपुरारी, स्वयं त्रैलोक्यनाथ कृष्ण नहीं बन सकते थे और उनकी अद्र्धांगिनी गौरी भी राधा नहीं बन सकती थी। इसलिए भगवान शिव स्वयं गोपी बन गए और गौरी ने गोप का रूप धारण किया और दोनों रासलीला में मग्न हो गए, लेकिन अंतर्यामी भगवान श्रीकृष्ण को उन्हें पहचानने में देर नहीं लगी और उन्होंने मुस्कराते हुए भगवान शिव को गोपीनाथ की उपाधि प्रदान की। गोपीनाथ का मंदिर स्थित होने के कारण गोपेश्वर को यह नाम दिया गया। इसकी एक और वजह मानी जाती है। कहते हैं कि राजा सगर की सात हजार गायें थीं। उसके ग्वाले आसपास के क्षेत्र में इन गायों को चराते थे। उनमें से एक गाय हमेशा जंगल में स्थित एक शिवलिंग को अपने दूध से नहलाती थी। ग्वाले ने जब यह बात राजा को बताई, तो उन्होंने स्वयं मौके पर पहुंचकर यह नजारा देखा। चूंके उस समय ग्वालों को गोप कहा जाता था, इसलिए राजा ने उस शिवलिंग अथवा भगवान शिव को गोपेश्वर नाम से पुकारा और गोपीनाथ मंदिर की स्थापना की गई। मान्यता के मुताबिक गोपीनाथ मंदिर के कारण ही गोपेश्वर का भी नाम रखा गया।

दाल ही नहीं दवा भी है 'गहथ

-पथरी रोगियों के लिए रामबाण की तरह है यह दाल -कम पानी व पथरीली जमीन पर भी मिलता है अच्छा उत्पादन Pahar1- पहाड़ के किसान सदियों से अपने सीढ़ीदार खेतों में विविधतापूर्ण फसलें उगाते आ रहे हैं। यहां की पारंपरिक फसलों का विशेष महत्व है। दलहनी फसलों की बात करें, तो गहथ सबसे उपयोगी फसल है। इसे दाल ही नहीं, औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है। पथरी के रोगियों के लिए तो यह दाल रामबाण की तरह है। गहथ को वैज्ञानिक भाषा में मैक्रोटाइलोमा कहते है। लगभग पंद्रह सौ से दो हजार मीटर तक की ऊंचाई पर इसकी फसल उगाई जाती है। खास बात यह है कि कम पानी वाली व पथरीली भूमि पर ही इसका बेहतर उत्पादन प्राप्त होता है। यह भी बता दें कि पर्वतीय अंचलों में गहथ को सिर्फ दाल के तौर पर ही भोजन में शामिल नहीं किया जाता, बल्कि इसके कई औषधीय गुण भी हैं। एक लोकगीत से गहथ का महत्व परिलक्षित होता है 'बरखा बथ्वाणी, ह्यूंद कू गथ्वाणीÓ यानी सर्दी का मौसम है, तो सर्दी-जुकाम व अन्य मौसमी बीमारियां घेर सकती हैं, लेकिन चिंता की कोई बात नहीं, क्योंकि हमारे पास गहथ है। पहाड़ी घरों में गहथ की दाल तो बनती ही है, कई अन्य पकवान भी तैयार किए जाते हैं। इनमें गथ्वाणी (गहथ की दाल को उबालकर तैयार पानी), फाणा (भीगी गहथ को सिलबट्टे पर पीसकर तैयार होने वाला पकवान) और भरवां रोटियां मुख्य हैं। यह सर्दियो में उर्जा पैदा करने वाली दाल है। जुकाम-खांसी के इलाज के लिए ग्रामीण गहथ की पटंूगी (पकोडिय़ां) बनाकर खाते हैं। पहाड़ से गहथ का अभिन्न रिश्ता है। गहथ से पथरी रोग के इलाज की जानकारी के पीछे पर्वतीय किसानों का पारंपरिक ज्ञान है। पुराने जमाने में पहाड़ों में जब लोग घरों का निर्माण करते थे, तो पथरीली जमीन होने के कारण खासी दिक्कतें होती थीं। तब विस्फोटक नहीं थे। ऐसे में पत्थरों को तोडऩे के लिए उन्हें लकड़ी के ढेर से ढक दिया जाता था और आग लगा दी जाती थी। बाद में गर्म पत्थर पर गहथ का उबलता पानी डाला जाता था, तो पत्थर टुकड़े-टुकड़े हो जाता था। कालांतर में ग्रामीणों ने पथरी रोग पर भी गहथ के पानी का प्रयोग शुरू किया, तो फायदे मिले। बता दें कि एक माह तक गहथ का सूप पीने व दाल खाने से पुरानी से पुरानी पथरी भी टूटकर प्राकृतिक प्रक्रिया के तहत मूत्र विसर्जन के साथ निकल जाती है। गुर्दे की पथरी के लिए तो यह रामबाण है। पर्वतीय परिसर रानीचौरी के वैज्ञानिक डा. एम. दत्ता का कहना है कि गहथ औषधीय गुणों से भरपूर होने के अलावा खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। गहथ के पौधों व फलियों के सूखे अवशेष पशुओं के लिए उत्तम चारा है। इनसेट प्रति सौ ग्राम गहथ से मिलने वाले पोषक तत्व (मिग्रा में) प्रोटीन 22.0 वसा 0.5 खनिज 3.2 रेशा 5.3 कार्बोहाइड्रेट 57.2 ऊर्जा 32 कैलोरी फास्फोरस 311 कैल्शियम 280 आर्द्रता 11.8 लोहा 8.4 कैरोटीन 71.0 विटामिन ए 118.3

अब विलुप्त नहीं होगी पहाड़ी नारंगी

-अकेले दम पर अनिल जोशी की पहल -मलेथा में 30 हजार पौध हैं रोपण के लिए तैयार -दो लाख पौध होंगी अगले साल तैयार श्रीनगर गढ़वाल,: पहाड़ी संतरा (नारंगी) विलुप्त होने के कगार पर आ गया है। संतरों की अन्य प्रजातियों की अपेक्षा पहाड़ी संतरा ज्यादा रसीला और स्वादिष्ट होता है। पहाड़ी नारंगी को बचाने को लेकर पंतनगर विश्वविद्यालय से वानिकी में चार वर्षीय स्नातक अनिल जोशी ने अकेले दम पर पहल करने की ठानी। महिला डेयरी विकास परियोजना की सरकारी नौकरी छोड़ अनिल कुमार जोशी ने अपनी इस पहल के लिए श्रीनगर से दस किमी दूर मलेथा के सेरों में 15 काश्तकारों से पांच साल के लिए 200 नाली खेत लीज पर लेकर पहाड़ी संतरे की पौध लगाने का कार्य शुरू किया। वर्तमान में जोशी की इस पौधशाला में 30 हजार पहाड़ी नारंगी की पौध रोपण के लिए तैयार हैं। दो लाख पौध अगले वर्ष रोपण के लिए तैयार हो जाएगी। अनिल जोशी ने बताया कि पौध को तैयार होने में डेढ़ वर्ष का समय लगता है। पौधशाला बनाने में श्रीनगर के घाटी फलशोध केंद्र और उद्यान विभाग कीर्तिनगर का तकनीकी सहयोग उन्हें मिला। पिछले वर्ष वह 40 हजार संतरे की पौध तैयार कर वितरित कर चुके हैं। युवाओं के लिए स्वरोजगार का एक आदर्श उदाहरण बने अनिल जोशी का कहना है कि प्रदेश का उद्यान, जलागम विभागों के साथ ही ब्लाक भी उनसे सरकारी दर पर यह पौध खरीदते हैं। वर्ष 2007-08 पंजाब के किन्नू की 97 हजार बीजू पौध भी जोशी की पौधशाला में तैयार हुई। इसके अतिरिक्त वर्ष 2009 में बीजू आम की एक लाख पौध भी उनके द्वारा विभिन्न विभागों को उपलब्ध करा दी गयी। अनिल जोशी का कहना है कि अपने हौसले और साथियों के सहयोग से ही वह इस क्षेत्र में आगे बढ़े हैं। इससे पूर्व वर्ष 2000 में खण्डाह में उनके द्वारा कचनार (चार वृक्ष) की 8 लाख पौध भी उगाई जा चुकी थी। श्री जोशी का कहना है कि उद्यानिकी और फल सब्जी उत्पादन के क्षेत्र में आशातीत संभावनाएं हैं। इनके बाजार भी बेहतर रूप से उपलब्ध हो जाते हैं। युवाओं को इस क्षेत्र में आगे आना चाहिए।

Tuesday, 20 April 2010

गिनीज वल्र्ड रिकार्ड को भेजेंगे महाकुंभ का नाम

-मसूरी: केंद्रीय कैबिनेट सचिव के चंद्रशेखर राव शुक्रवार को लाल बहादुर शास्त्री प्रशासनिक अकादमी पहुंचे। श्री राव अकादमी में दो दिन रहेंगे। लाल टिब्बा भ्रमण पर निकले श्री राव ने कहा कि केंद्र और राज्य सरकार के बेहतर तालमेल का ही नतीजा है कि महाकुंभ जैसा बड़ा पर्व शांति से निपट गया। उन्होंने बताया कि महाकुंभ हरिद्वार का नाम गिनीज वल्र्ड रिकार्ड के लिए भेजा जाएगा। उन्होंने कहा कि शांति के नोबेल पुरस्कार से इसका कोई लेना-देना नहीं है। केंद्रीय कैबिनेट सचिव के चंद्रशेखर राव शुक्रवार को लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी पहुंचे। श्री राव दो दिन तक आईएएस प्रशिक्षु और अधिकारियों के बीच रहेंगे। अकादमी में लंच करने के बाद श्री राव ने मालरोड, लाल टिब्बा, चार दुकान आदि क्षेत्रों का भ्रमण किया। उन्होंने मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल निशंक की महाकुंभ हरिद्वार को शांति के नोबेल पुरस्कार की पेशकश को नकार दिया। उन्होंने कहा कि नोबेल के लिए ऐसे आयोजन का नाम शामिल नही किया जाता है। -- -कुंभ यानि दुनिया का सबसे बड़ा आयोजन देवभूमि की जनता के किया पांच करोड़ श्रद्धालुओं का आतिथ्य: निशंक मुख्यमंत्री ने शाही स्नान की श्रृंखला पूरी होने पर जताया सभी का आभार देहरादून, जागरण ब्यूरो मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल निशंक ने कहा कि हरिद्वार कुंभ दुनिया के सबसे बड़े और सफल आयोजन के रूप में स्थापित हो गया है। उन्होंने कहा कि देवभूमि की जनता ने विश्वभर के 140 देशों से आए श्रद्धालुओं का भरपूर स्वागत किया है। 14 अप्रैल के शाही स्नान का क्रम पूरा होने के बाद आज पत्रकारों से रूबरू डा. निशंक ने कहा कि इस आयोजन में पांच करोड़ से अधिक लोगों ने गंगा में स्नान करके इसे दुनिया का सबसे बड़ा सफल आयोजन बना दिया है। इस आयोजन के जरिए उत्तराखंड ने पूरी दुनिया को एक सूत्र में पिरोकर शांति का संदेश दिया। इस आयोजन को कई आतंकी धमकियां भी मिलीं पर सरकार की तैयारियों के आगे ऐसे नापाक मंसूबे रखने वाले यहां आने की हिम्मत तक नहीं जुटा सके। अंतिम शाही स्नान के रोज तो स्नान करने वाले श्रद्धालुओं का आकंड़ा सारे अनुमान ध्वस्त करते हुआ डेढ़ करोड़ तक पहुंच गया है। इस बारे में अन्य स्रोतों से भी आंकड़े एकत्र करवाए जा रहे हैैं। सीएम ने आंकड़ों का हवाला देते हुए कहा कि इस आयोजन पर 440 करोड़ रुपये व्यय किए गए। अहम बात यह है कि इस बार 70 से 80 फीसदी तक काम स्थायी प्रकृति के ही किए गए है। इससे पहले 1998 में कुल कामों में से महज बीस फीसदी और 2004 में महज 25 फीसदी काम ही स्थायी काम करवाए गए। इस मायने में भी सरकार ने मील का पत्थर स्थापित किया है। मुख्यमंत्री ने कहा कि इस सफल आयोजन के लिए पूरी टीम बधाई की पात्र है। उन्होंने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के साथ केंद्रीय योजना आयोग का भी मार्ग दर्शन के लिए आभार व्यक्त किया। सीएम ने यूपी की सीएम मायावती को भी मदद के लिए धन्यवाद दिया। सीएम ने कहा कि उत्तराखंड की जनता ने भी पांच करोड़ लोगों का सत्कार करके देवभूमि की परपंरा को निभाया। सीएम ने इस आयोजन में योगदान करने के लिए शहरी विकास मंत्री मदन कौशिक और भाजपा की कोर कमेटी का भी आभार जताया। मुख्यमंत्री ने इस काम में लगे शासन के साथ ही पुलिस और प्रशासन के अफसरों की भी सराहना की। इस मौके पर मुख्य सचिव एनएस नपलच्याल और प्रमुख सचिव सुभाष कुमार भी मौजूद रहे। इंसेट शांति के नोबेल का हकदार कुंभ देहरादून: मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल निशंक ने बताया कि हरिद्वार कुंभ को शांति का नोबेल पुरस्कार देने की मांग कई विदेश संगठन उठा रहे हैैं। सीएम ने कहा कि वे अपने स्तर से इस मांग का समर्थन कर रहे हैैं। भले ही यह पुरस्कार देश की राष्ट्रपति ही क्यों न ग्र्रहण करें पर इस बार शांति का नोबेल भारत में ही आना चाहिए। कुंभ ने पूरी दुनिया को शांति और एकता का संदेश देने में पूरी तरह से सफलता हासिल की है।

'पीपल ने सेहरा, 'तुलसी ने ओढ़ी चुनरी

- मठ गांव: यहां है वृक्षों के विवाह की अनूठी परम्परा - एक परिवार कई पीढिय़ों से कर रहा है इस अनोखे रिवाज का निर्वहन - दुल्हन वृक्ष को सजाया जाता है सोने-चांदी के जेवरातों से - दान और दहेज के रूप में दिया जाता है सामान , गोपेश्वर (चमोली)- दो वृक्षों का विवाह शान-ओ-शौकत और धूमधाम से कराया जाए तो इस बात का चर्चाओं में शुमार होना लाजिमी है। जी हां! उत्तराखंड के चमोली जिले के मठ नामक गांव में वृक्षों के विवाह का अनूठा रिवाज है। यहां एक ऐसा परिवार है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी इस परम्परा का निर्वाह करता चला आ रहा है। इस अनोखे विवाह में 'पीपलÓ को दूल्हा तो 'तुलसीÓ अथवा 'बड़Ó के वृक्ष को दुल्हन माना जाता है। शादी के दिन पीपल के वृक्ष को सेहरा और शेरवानी पहनाई जाती है तो दुल्हन बने पेड़ का भी सोने-चांदी के जेवरातों से ऋंगार किया जाता है। और तो और, समारोह में सैकड़ों लोग शिरकत करते हैं, जिन्हें बाकायदा शादी का कार्ड देकर आमंत्रित किया जाता है। अजब है पर सच है। मठ गांव निवासी पीताम्बर दत्त तिवारी का परिवार पिछली कई पीढिय़ों से वृक्षों के विवाह की परम्परा का निर्वहन करता चला हा रहा है। इस परिवार का मानना है कि वृक्षों के विवाह का सकारात्मक प्रभाव न सिर्फ बुरे ग्रह-नक्षत्रों पर पड़ता है, बल्कि ऐसा करने से पर्यावरण संरक्षण में सहयोगी बना जा सकता है। वृक्षों के विवाह का बाकायदा मुहूर्त निकाला जाता है। उसके बाद तिवारी परिवार अपने नाते-रिश्तेदारों को प्रिंटेड कार्ड भेजकर शादी समारोह के लिए आमंत्रित करता है। फिर, अपने बेटे अथवा बेटी की शादी की तर्ज पर पूरा परिवार इस विवाह की तैयारियों में जुट जाता है। वर और दुल्हन के लिए शादी के कपड़े व जेवरात की खरीद की जाती है। दरअसल, तिवारी परिवार की हर पीढ़ी गांव में ही 'पीपलÓ के वृक्ष का रोपण करती है। करीब पांच-छह वर्ष बाद जब यह व़ृक्ष बड़ा हो जाता है तो उसका विवाह 'तुलसीÓ अथवा 'बड़Ó के वृक्ष के साथ किया जाना अनिवार्य माना जाता है। ऐसी परंपरा एक पीढ़ी एक बार निभाती है। विवाह के दिन एक ओर पीपल के पेड़ को सेहरा और शेरवानी पहनाकर दुल्हे तो दूसरी ओर तुलसी अथवा बड़ के वृक्ष (छोटी पौध) को जेवरात व चुनरी से घर में दुल्हन की तरह सजाया जाता है। उसके बाद बारातियों के साथ दुल्हन वृक्ष की डोली पीपल के पेड़ के पास लाई जाती है और फिर विवाह संस्कार शुरू हो जाते हैं। प्रतीकस्वरूप न सिर्फ सात फेरे होते हैं, बल्कि उसके बाद दुल्हन पौध को पीपल के वृक्ष के समीप रोपित कर दिया जाता है। इस तरह मंत्रोच्चारण के साथ विवाह संस्कार पूर्ण हो जाता है और फिर आमंत्रित लोगों को सामूहिक भोज करवाया जाता है।

नृत्य सम्राट की कर्मस्थली अल्मोड़ा

विराट गौरवशाली अतीत लघुतर होगा रूप चिंता का विषय सांस्कृतिक विघटन से उबारने वाला नहीं है कोई: पांडे लोक संस्कृति की आत्मा को खा गए हैं कैसेट: बोरा अल्मोड़ा- ऐतिहासिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक परंपराओं की थाती अल्मोड़ा नगरी का समृद्ध व गौरवशाली अतीत रहा है। यह जहां अपनी विविध लोक संस्कृतियों के लिए विख्यात है, वहीं नृत्य सम्राट उदयशंकर की मौजूदगी इसके शास्त्रीय पक्ष को भी अंतर्राष्ट्रीय मंच पर खड़ा करती है। इसके अतीत पर नजर डालें तो यहां की लोक संस्कृति का अपना विराट स्वरूप देखने को मिलता है, जो आज लघु से लघुतर हो गया है। कभी चैत्र मास में शहर से लगे खासपर्जा गांव में हुड़के की थाप, झोड़े की स्वलहरियां सुनाई देती थी, जो अब लगभग बंद हो गई हैं। दूसरा पक्ष जो नृत्य सम्राट उदयशंकर से जुड़ा है उसकी समृद्धि का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उदयशंकर के शिष्ट जो प्रख्यात फिल्मकार रहे हैं, जिनमें गुरुदत्त, जौहरा सहगल, नरेन्द्र शर्मा शामिल हैं, ने अल्मोड़ा का बड़ा मान किया था। राजस्थान में जन्मे उदयशंकर ने अल्मोड़ा में भारत के विभिन्न लोक एवं शास्त्रीय नृत्यों को लेकर अनेक प्रयोग किए। अजंता, एलोरा जैसे प्राचीन मंदिरों की नृत्य मुद्राओं से प्रेरित होकर उन सभी का समायोजन नृत्य में कर एक विधा को जन्म दिया, जिसने कला के क्षेत्र में विश्व के मानचित्र पर सदा के लिए अपनी अमिट छाप छोड़ी है। देश-विदेश में ख्याति प्राप्त करने के बाद उदयशंकर ने एक आदर्श सांस्कृतिक केन्द्र की स्थापना करने की इच्छा से अल्मोड़ा को अपना कार्य क्षेत्र चुना। अल्मोड़ा में ही पहली बार रामलीला मंचन छाया नाट्य के रूप में दिखाई गई। अधोपतन की ओर जा रही संस्कृति, साहित्य व परंपराओं पर नगर के प्रतिष्ठित रंगकर्मी, होली गायक शिवचरण पांडे गहरी चिंता जताते हैं। उनका कहना है कि सांस्कृतिक विघटन की प्रक्रिया जारी है। इससे उबारने वाला वर्तमान में कोई नहीं दिखता है। न परिवार न समाज और न ही सरकार। हमारे जितने भी रीति-रिवाज, बोल-चाल पहचान, सांस्कृतिक मर्यादाएं हैं एक के बाद एक लोग उन्हें त्याग रहे हैं। यह बड़ी चिंता का विषय है। पूछने पर बताते हैं कि आशा की किरण तो तब जगे जब समाज का हर तबका कुछ न कुछ योगदान कर इसे बचाने का प्रयास करे। नहीं तो विघटन की गंगा में बहते रहे फिर उतरना मुश्किल हो जाएगा। जाने-माने कुमाऊं के रंगकर्मी व प्रतिष्ठित हुड़का वादक चंदन बोरा की चिंता भी कम नहीं है। उनका कहना है कि अब लोक गायकी ही समाप्त हो रही है। बैर, भगनोल, झोड़ा, छपेली, चैती, वसंत, बारामासी कहीं सुनने को ही नहीं मिलता है। लगता है अब न सुनाने वाले हैं और न सुनने वाले। इससे बड़ा दुर्भाग्य कुछ नहीं हो सकता। बाजार में बिक रहे कैसेटों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए श्री बोरा कहते हैं कि इन्होंने लोक संस्कृति की आत्मा को ही खा डाला है। बाजारू स्वरूप देकर इनकी निर्मम हत्या कर दी है। कुल मिलाकर कभी वैभवशाली संस्कृति, साहित्य व परंपराओं के लिए जाने जाने वाला अल्मोड़ा नगरी बढ़ते कंक्रीट के जंगल में खो सा रहा है।

धार्मिक पर्यटन को जल्द लगेंगे पंख

-कई धार्मिक स्थलों पर हेलीपैड बनने की पूरी संभावना -हेलीकाप्टर सेवाएं शुरू करने के लिए कंपनियां भी हैं संपर्क में -उत्तराखंड का पर्यटन जल्द ही उडऩखटोले पर सवार होने वाला है। इस बार के पर्यटन सीजन में हेलीपर्यटन के उड़ान भरने की पूरी संभावना है। उम्मीद की जा रही है कि चारों धामों और हेमकुंड साहिब में हेलीपैड बनाने की कवायद रंग लाने वाली है। महासू देवता के मंदिर तक भी उडऩखटोला पहुंचाने की कवायद की जा रही है। इनमें से कुछ जगहों पर तो हेलीपैड बन भी चुके हैैं, जबकि कुछ अन्य स्थानों पर हेलीपैड बनाने के लिए प्रपोजल स्वीकृत हो गए हैैं। राज्य सरकार के अपने हेलीपैडों के निर्माण के बाद सैन्य हेलीपैड पर अब तक रही निर्भरता समाप्त हो जाएगी। यूं तो देवभूमि उत्तराखंड की खूबसूरत वादियां सदा से ही पर्यटकों और श्रद्धालुओं को लुभाती रही हैैं। लेकिन केदारनाथ, बदरीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री के दर्शन देश के करोड़ों लोगों के लिए आध्यात्मिक संतोष का एक बड़ा माध्यम है। इसके साथ ही हेमकुंट साहिब के दर्शन के लिए भी हर साल लाखों श्रद्धालु आते हैैं। इनमें से केदारनाथ में तो राज्य सरकार के दो अपने हेलीपैड हैैं। पर बदरीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री में अपने हेलीपैड नहीं हैैं। इसके चलते यहां तक हैलीकाप्टर के जरिए पहुंचने के लिए सेना के हेलीपैड का इस्तेमाल किया जाता है। सेना के हेलीपैड होने के चलते अक्सर यहां पर लैैंडिंग की परमीशन मिलने में दिक्कतें आती रहती हैैं। प्रमुख सचिव नागरिक उड्डयन पीसी शर्मा के मुताबिक केदारनाथ में पहले से कार्य कर रहे दो हेलीपैड के अतिरिक्त एक और हेलीपैड प्रस्तावित किया गया है। वहीं, बदरीनाथ में अब तक आर्मी के हेलीपैड से काम चलाया जा रहा था। यहां पर वन विभाग से जमीन आदि की सहमति मिल गई है अब हेलीपैड निर्माण शुरू किया जाएगा। इसी प्रकार, गंगोत्री से पहले हर्षिल में सेना के हेलीपैड से अभी काम चलाया जा रहा है। यह हेलीपैड सड़क से दूर भी है। अब हर्षिल में मुख्यमार्ग के समीप ही हेलीपैड तैयार किया जा रहा है। इसी प्रकार यमुनोत्री से पांच किमी पहले खरसाली में हेलीपैड का निर्माण किया जा रहा है। वहीं, हेमकुंट साहिब के लिए फिलहाल घांघरिया में हेलीपैड है। घांघरिया से हेमकुंट साहिब पहुंचने के लिए छह किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई पार करनी पड़ती है। जिससे श्रद्धालुओं को यहां तक पहुंचने में काफी दिक्कतें झेलनी पड़ती हैं। हेमकुंट साहिब में पहले एक प्राइवेट फर्म ने हेलीपैड के लिए संभावना तलाशी थी। उसकी तरफ से प्रपोजल भी दिया गया था। पर अब यहां पर राज्य सरकार की तरफ से ही हेलीपैड निर्माण का कार्य करने की योजना है। श्री शर्मा के मुताबिक चारों धामों और हेमकुंट साहिब में बिना किसी रोक-टोक के हैलीकाप्टर उतरने की सुविधा मिलते ही उत्तराखंड के हेलीपर्यटन का काफी विस्तार हो जाएगा।

-अब 24 हजार में डाक्टरी की पढ़ाई

-हरिद्वार में ईसीएसआई के मेडिकल कालेज एवं हास्पिटल का रास्ता साफ -सस्ते एमबीबीएस को भरना होगा पांच साल ईसीएसआई सेवा का बांड -कालेज की सौ में से 40 उत्तराखंड व 20 सीट कर्मचारियों के बच्चों के लिए -राज्य सरकार ने केंद्र को भेज दिया 35 एकड़ भूमि उपलब्धता का प्रस्ताव देहरादून- दो साल तो लगे मगर केंद्र की दयानतदारी के बाद अब राज्य सरकार ने भी मेहरबानी दिखा ही दी। इससे जल्द ही सूबे के निम्न आय वर्ग के डाक्टर बनने को लालायित मेधावी छात्रों की बल्ले-बल्ले होनी तय है। यह संभव होगा राज्य में ईसीएसआई (कर्मचारी राज्य बीमा निगम) के मेडिकल कालेज एवं हास्पिटल के खुलने से, जिसमें महज 24 हजार रुपए सालाना में ही एमबीबीएस की पढ़ाई की सुविधा उपलब्ध होगी। वर्ष 2008 में केंद्र सरकार ने हिमाचल प्रदेश, बिहार व उत्तराखंड में ईसीएसआई मेडिकल कालेज एवं हास्पिटल खोलने की स्वीकृति दी थी। अन्य राज्यों में तो इन मेडिकल कालेजों की स्थापना की प्रक्रिया काफी आगे बढ़ चुकी है लेकिन उत्तराखंड में मामला केंद्र व राज्य सरकारों के दांवपेेच में फंसकर लटक गया। दरअसल, केंद्र सरकार को इस योजना के तहत राज्य सरकारों को धन उपलब्ध कराना है तो मेडिकल कालेज व हास्पिटल खोलने के लिए भूमि की उपलब्धता की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है। पिछले दो सालों के दौरान राज्य में कुछ जगह जमीन तय की गई लेकिन फिर प्रपोजल रिजेक्ट कर दिए गए। तब से इस मेडिकल कालेज को लेकर खींचतान चल रही है। कभी इसे हरिद्वार तो कभी देहरादून या गढ़वाल के किसी अन्य जिले में ले जाए जाने की बात राजनीतिक हलकों में चलती रही। अब जाकर यह तय हो गया है कि ईसीएसआई का मेडिकल कालेज व हास्पिटल हरिद्वार जिले में खोला जाएगा। सूत्रों के मुताबिक ईसीएसआई को हरिद्वार में सिडकुल औद्योगिक क्षेत्र के पास अस्पताल खोलने को पांच एकड़ भूमि मिली थी और अब राज्य सरकार इसी भूमि के पास मेडिकल कालेज के लिए 30 एकड़ भूमि भी मुहैया कराने को तैयार हो गई है। इतनी भूमि की उपलब्धता पर पर वहां डेंटल कालेज और नर्सिंग कालेज भी अस्तित्व में आ जाएगा। एक हजार करोड़ की लागत वाले इस मेडिकल कालेज व हास्पिटल के अस्तित्व में आने पर डॉक्टर बनने की ख्वाहिश पाले उत्तराखंड के युवाओं का खासा लाभ मिलेगा। यहां एमबीबीएस की फीस मात्र 24 हजार प्रतिवर्ष होगी। अलबत्ता इस कालेज से निकलने वाले डाक्टरों से पांच साल का बांड भराया जाएगा कि वे इस अवधि में ईसीएसआई की सेवा करेंगे। कालेज में 40 फीसदी कोटा उत्तराखंड, 40 फीसदी सीपीएमटी और 20 फीसदी कोटा कर्मचारी वर्ग के बच्चों के लिए निर्धारित होगा। उल्लेखनीय है कि राज्य के सरकारी मेडिकल कालेज पंद्रह हजार सालाना में एमबीबीएस की पढ़ाई करा रहे हैं। जाहिर है, अब सस्ती मेडिकल पढ़ाई के मौके बढऩे से उत्तराखंड को फायदा होगा और चरमराती स्वास्थ्य सुविधाओं को दुरुस्त करने में खासी मदद मिलेगी। ----- ''राज्य में जल्द ही ईसीएसआई का मेडकिल कालेज व हास्पिटल अस्तित्व में आ जाएगा। हम चाहते हैं कि इसकी स्थापना हरिद्वार जिले में हो क्योंकि ईसीएसआई के अंतर्गत सर्वाधिक कर्मचारी इसी जिले में हैं। अब इसके लिए आवश्यक जमीन उपलब्ध कराना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है।ÓÓ हरीश रावत, राज्य मंत्री श्रम एवं रोजगार, भारत सरकार। --- ''केंद्र सरकार ने ईसीएसआई मेडिकल कालेज व हास्पिटल के लिए हरिद्वार को उपयुक्त बताया है, इसलिए प्रदेश सरकार ने यहां 35 एकड़ भूमि की उपलब्धता का प्रस्ताव जिलाधिकारी के माध्यम से केंद्र को भेज दिया है। केंद्र की हरी झंडी मिलते ही राज्य सरकार इस भूमि का अधिग्रहण कर लेगी।ÓÓ प्रकाश पंत, मंत्री श्रम, पेयजल, संसदीय कार्य, उत्तराखंड सरकार।