Saturday, 30 January 2010
-क्या जेल जाने वाले ही आंदोलनकारी !
-सरकार की ओर से जारी आंदोलन चयन प्रक्रिया से हताश रचनाधर्मी
-आंदोलनकारी धारा ही नहीं, संघर्षात्मक मानव चेतना का भी अपमान
, कोटद्वार (गढ़वाल)
उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान तमाम तरह के लोकगीतों व कविताओं से पर्वतीय क्षेत्रों के बाशिंदों को झकझोरने वाले रचनाधर्मी आज बेहद हताश हैं। उनकी ही नहीं, बल्कि राज्य आंदोलन में पूरी निष्ठा से भागीदारी करने वाले प्रत्येक उत्तराखंडी की यह हताशा वर्तमान हालात के साथ ही सरकार की ओर से जारी राज्य आंदोलनकारियों के चिह्नीकरण प्रक्रिया को लेकर भी है।
यूं तो प्रत्येक आंदोलन में रचनाधर्मियों की भागीदारी का अपना महत्व है, लेकिन उत्तराखंड आंदोलन में रचनाधर्मियों की क्रांतिकारी रचनाओं व नारों ने जनगीतों का रूप ले लिया। उन्होंने अभिव्यक्ति के माध्यम से न सिर्फ आंदोलन को बिखराव से बचाया बल्कि, पहाड़ व मैदान के लोगों से एक साथ मिलकर इस लड़ाई में सड़कों पर उतरने का आह्वान भी किया। स्थानीय गढ़वाली-कुमाऊंनी लोकगीतों के साथ ही 'पर्वतों के गांव से आवाज उठ रही संभल, औरतों की मुट्ठियां हवा में तन गई संभल..', 'लड़के लेंगे, भिड़के लेंगे, छीनके लेंगे उत्तराखंड, शहीदों की हमें कसम, मिल के लेंगे उत्तराखंड..' 'ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के..'। जैसे जनगीतों, नारों, नुक्कड़ नाटकों ने पहाड़ को सुलगा दिया था। मकसद था अपने राज्य में आत्म सम्मान को पाना, इसके लिए गांव-गांव से बच्चे, बूढ़े, नौजवान, महिलाएं सड़कों पर उतरे। लेकिन, राज्य गठन के बाद राजनेताओं ने उत्तराखंड को राजनीति के 'तवे' में चढ़ा दिया। हालत यह है कि जिस उत्तराखंड में विकास की बातें होनी चाहिए थी, वहां बातें हो रही हैं आंदोलनकारियों के चयन की। इससे न सिर्फ रचनाधर्मी, बल्कि हर वह उत्तराखंडी बेहद हताश है, जिसने सच्चे मन से उत्तराखंड की लड़ाई लड़ी थी।
क्या कहते हैं रचनाधर्मी
राज्य आंदोलन आत्मसम्मान की लड़ाई थी, जिसकी खातिर प्रत्येक उत्तराखंडी सड़कों पर उतरा, लेकिन आंदोलनकारियों के चयन की बात कर सरकार ने आंदोलनकारियों का घोर अपमान किया है। यह प्रक्रिया भविष्य में होने वाले जनांदोलनों पर भी बुरा प्रभाव डालेगी।
-नरेंद्र सिंह नेगी
'उस लड़ाई में तुम कहां थे, जो अब यहां हो, ये बात तुम बताओ कि अब कहां हो'। उत्तराखंड के विरोधी राज्य गठन के बाद आंदोलनकारियों के चयन के नाम पर न सिर्फ आंदोलनकारी धारा बल्कि, संघर्षात्मक मानव चेतना का भी अपमान कर रहे हैं। चिह्नीकरण के नाम पर प्रदेश सरकार आंदोलनकारियों को बांटने की साजिश रच रही है।
-गिरीश तिवारी 'गिर्दा'
आंदोलन पहचान, पानी, पर्यावरण, पलायन, पर्यटन के लिए लड़ा गया था। राज्य मिला, लेकिन समस्याएं बदस्तूर हैं। यह कहना बेमानी होगा कि आंदोलन समाप्त हो गया है, क्योंकि आंदोलनकारियों की लंबी जमात आज भी राज्य के विकास को संघर्षरत है। ऐसे में आंदोलनकारियों के चयन की बात तो सोचना ही बेवकूफी है।
-डा.अतुल शर्मा
चिह्नीकरण प्रत्येक उत्तराखंडी के लिए शर्म की बात है। सच्चा सिपाही किसी पुरस्कार का मोहताज नहीं। आंदोलनकारियों के चयन से स्पष्ट है कि प्रदेश में गांधीवादी विचारों को कोई अहमियत नहीं है।
-कमल जोशी
आंदोलन के दौरान सबसे बड़ी चिंता इसे मुकाम तक पहुंचाने की थी। प्रत्येक रचनाधर्मी पुलिस से दूरियां बनाकर गांव-गांव में आंदोलन की अलख जगा रहा था, लेकिन सरकार ने चयन प्रक्रिया के नाम पर आंदोलन को चंद लोगों में समेट कर रख दिया है।
-कुटज भारती
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