Saturday, 30 January 2010
-खाली हो रही देश की द्वितीय रक्षा पंक्ति
-चमोली जिले में तिब्बत सीमा पर सटे गांवों से पलायन बढ़ा
-सुरक्षा से लिहाज से माना जा रहा है खतरनाक
-बार्डर विलेज के बाशिंदों को माना जाता है 'द्वितीय रक्षा पंक्ति'
-भारतीय गांवों की अपेक्षा तिब्बती गांवों में विकास की गति तीव्र
गोपेश्वर(चमोली)
राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से यह समाचार बेहद चिंताजनक है। उत्तराखंड के तिब्बत की सीमा से सटे भारतीय गांवों में पलायन तेजी से बढ़ रहा है। आलम यह है कि कई सीमांत गांवों में वर्तमान में जनसंख्या वर्ष 1991 के मुकाबले महज आधी रह गई है। इन गांवों का अपेक्षित विकास न होना पलायन का मुख्य कारण माना जा रहा है। ऐसे में अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर द्वितीय रक्षा पंक्ति माने जाने वाले ग्रामीणों की संख्या में तेजी से आ रही कमी को लेकर प्रशासन और सेना के अफसर भी चिंतित नजर आ रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि भारत-तिब्बत सीमा पर चमोली जनपद के माणा, नीती, गमशाली, बाम्पा, मलारी, कैलाशपुर, जेलम, जुम्मा समेत दस गांव बसे हुए हैं। इन गांवों के लोग शीतकाल में छह महीने के लिए जिला मुख्यालय के आसपास बसे गांवों में आ जाते हैं और गर्मी के मौसम में वे फिर वहीं लौट जाते हैं, लेकिन सीमा पर स्थित होने के बावजूद इन गांवों का अपेक्षित विकास नहीं हो पाया है। लिहाजा, यहां के परिवार एक के बाद एक पलायन करते जा रहे हैं। हालात इस कदर खराब हो चुके हैं कि अधिकांश गांवों की जनसंख्या 1991 से आधी कम हो चुकी है। सीमांत गांवों के विकास पर विशेष फोकस न किया जाना इसकी एक सबसे बड़ी वजह मानी जा रही है। इनमें से अधिकांश गांव तो मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित हैं। ऐसी विकट स्थिति में ग्रामीण गांव छोड़कर रोजगार और सुविधा की तलाश में बड़े पैमाने पर बाहर जाने लगे हैं।
दूसरी ओर, इन गांवों से लगे तिब्बती गांवों की बात करें, तो वहां चीन (वर्ष 1959 में कब्जे के बाद) पर्यटन विकास की दिशा में उल्लेखनीय कदम बढ़ा रहा है। वहां के गांवों में संचार सुविधाएं मुहैया कराने के बाद न सिर्फ सड़कों का चौड़ीकरण किया गया, बल्कि ल्हासा से किघाई प्रांत तक रेलवे लाइन तक बिछा दी गई, जिससे इन गांवों के लोगों को जनजीवन में आमूल-चूल परिवर्तन देखने को मिला।
यहां यह भी बता दें कि अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर बसे गांवों की भूमिका सुरक्षा की दृष्टि से अहम मानी जाती है। भौगोलिक परिस्थितियों से भलीभांति वाकिफ होने की वजह से यहां के लोगों को द्वितीय रक्षा पंक्ति के रूप में देखा जाता है। इसके बावजूद भारत के गांवों का विकास न होना भविष्य के लिए खतरा बढ़ाता है। जोशीमठ में तैनात सेना के अफसर भी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं कि सीमांत गांवों से ग्रामीणों का पलायन सुरक्षा के लिहाज से अच्छा नहीं है। हालांकि उनका कहना है कि यह देखना होगा कि ये गांव बार्डर पर फ्रंट, इंटरमीडिएट अथवा डैप्थ जोन में से किसमें बसे हैं।
''यह बेहद गंभीर विषय है। सीमांत गांवों से पलायन रोकने के लिए नई योजना तैयार की जाएगी। इस सम्बंध में सैन्य अधिकारियों के साथ बैठक कर उनसे भी सुझाव लिए जाएंगे''
- नीरज सेमवाल, जिलाधिकारी चमोली।
माणा और नीति घाटियों की आबादी
वर्ष 1991 वर्ष 2001 गांव परिवार जन परिवार जन
माणा 199 942 186 594
नीती 47 123 54 98
गमशाली 71 208 78 147
बाम्पा 35 97 46 74
मलारी 128 564 89 434
कैलाशपुर 41 143 44 245
जेलम 100 409 85 315
जुम्मा 82 214 27 98
कागालगा 21 72 14 58
गरपक 09 49 08 33
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अब दुनिया जानेगी गढ़वाली बोली
-अब दुनिया जानेगी गढ़वाली बोली
-जल्द आने वाला है 'गढ़वाली-हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोष'
-गत पांच वर्ष से निर्माण में जुटे हैं चार साहित्यकार
-अब तक 45 हजार गूढ़ गढ़वाली शब्दों को शामिल किया
-अखिल गढ़वाल सभा देहरादून की पहल पर हो रही है इसकी रचना
गोपेश्वर(चमोली)
गढ़वाली लोकधुनों में पिरोए कर्णप्रिय गीत सुनने अच्छे लगते हैं, लेकिन इसके बोल समझ नहीं आते, तो परेशान होने की जरूरत नहीं। गढ़वाली बोली में रुचि रखने वालों के लिए अच्छी खबर है। अखिल गढ़वाल सभा देहरादून की पहल पर सूबे के चार नामी साहित्यकार गत पांच वर्ष से 'गढ़वाली-हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोष' (डिक्शनरी) तैयार करने में जुटे हुए हैं। मई- जून तक यह शब्दकोष बाजार में आने की उम्मीद है। अब तक 45 हजार गढ़वाली शब्द इसमें संग्रहित किए जा चुके हैं।
'गढ़वाली भाषा एवं साहित्य समिति' पिछले कई वर्ष से गढ़वाली बोली के संरक्षण और संवर्धन के भरसक प्रयास कर रही है। यह समिति अखिल गढ़वाल सभा, देहरादून की साहित्य इकाई है। समिति की तत्कालीन अध्यक्ष रजनी कुकरेती और संरक्षक भगवती प्रसाद नौटियाल ने वर्ष 2005 में गूढ़ गढ़वाली शब्दों के संरक्षण और उनका अर्थ समझाने के लिए शब्दकोष बनाने की योजना तैयार की। इसके बाद समिति की बैठक में चार साहित्यकारों का एक पैनल बनाया गया। भगवती प्रसाद नौटियाल देहरादून को शब्दकोष का संयोजक, डा. अचलानंद जखमोला देहरादून, शिवराज सिंह रावत 'नि:संग' गोपेश्वर और प्रोफेसर डा. रुक्मसिंह असवाल उत्तरकाशी को सम्पादक मंडल का सदस्य बनाया गया। ये चारों लोग पिछले पांच वर्ष से गूढ़ और कठिन गढ़वाली शब्दों का चयन कर शब्दकोष में संग्रहित कर रहे हैं। कोष में इन शब्दों का हिंदी और अंग्रेजी में शब्दार्थ दिया गया है।
निर्माणाधीन शब्दकोष के संपादक मंडल के सदस्य शिवराज सिंह रावत 'नि:संग' का कहना है कि कोष में अब तक सभी सदस्यों ने लगभग 45 हजार गढ़वाली शब्दों को शामिल कर लिया है। कोष की रचना आगामी मार्च माह तक पूर्ण कर ली जाएगी। इसके बाद शब्दों की स्क्रूटनी करके इसका प्रकाशन किया जाएगा। 'नि:संग' ने यह भी दावा किया कि कई हिन्दी और अंग्रेजी शब्दों की उत्पत्ति गढ़वाली बोली से ही हुई है।
तो शहर में गुम नहीं होगा गांव का आदमी
आर्थिक सेवाओं की मजबूती पर टिकी नई आस
-ग्रामीण आर्थिकी: न्याय पंचायतें बनेंगी गांवों की मंडियां
-कर्ज से बढ़ी छटपटाहट, नई नीति में है समस्या से छुटकारे का खाका
देहरादून: 'कौन कहता है कि आसमान में सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों', दुष्यंत की ये पंक्तियां नए वर्ष 2010 के आगाज के साथ उत्तराखंड के दामन से जुड़ती नजर आ रही हैं। जी हां, 85 लाख का आंकड़ा पारकर एक करोड़ के नजदीक सूबे की आबादी की नई उम्मीदें आर्थिक सेवाओं की मजबूत बुनियाद पर टिकने जा रही हैं। सरकार की योजना परवान चढ़ी तो गांव का आदमी पलायन कर शहरों की गलियों में गुम नहीं होगा। यही नहीं, यह वर्ष भविष्य में 60 हजार से ज्यादा नए रोजगार सृजित करे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
सूबे के संसाधन लंबे समय तक बहु आयामी विकास का सिर्फ भरोसा भर नहीं रहेंगे, बल्कि बेहतर और नियोजित जन संसाधन की बदौलत आम आदमी की चाहत को जमीन पर उतारते दिखेंगे। इसके लिए सरकार आर्थिक सेवाओं, सामान्य सेवाओं व सामाजिक सेवा की 'तिकड़ी' की पहली सीढ़ी को ज्यादा तवज्जो देने जा रही है। कर्ज के बढ़ते जाल से सूबे को बचाने के लिए भी यह कदम उठाना जरूरी हो गया है। उम्मीद की इस रोशनी को उद्योग, उद्यानिकी, वन, पर्यटन और ऊर्जा के क्षेत्रों ने जगाया है। ये क्षेत्र शहरी विकास के साथ ग्रामीण क्षेत्रों की कायापलट का जरिया बनेंगे। सरकार की नई नीति में गांव की पैदावार के लिए मंडी जिला या मंडल मुख्यालयों के बजाए न्याय पंचायतें होंगी। एक न्याय पंचायत तकरीबन आठ से दस गांवों को समेटे है। पर्वतीय और विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले इलाकों में उपज के सही विपणन के लिए साझेदारी की इस व्यवस्था को कारगर बनाने की तैयारी है।
सूबे में इस प्रयोग के लिए जमीन तैयार हो चुकी है। पर्वतीय व ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन की बड़ी वजह स्तरीय शिक्षा व रोजगार के अवसरों की कमी है। नान प्लान के बजट में बढ़ोत्तरी सूबे की चिंता बढ़ा रही है। राज्य का प्लान व नान प्लान का बजट ही करीब पंद्रह हजार करोड़ है। कोशिश प्लान के बजट को बढ़ाने की है, ताकि विकास रफ्तार पकड़ सके। सरकारी क्षेत्र पर बोझ कम करने को रोजगार की संभावनाओं वाले प्राइवेट सेक्टर में हरिद्वार, देहरादून व ऊधमसिंहनगर के तराई की करीब तीन हजार फैक्ट्रियों में 1.75 लाख लोगों को रोजगार मिला है।
गांवों और एग्रो बेस्ड इंडस्ट्रीज को रोजगार के नजरिए से नई संभावना का क्षेत्र माना जा रहा है। कच्चे माल पर आधारित इंडस्ट्रीज को पहाड़ों में चढ़ाने की तैयारी है। पिछड़े गांवों प्रतिस्पर्धा को तत्पर हों, इसके लिए उन्हें सेंटर आफ एक्सीलेंस के तौर पर विकसित किया जाएगा। अटल आदर्श ग्राम योजना के रूप में शुरू किए गए प्रयोग का मकसद स्थानीय स्तर पर स्तरीय शिक्षा व रोजगार के संसाधन जुटाना है। उम्मीद है कि इससे गांव का व्यापारी व किसान नई दृष्टि के साथ आगे आएगा। पंचायतों में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण के साथ खनन में उनकी भूमिका पर विचार किया जा रहा है। उत्तराखंड में नदियों से चुगान के साथ तांबा, मैग्नासाइड, व अस्कोट जैसे क्षेत्र सोने की खदान की संभावनायुक्त हैं। राज्य की नीति निर्माताओं की मानें तो खनन से ही एक हजार करोड़ की आय संभव है। आय के नए स्रोत 13वें वित्त आयोग की संस्तुतियों का लाभ लेने में सूबे की मदद करेंगे।
ग्रामीण आर्थिकी को खंगालने, उसे विकसित करने से सूबे को शत-प्रतिशत साक्षरता का लक्ष्य भी नजदीक लग रहा है। अभी हरिद्वार, टिहरी, उत्तरकाशी, ऊधमसिंहनगर, बागेश्वर व चंपावत ऐसे जिले हैं, जिनकी साक्षरता का प्रतिशत सूबे के औसत से नीचे है। ग्रामीण पर्यटन रोजगार नए मौके लाया है। नए साल में ऐसे जिलों में आर्थिकी की नई कवायद को ढांचागत सुविधाओं की ठोस बुनियाद के रूप में देखा जा सकता है। प्रदेश के नियोजन मंत्री प्रकाश पंत भी मानते हैं कि ग्रामीण आर्थिकी की मजबूत जमीन तैयार करना जरूरी है। सरकार इसकी तैयारी में जुटी है।
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-पहाड़ी खेती: तैयार हुआ उत्तराखंडी हल
-परंपरागत हल से वजन में काफी हल्का और टिकाऊ
-हल में लकड़ी की बजाए लोहे का उपयोग किया
-सिमली की कृषि संयंत्र इकाई जुटी है इस काम में
उत्तरकाशी, : जिले के काश्तकारों के लिए हल जोतना अब आसान होगा। कृषि संयंत्र इकाई सिमली (चमोली) नपरिक हल से हल्का और टिकाऊ हल तैयार किया है। े उत्तराखंडी हल के नाम से पारंजिला कृषि विभाग ने इस हल के अलावा इकाई द्वारा तैयार नई तरह की दरांती, कुदाल व गार्डन रैक जैसे संयंत्रों का परीक्षण कर लिया है।
समय के साथ पहाड़ में खेती के तौर तरीकों में भी बदलाव जरूरी हैं। इसी दिशा में बीते 11 वर्षो से काम कर रही सिमली स्थित कृषि संयंत्र इकाई ने उत्तराखंडी हल व कुछ अन्य उपकरण तैयार किये हैं। इकाई द्वारा तैयार हल खास तौर पर खेत जोतने के काम को काफी आसान करेगा। परंपरागत हल से काफी हल्के इस हल का वजन महज सात किलो है। इसमें लकड़ी की जगह इस्पात का प्रयोग किया गया है। इसकी फाल पर सात एमएम मोटी पत्ती बनाई गई है। इसमें ऐसी तकनीक का अपनाई गई है कि जुताई के समय फाल को जमीन में कम या ज्यादा गहराई पर रखा जा सकता है। वहीं मिट्टी के बड़े ढेलों को एक बार में ही पूरी तरह तोड़ देता है। हल की लाट काफी हल्की और जुए पर आसानी से फिट हो सकती है।
परंपरागत हल का फाल बनावट ठीक न होने पर कई बार बैलों के पैर से टकराने की समस्या भी आती है। उत्तराखंडी हल की खास बनावट के कारण ऐसा होने की कोई संभावना नहीं है। इसके अलावा महिलाओं के लिये नई तरह दरांतियां व कुदाल भी तैयार की गई हैं, जिनमें लकड़ी का उपयोग काफी कम किया गया है। गार्डन रैक नामक बहुद्देशीय यंत्र से हल लगने के बाद मिट्टी को समतल करने के साथ ही धान कूटना, गोबर निकालना आदि काम किये जा सकते हैं।
शुक्रवार को इकाई के प्रतिनिधियों ने कृषि विभाग में अपने इन यंत्रों का प्रदर्शन किया। विभाग ने यंत्रों का परीक्षण कर उन्हें न्याय पंचायतों में बने कृषि उपकरण विपणन केंद्रों पर भिजवा दिया है। इकाई के संचालक गोपाल राम टम्टा ने बताया कि इन उपकरणों से जहां खेती व अन्य कार्य आसान होंगे, वहीं लकड़ी के कम उपयोग से वनोपज की भी काफी बचत होगी।
जिला कृषि अधिकारी देवेंद्र सिंह रावत ने बताया कि ये उपकरण विभाग की ओर से सब्सिडी पर किसानों को उपलब्ध हैं। उन्होंने बताया कि उत्तराखंडी हल पहाड़ी खेती के लिये एकदम मुफीद है और जल्द ही यह गांवों में नजर आएगा।
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--अटूट आस्था का प्रतीक है 'मदन नेगी'
-यहां भगवान के रूप में मनुष्य की होती है पूजा
-पूजा अर्चना व शुभ कार्य के समय मनदनेगी को चढ़ाते हैं शराब
-देवता के मेले के समय प्रसाद के तौर पर वितरित होती है शराब
, नई टिहरी
यूं तो उत्तराखंड को देवभूमि के रूप में जाना जाता है। पौराणिक आख्यानों व धार्मिक मान्यताओं के तहत माना जाता है कि इस राज्य के कण- कण में देवों का वास है। यही वजह है कि यहां पग- पग पर स्थित शिवालय व सिद्धपीठों के जरिए श्रद्धालु धर्म- अध्यात्म से जुड़े रहते हैं। भगवान के विभिन्न रूपों की पूजा करने की तो यहां परंपरा है ही साथ ही सामाजिक उत्थान की दृष्टि से विशेष योगदान करने वाले मनुष्यों को भी यहां देवता स्वरूप पूजा जाता है। ऐसा ही एक मंदिर है टिहरी जिले में स्थित मदन नेगी।
जिला मुख्यालय से करीब 62 किमी की दूरी पर स्थित जाखणीधार ब्लाक के रैका धारमंडल क्षेत्र के लोगों का प्रमुख देवता है मदन नेगी। मदन सिंह नेगी सदियों पूर्व क्षेत्र में पैदा हुए एक साधारण व्यक्ति थे। हालांकि, उनके बारे में किसी पौराणिक, ऐतिहासिक पुस्तक में वर्णन नहीं मिलता, लेकिन क्षेत्र के बुजुर्गो से जो जानकारी मिलती है, उसके मुताबिक सन् 1700 से लेकर 1740 के बीच नीति माणा से नेगी जाति के चार भाइयों में से दो महाराज नेगी व स्याल नेगी पटुड़ी गांव में, तीसरा भाई चंपूका नेगी कफलोग व चौथा बागा नेगी धारकोट गांव में बसे। इनमें से स्याल नेगी का एक पुत्र हुआ मदन नेगी। बताया जाता है कि मदन नेगी बहुत वीर थे। मदन नेगी की मृत्यु तीस वर्ष की अल्पायु में हुई थी, उस समय वह अविवाहित थे। बताया जाता है कि वह अपने मामा जीतू बगड़वाल के साथ धान रोपने को बैल लेने के लिए पटुड़ी से अठूड़ कोटी गांवआए थे। वापसी में रास्ते में टिहरी राजा के आदेश पर उन्हें रोक लिया गया, उन्हें टिहरी की सीमा के भीतर से होकर न जाने के निर्देश दिए गए। बताया जाता है कि मदन नेगी सुरापान के शौकीन थे और दिन का अधिकांश वक्त वह शराब पीने में गुजारते थे। राजा के आदेश पर वह आक्रोशित हो गए और जमकर शराब का सेवन किया। इसके बाद नेगी व उनके मामा ने टिहरी के बाहरी इलाके से सटे भुज्याड़ी के सेरा रास्ते से घर पहुंचने का निर्णय लिया। यह रास्ता काफी बीहड़ था, रास्ते में एक बैल को भागीरथी पार कराते वक्त नेगी कोटी की धार में नदी में डूब गए।
इस घटना को लंबा वक्त गुजरने के बाद एक बार टिहरी राजा प्रतापशाह अपने रथ पर इस मार्ग से होकर गुजरे, तो उनका रथ कोटी की धार से आगे नहीं बढ़ पाया। दो-तीन बार यही घटना होने पर राजा ने अपने कुल पुरोहितों को बुलाया और चर्चा की। कुलपुरोहितों ने बताया कि उक्त स्थान पर किसी शक्ति का वास है, जिसका पता लगने पर ही निवारण किया जा सकेगा। जब कुल पुरोहितों ने उस शक्ति को अवतरित किया, तो उसने अपने को मदन नेगी बताया और उक्त स्थान पर मंदिर बनाने की इच्छा जाहिर की। नेगी ने मंदिर में प्रसाद रूप में शराब चढ़ाने को भी कहा, साथ ही मंदिर के पास पेड़ पर झूला लगाने को भी कहा। इसके बाद टिहरी राजा ने यहां मंदिर का निर्माण कराया, तब से इस स्थान का नाम मदन नेगी पड़ गया।
सदियों से यहां रैका व धारमंडल क्षेत्र के ग्रामीण प्रतिवर्ष तीन-चार अप्रैल को मेला आयोजित करते हैं। स्थानीय निवासियों में मदन नेगी के प्रति विशेष श्रद्धा है। लोग मंदिर में मन्नतें मांगने के अलावा घर में शादी या अन्य कोई आयोजन होने पर सर्वप्रथम मदन नेगी को शराब चढ़ाते हैं।
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-क्या जेल जाने वाले ही आंदोलनकारी !
-सरकार की ओर से जारी आंदोलन चयन प्रक्रिया से हताश रचनाधर्मी
-आंदोलनकारी धारा ही नहीं, संघर्षात्मक मानव चेतना का भी अपमान
, कोटद्वार (गढ़वाल)
उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान तमाम तरह के लोकगीतों व कविताओं से पर्वतीय क्षेत्रों के बाशिंदों को झकझोरने वाले रचनाधर्मी आज बेहद हताश हैं। उनकी ही नहीं, बल्कि राज्य आंदोलन में पूरी निष्ठा से भागीदारी करने वाले प्रत्येक उत्तराखंडी की यह हताशा वर्तमान हालात के साथ ही सरकार की ओर से जारी राज्य आंदोलनकारियों के चिह्नीकरण प्रक्रिया को लेकर भी है।
यूं तो प्रत्येक आंदोलन में रचनाधर्मियों की भागीदारी का अपना महत्व है, लेकिन उत्तराखंड आंदोलन में रचनाधर्मियों की क्रांतिकारी रचनाओं व नारों ने जनगीतों का रूप ले लिया। उन्होंने अभिव्यक्ति के माध्यम से न सिर्फ आंदोलन को बिखराव से बचाया बल्कि, पहाड़ व मैदान के लोगों से एक साथ मिलकर इस लड़ाई में सड़कों पर उतरने का आह्वान भी किया। स्थानीय गढ़वाली-कुमाऊंनी लोकगीतों के साथ ही 'पर्वतों के गांव से आवाज उठ रही संभल, औरतों की मुट्ठियां हवा में तन गई संभल..', 'लड़के लेंगे, भिड़के लेंगे, छीनके लेंगे उत्तराखंड, शहीदों की हमें कसम, मिल के लेंगे उत्तराखंड..' 'ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के..'। जैसे जनगीतों, नारों, नुक्कड़ नाटकों ने पहाड़ को सुलगा दिया था। मकसद था अपने राज्य में आत्म सम्मान को पाना, इसके लिए गांव-गांव से बच्चे, बूढ़े, नौजवान, महिलाएं सड़कों पर उतरे। लेकिन, राज्य गठन के बाद राजनेताओं ने उत्तराखंड को राजनीति के 'तवे' में चढ़ा दिया। हालत यह है कि जिस उत्तराखंड में विकास की बातें होनी चाहिए थी, वहां बातें हो रही हैं आंदोलनकारियों के चयन की। इससे न सिर्फ रचनाधर्मी, बल्कि हर वह उत्तराखंडी बेहद हताश है, जिसने सच्चे मन से उत्तराखंड की लड़ाई लड़ी थी।
क्या कहते हैं रचनाधर्मी
राज्य आंदोलन आत्मसम्मान की लड़ाई थी, जिसकी खातिर प्रत्येक उत्तराखंडी सड़कों पर उतरा, लेकिन आंदोलनकारियों के चयन की बात कर सरकार ने आंदोलनकारियों का घोर अपमान किया है। यह प्रक्रिया भविष्य में होने वाले जनांदोलनों पर भी बुरा प्रभाव डालेगी।
-नरेंद्र सिंह नेगी
'उस लड़ाई में तुम कहां थे, जो अब यहां हो, ये बात तुम बताओ कि अब कहां हो'। उत्तराखंड के विरोधी राज्य गठन के बाद आंदोलनकारियों के चयन के नाम पर न सिर्फ आंदोलनकारी धारा बल्कि, संघर्षात्मक मानव चेतना का भी अपमान कर रहे हैं। चिह्नीकरण के नाम पर प्रदेश सरकार आंदोलनकारियों को बांटने की साजिश रच रही है।
-गिरीश तिवारी 'गिर्दा'
आंदोलन पहचान, पानी, पर्यावरण, पलायन, पर्यटन के लिए लड़ा गया था। राज्य मिला, लेकिन समस्याएं बदस्तूर हैं। यह कहना बेमानी होगा कि आंदोलन समाप्त हो गया है, क्योंकि आंदोलनकारियों की लंबी जमात आज भी राज्य के विकास को संघर्षरत है। ऐसे में आंदोलनकारियों के चयन की बात तो सोचना ही बेवकूफी है।
-डा.अतुल शर्मा
चिह्नीकरण प्रत्येक उत्तराखंडी के लिए शर्म की बात है। सच्चा सिपाही किसी पुरस्कार का मोहताज नहीं। आंदोलनकारियों के चयन से स्पष्ट है कि प्रदेश में गांधीवादी विचारों को कोई अहमियत नहीं है।
-कमल जोशी
आंदोलन के दौरान सबसे बड़ी चिंता इसे मुकाम तक पहुंचाने की थी। प्रत्येक रचनाधर्मी पुलिस से दूरियां बनाकर गांव-गांव में आंदोलन की अलख जगा रहा था, लेकिन सरकार ने चयन प्रक्रिया के नाम पर आंदोलन को चंद लोगों में समेट कर रख दिया है।
-कुटज भारती
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उत्तराखंड में खुलेगा हिंदू अध्ययन केंद्र
-राज्य में संस्कृत को द्वितीय राजभाषा का दर्जा देने पर सीएम का अभिनंदन
हरिद्वार, मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल निशंक ने कहा कि राज्य में हिंदू अध्ययन केंद्र खोला जाएगा। इसमें देश-विदेश के लोग हिंदू संस्कृति के बारे में तथ्यात्मक जानकारी हासिल करेंगे।
रविवार को सरस्वती शिशु विद्या मंदिर में संस्कृत भारती के तत्वावधान में राज्य में संस्कृत को द्वितीय राजभाषा का दर्जा दिए जाने पर आयोजित अभिनंदन समारोह में डा. निशंक ने कहा कि संस्कृत अकादमी प्रत्येक वर्ष संस्कृत प्रतियोगिता आयोजित कराएगी, जिसमें विजेता को एक लाख रुपये के पुरस्कार दिए जाएंगे। डा. निशंक ने कहा कि उत्तराखंड आदि काल से ही अध्यात्म का केंद्र रहा है। यदि भारत विश्व गुरु है तो उत्तराखंड उसका भाल है। चारों वेद, पुराण, उपनिषदों की रचना देवभूमि में ही हुई। राज्य में सरकार द्वारा संस्कृत भाषा के उत्थान के लिए किए गए कार्यो पर संतोष जताते हुए उन्होंने कहा कि सरकार द्वारा भाषा के लिए कई कार्य किए गए हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सर संघ चालक केसी सुदर्शन ने पूर्व प्रधानमंत्री स्व. जवाहर लाल नेहरू की इस बात के लिए आलोचना की कि उन्होंने संस्कृत को राष्ट्रभाषा नहीं बनने दिया। उन्होंने कहा कि आजादी के बाद डा. भीमराव अंबेडकर ने संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव रखा था लेकिन नेहरू ने इसे नकार दिया। श्री सुदर्शन ने कहा कि संस्कृत को केवल राजभाषा बनाना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि इसे आम बोल चाल की भाषा बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए। उत्तराखंड में संस्कृत को द्वितीय राजभाषा बनाने का स्वागत करते हुए उन्होंने कहा कि देश के अन्य प्रांतों के मुख्यमंत्रियों को भी इस दिशा में सोचना चाहिए। संस्कृत अकादमी के सचिव व संस्कृत भारती के प्रदेश अध्यक्ष डा. बुद्धदेव शर्मा, संस्कृत भारती के संरक्षक आचार्य बुद्धिवल्लभ शास्त्री, विश्व आयुर्वेद परिषद के राष्ट्रीय सचिव डा. प्रेम चंद शास्त्री ने कहा कि संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है। उन्होंने उत्तराखंड में संस्कृत को द्वितीय राजभाषा का दर्जा दिए जाने पर मुख्यमंत्री का आभार जताया।
Friday, 29 January 2010
] -महाकुंभ: धर्मध्वजाएं स्थापित, कुंभ का विधिवत आगाज
-जूना अखाड़े की धर्मध्वजा स्थापना के दौरान हादसा टला
-52 हाथ की धर्मध्वजा की पहले हुई पूजा, देवताओं का आह्वान
-महाकुंभ में अखाड़ों से मिली जमीन पर डेरा सजाने का काम शुरू
हरिद्वार, तीर्थनगरी अब महाकुंभ नगरी का रंग लेने की दिशा में कदम बढ़ा चुकी है। दो दिन में पांच अखाड़ों की पांच धर्मध्वजाओं की शुभ मुहूर्त में स्थापना कर दी गई है। हालांकि जूना अखाड़े की धर्मध्वजा स्थापित करने के दौरान ध्वजा से रस्सी की पकड़ ढीली पड़ गई, जिससे ध्वजा एकाएक एक ओर गिरने लगी। ऐन वक्त पर बमुश्किल इसे रोक लिया गया, जिससे बड़ा हादसा टल गया। धर्मध्वजाओं को स्थापित करने के साथ ही अब महाकुंभ का विधिवत आगाज हो चुका है। अखाड़े अब अपना डेरा बसाने की तैयारी तेज करने में जुट गए हैं।
तीर्थनगरी में 26 जनवरी को जूना, आह्वान और अग्नि जबकि 27 जनवरी को महानिर्वाणी अखाड़ा और अटल अखाड़ा की धर्मध्वजाएं स्थापित की गईं। 26 जनवरी को सबसे पहले नागा संन्यासियों के सबसे मजबूत अखाड़ा जूना अखाड़े में धर्मध्वजा की स्थापना की गई। धर्मध्वजा की स्थापना से पहले ध्वज की पूजा की गई। माया देवी मंदिर में जूना अखाड़े के देवता दत्तात्रेय की चरण पादुका की पूजा अर्चना के बाद ध्वज को बावन हाथ की साल की लकड़ी पर चढ़ाया गया। विधि-विधान से पूजा अर्चना के बाद मोटी रस्सी से धर्मध्वजा की लकड़ी को बांध कर उसे गड्ढे में ले जाने की कवायद शुरू हुई। सभी देवी-देवताओं का आह्वान किया गया। चूंकि धर्मध्वजा 52 हाथ की और बहुत ही भारी थी, इसलिए सैकड़ों की तादाद में साधु-संत इसे थामे हुए थे। धर्मध्वजा की स्थापना के दौरान मंत्रोच्चारण और शंख ध्वनि के बीच घंटों यह प्रक्रिया चली। करीब 11.57 बजे धर्मध्वजा को लगभग स्थापित कर दिया गया था। ध्वज स्थापित होते ही साधु-संत और नागा साधु खुशी से झूमने लगे इसी बीच धर्मध्वजा को रोकने वाले हाथ कमजोर पड़ गए और धर्मध्वजा एक ओर तेजी से गिरने लगी। जिस ओर धर्मध्वजा का हिस्सा गिरने लगा वहां पर मीडिया और साधु-संतों का जमावड़ा लगा हुआ था। बमुश्किल साधू-संतों ने रस्सी को खींच कर धर्मध्वजा को नीचे गिरने से रोक लिया और हादसे को टाल दिया। दूसरी बार हर-हर महादेव के जयघोष से धर्मध्वजा 12.08 के करीब स्थापित हो गई। सभी खुशी से नाच उठे। आह्वान अखाड़े की 52 हाथ की ध्वजा भी विधि-विधान से माया देवी क्षेत्र में स्थापित की गई। ध्वजा को स्थापित करने के दौरान की गई। अग्नि अखाड़े की भी धर्मध्वजा माया देवी परिक्षेत्र में अपने ईष्ट देवता सहित सभी के आह््वान के बाद लगाई गईं। 27 जनवरी को सुबह करीब 10 बजे महानिर्वाणी अखाड़ा कनखल की धर्मध्वजा स्थापित की गई, जबकि अटल अखाड़े की धर्मध्वजा भी दोपहर को लहराई। धर्म ध्वजाओं की स्थापना के बाद अब अखाड़ों में साधु-संत अपने लिए अखाड़ों से मिली जमीन पर अपना डेरा बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ कर चुके हैं। इस मौके पर अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष श्री महंत ज्ञानदास, राष्ट्रीय महामंत्री हरि गिरी महाराज, अग्नि के सभापति महंत बापू गोपालनानंद ब्रह्मïचारी, श्री महंत कैलाशानंद ब्रह्मचारी, श्री महंत आनंद चेतन, श्री महंत गोविंदानंद ब्रह्मचारी, अच्युतानंद ब्रह्मचारी, श्री महंत प्रेम गिरी, अखाड़ा परिषद के राष्ट्रीय प्रवक्ता श्री महंत रामानंद पुरी, स्वामी देवानंद, मेलाधिकारी आनंदबद्र्धन, डीआईजी मेला आलोक शर्मा, सहित प्रशासनिक अधिकारी और पुलिस के अधिकारी मौजूद रहे।
दो अखाड़ों की धर्मध्वजाएं आज लगेंगी
हरिद्वार: निरंजन और आनंद अखाड़े की धर्मध्वजाएं लगाने की तैयारी पूरी हो चुकी है। निरंजन अखाड़े के श्री महंत रामानंद पुरी ने बताया कि बृहस्पतिवार को धर्मध्वजा सुबह दस बजे लगाई जाएगी।
महाकुंभ: आसमान से बातें करने लगीं धर्मध्वजाएं
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-सीना तानकर खड़ी पांच धर्मध्वजाओं ने रच दिया इतिहास
-धर्मध्वजाएं लहराते ही झूम उठे हजारों साधु, संत और आम जन
-ऋचाओं में वेद मंत्र, शंखनाद, घंटा घडिय़ाल ने माहौल में फूंका भक्ति रस
हरिद्वार: तीर्थनगरी ने धर्म की अनूठी मिसाल पेश कर इतिहास रच दिया। जूना, आह्वïन, अटल, अग्नि और महानिर्वाणी अखाड़ों की धर्मध्वजाएं जब सीना तानकर आसमान की बुलंदियां छूने को आतुर हुईं तो ऐसा लगा कि मानो वह आसमान से बातें कर रही हों। हजारों संत और आम जन इस ऐतिहासिक क्षण के गवाह बने।
ऋचाओं में वेद मंत्र और शंख की ध्वनि घंटों गूंजती रही। महाकुंभ के माहौल को रंगने के सिलसिले में धर्मध्वजा ने पूरी ताकत झोंक दी। माना जा रहा है कि अब धीरे-धीरे तीर्थनगरी कुंभ नगर का स्वरूप लेते हुए महाकुंभ में डूब जाएगी। अखाड़ों में धर्म के प्रचार-प्रसार का अनूठा सिलसिला जल्द ही शुरू होगा।
महाकुंभ में तीर्थनगरी के मायादेवी मंदिर और माया देवी क्षेत्र में 26 जनवरी को इतिहास रचा गया। एक तरफ देश भक्ति के गीत गूंज रहे थे, वहीं ऋचाओं में वेद मंत्र, घंटे-घडिय़ाल की ध्वनि, शंख से निकली पवित्र ध्वनि, हर-हर महादेव के जयकारों से गूंज रही थी। हजारों आंखें इस अद्भ्त क्षण को देखने के लिए आतुर थीं। सैकड़ों हाथ धर्मध्वजा को आसमान की बुलंदियों तक पहुंचाने के लिए बेकरार दिखे। माया देवी मंदिर में जूना अखाड़े की धर्मध्वजा के ऊपर मोर पंख लगाकर जब साधु, संत और नागाओं ने उसे आसमान से बाते करने को लहराया तो तालियों की गडग़ड़ाहट से माहौल गूंज उठा। नागा साधुओं ने अपने करतब दिखाने शुरू कर दिए। नोटों की जमकर बारिश हुई। धर्मध्वजा का आशीर्वाद लेने को आम जन टूट पड़ा। पूरा माहौल महाकुंभ के सागर में डुबकी लगाता हुआ नजर आया। पचास से अधिक की तादाद में बैंड बाजों के भक्ति गीत वातावरण में मिठास घोल रहे थे। महिला संवासिनियों ने भी धर्मध्वजा के सीना तानकर खड़े होने पर खुशियां मनाईं। माया देवी मंदिर प्रांगण और माया देवी मंदिर क्षेत्र का नजारा पहली बार ऐसा लग रहा था कि अब महाकुंभ की जमात में साधुओं के कुंभ की शुरुआत हो रही है। गेरुआ धारी संतों की मायानगरी में अचानक बढ़ी चहलकदमी यह बता रही थी कि धर्मध्वजा को लेकर पिछले कई महीनों से उनकी तैयारी यूं ही नहीं थी।
महाकुंभ: क्षणभर को बनता है कुंभ का दुर्लभ योग
-हरिद्वार में कुंभस्थ गुरु होने पर मेष संक्रांति को बनता है कुंभ स्नान का योग
-प्रयाग में माघ मौनी अमावस्या, उज्जैन में वैशाख पूर्णिमा, नासिक में भाद्रपद कुशोत्पाटिनी अमावस्या को कुंभ का योग
-संसारबंधन से मुक्तकर अमरत्व प्रदान करता है इस खास घड़ी पर किया गया स्नान
-हरिद्वार व प्रयाग में तीन-तीन, उज्जैन में दो और नासिक में चार कुंभ स्नानों का विशिष्ट महात्म्य
हरिद्वार
'विष्णु पुराण में कहा गया है कि एक बार अश्वमेध यज्ञ, सौ बार वाजपेय यज्ञ और एक लाख बार पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने का जो फल है, वही एक बार कुंभपर्व स्नान करने से मिलता है। इसी तरह 'स्कंद पुराण में उल्लेख है कि कार्तिक में एक हजार बार, माघ में एक सौ बार गंगा स्नान करने और वैशाख में एक करोड़ बार नर्मदा स्नान करने का जो फल है, वही फल एक बार कुंभ स्नान का है। यह फल क्या है, इसे 'विष्णुयागÓ में इस तरह परिभाषित किया गया है, 'जो मनुष्य कुंभपर्व के समागम में सम्मिलित होकर स्नान करते हैं, वे संसार बंधन से मुक्त होकर अमरत्व को प्राप्त होते हैं। उनके सामने देवतागण वैसे ही नमन करते हैं, जैसे धनवानों के सामने निर्धन लोगÓ।
क्या सचमुच ऐसा संभव है और इसका जवाब यह है कि आस्था कुछ भी संभव करा सकती है। आप सोच रहे होंगे कि फिर तो अपनी भी लाटरी लग गई। अभी तो तीन महीने बाकी हैं, किसी भी दिन जाकर पुण्य बटोर लेंगे, लेकिन ऐसा है नहीं। कुंभपर्व का यह दुर्लभ योग तो घड़ी विशेष पर बनता है। इस कुंभपर्व में यह योग 14 अप्रैल को मेष संक्रांति पर बन रहा है। 'विष्णुयाग में कहा गया है कि कुंभराशिस्थ गुरु के समय जब सूर्य का मेष संक्रमण होता है, तब हरिद्वार में कुंभ नामक उत्तम पर्व का योग होता है। इस पुण्य घड़ी में समस्त पृथ्वी के साढ़े तीन करोड़ तीर्थ हरिद्वार में उपस्थित होते हैं। इसलिए वहां स्नान करने से पृथ्वी के समस्त तीर्थों का स्नान हो जाता है। हरिद्वार कुंभपर्व के तीन स्नान प्रमुख माने गए हैं, पहला महाशिवरात्रि, दूसरा चैत्र कृष्ण अमावस्या और तीसरा मेष संक्रांति। यह तीसरा स्नान ही कुंभपर्व का वास्तविक स्नान है।
प्रयाग कुंभपर्व का पुण्यदायी योग माघ की मौनी अमावस्या को बनता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि कुंभपर्व के तीनों प्रमुख स्नान माघ में ही होते हैं। हरिद्वार में होने वाले उत्तरायणी व माघ पंचमी के सामान्य स्नान यहां कुंभपर्व के महास्नान हैं, लेकिन इनमें मौनी अमावस्या का द्वितीय स्नान उस घड़ी में पड़ता है, जब गुरु वृष और सूर्य व चंद्रमा मकर राशि में आ जाते हैं। इस पावन योग पर ब्रह्मï, विष्णु, महादेव, रुद्र, आदित्य, मरुद्गण आदि देवता गंगा-यमुना के संगम में होते हैं। 'स्कंद पुराण के अनुसार प्रयाग में गंगा-यमुना का जल माघ में सब प्राणियों से कहता है कि 'अद्र्ध उदित सूर्य के समय जो प्राणी यहां आकर डुबकियां लगाता है, वह महापापी होने पर भी पवित्र बन जाता है।
उज्जैन कुंभपर्व पर वैसे तो तीन स्नान होते हैं, लेकिन मुख्य दो ही माने गए हैं। हरिद्वार कुंभपर्व का मेष संक्रांति को पडऩे वाला मुख्य स्नान यहां सामान्य स्नान होता है। द्वितीय स्नान वैशाख कृष्ण अमावस्या और तृतीय वैशाख पूर्णिमा का है। परंपरा के अनुसार उज्जैन कुंभपर्व के मुख्य स्नान के लिए सिंहस्थ बृहस्पति, मेषस्थ सूर्य, वैशाख मास, शुक्ल पक्ष, पूर्णिमा तिथि, तुला राशिस्थ चंद्रमा, स्वाति नक्षत्र, व्यतिपात योग, सोमवार व अवंतिका क्षेत्र, ये दस योग माने गए हैं। इसी दिन कुंभपर्व का प्रधान स्नान होता आया है। प्राय: यह योग वैशाख पूर्णिमा को होता है।
'स्कंद पुराण में उल्लेख है कि सिंह राशि में गुरु, सूर्य एवं चंद्रमा स्थित हों और अमावस्या का योग हो, तब गोदावरी के उद्गम स्थल कुशावर्त कुंड त्र्यंबक में पृथ्वी पर कुंभपर्व होता है। गोदावरी सिंहस्थ कुंभपर्व के कुशावर्त कुंड त्र्यंबकेश्वर में होने वाले चार मुख्य स्नान हैं, जिनमें पहला श्रावण कृष्ण अमावस्या, दूसरा सिंह संक्रांति, तीसरा श्रावणी पूर्णिमा व चौथा भाद्रपद कुशोत्पाटिनी अमावस्या को होता है, जो कि कुंभपर्व का सबसे महत्वपूर्ण स्नान है। 'पद्मपुराण में उल्लेख है कि साठ हजार वर्ष तक भागीरथी में स्नान का जो फल है, वही फल सिंहस्थ गुरु के अवसर पर एक बार गोदावरी में स्नान करने से मिलता है।
कुंभपर्वों का क्रम
हरिद्वार कुंभ : कुंभस्थ गुरु होने पर मेष संक्रांति के दिन
प्रयाग कुंभ : वृषस्थ गुरु होने पर मकरस्थ सूर्य की अमावस्या के दिन तीन वर्ष बाद
हरिद्वार अद्र्धकुंभ : सिंहस्थ गुरु होने पर मेष संक्रांति के दिन छह वर्ष बाद
उज्जैन कुंभ : सिंहस्थ गुरु होने पर मेषस्थ सूर्य की अमावस्या के दिन छह वर्ष बाद
नासिक कुंभ : सिंहस्थ गुरु होने पर सिंहस्थ सूर्य की अमावस्या के दिन छह वर्ष बाद
प्रयाग अद्र्धकुंभ : वृश्चिकस्थ गुरु होने पर मकरस्थ सूर्य की अमावस्या के दिन नौ वर्ष बाद
हरिद्वार कुंभ : पुन: कुंभस्थ गुरु होने पर मेष संक्रांति के दिन 12 वर्ष बाद
खुदाई में मिली मूर्तियां खोल रही देवभूमि के रहस्य
-गढ़वाल मंडल में पुरातात्विक खुदाई में सूर्य, शिव, विष्णु, गणेश व दुर्गा की मिलीं सर्वाधिक मूर्तियां
-आठवीं-नवीं सदी में पहाड़ी शिल्पकला थी उच्च शिखर पर
पौड़ी गढ़वाल
देवभूमि उत्तराखंड का वर्णन विभिन्न पौराणिक आख्यानों में मिलता है। रामायण, महाभारत व वेद- पुराणों में वर्णित विभिन्न घटनाओं का यहां से संबंध रहा है। गढ़वाल मंडल में विभिन्न स्थानों पर चल रही पुरातात्विक खुदाई भी उत्तराखंड के ऐतिहासिक महत्व को प्रमाणित करती है। खुदाई से पता चला है कि उत्तराखंडवंशी पंचदेवों सूर्य, शिव, विष्णु, गणेश और दुर्गा की सबसे अधिक पूजा करते थे। इतना ही नहीं, आठवीं-नवीं सदी में उत्तराखंड की शिल्पकला भी उच्च शिखर पर थी।
बदरी- केदार व यमुनोत्री- गंगोत्री धामों के साथ हिमालय की उच्च पर्वत श्रृंखलाएं उत्तराखंड को देवस्थान बनाती हैं। इसके अलावा उत्तरकाशी में लाखामंडल मंदिर समूह, रैथल मंदिर समूह, शिव मंदिर, चमोली में कुलसारी, टिहरी में सूर्य मंदिर पलेठी व पौड़ी में वैष्णव मंदिर समूह, देवल मंदिर समूह, पौड़ी के पैठाणी में स्थित राहु मंदिर यहां पूजे जाने वाले देवी- देवताओं की जानकारी देते हैं। इन मंदिरों का वास्तु व शिल्पकला भी अनूठे हैं। मंदिरों की बनावट ऐसी है कि गर्भगृह में गूंजने वाले मंत्रों- स्वरों से विशेष तरंगें पैदा होती हैं। इसके अलावा गढ़वाल मंडल में कई ऐसे मंदिर भूगर्भ में दबे हुए हैं, जो पहाड़ी शिल्पकला के रहस्यों को उजागर करते हैं।
पुरातत्व विभाग की ओर से विभिन्न स्थानों पर खुदाई के जरिए मंदिरों की जानकारी जुटाई जा रही है। इसके अलावा जनपद उत्तरकाशी में रैथल मंदिर समूह क्यार्क, जमदग्नि मंदिर थान, महासू मंदिर पूजेली, महासू मंदिर गैर व शिव मंदिर पौंटी का मंदिर जीर्णोद्धार किया जा रहा है। जनपद चमोली में लक्ष्मीनारायण मंदिर कुलसारी, रुद्रप्रयाग में महड़ मंदिर, टिहरी में सूर्य मंदिर पलेठी व जनपद पौड़ी में वैष्णव मंदिर समूह देवल (कोट), शिव मंदिर पैठाणी, प्राचीन मंदिर समूह कुक्खड़ गांव का जीर्णोद्धार प्रस्तावित है।
क्षेत्रीय पुरातत्व अधिकारी डा. बीपी बडोनी ने बताया कि विभिन्न मंदिरस्थलों की खुदाई के दौरान आठवीं- नवीं सदी की पाषाण मूर्तियां मिली हैं, जिनकी शिल्पकारी बेहद उच्चकोटि की है। उन्होंने बताया कि अधिकांश मूर्तियां सूर्य, विष्णु, शिव, गणेश व दुर्गा की मिली हैं, जिससे पता चलता है कि प्राचीन काल में यहां इन्हीं पंचदेवों की पूजा मुख्य रूप से की जाती थी। उन्होंने बताया कि उत्तरकाशी के ज्ञाणजा में मिली कृष्णमूर्ति, देवल मंदिर समूह, वैष्णव मंदिर समूह समेत अन्य मंदिरों पर शोध भी चल रहे हैं।
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तो रोल माडल बन सकता है उत्तराखंड
देवभूमि मुस्कान योजना पर तेजी से हो रहा काम
केंद्र की टीम लेगी योजना की प्रगति का जायजा
देहरादून, राज्य सरकार की कोशिशों पर केंद्र ने मुहर लगा दी तो आने वाले दिनों में सूबे के ही नहीं दूसरे अन्य राज्यों के खनन क्षेत्रों में रह रहे बच्चे शिक्षित होने के साथ-साथ सेहतमंद भी होंगे। जी हां हम बात कर रहें हैं खनन श्रमिकों के स्वास्थ्य पोषण एवं शिक्षा की समुचित सुविधा उपलब्ध कराने वाली देवभूमि मुस्कान योजना की, जिस पर सभी की निगाहें टिकी है।
सूबे के ईट भट्टे, कंस्ट्रक्शन साइट और खनन क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिक परिवारों के बच्चों की चिंताजनक हालत को सुधारने का दावा तो जाने कई वर्षों से किया जाता रहा पर शुरूआत करीब चार वर्ष पूर्व नैनीताल में शुरू हुई। इसे देवभूमि मुस्कान योजना का नाम दिया गया। इसके तहत स्थापित किए गए 41 केंद्रों पर आंगनबाड़ी के माध्यम से उक्त परिवारों के 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को आठवीं तक की पढ़ाई के साथ उनके बेहतर स्वास्थ्य की व्यवस्था की जानी है।
महिला सशक्तिकरण एवं बाल विकास,स्वास्थ्य, शिक्षा और वन विभाग के संयुक्त प्रयासों का नतीजा है कि योजना के तहत नैनीताल में पांच व ऊधमसिंह नगर में एक दर्जन केंद्र केंद्र तेजी से काम कर रहें हैं। महिला सशक्तिकरण एवं बाल विकास की मानें तो पिछले सप्ताह नंदौर रीवर के किनारे आधा दर्जन ऐसे केंद्रो पर नए सिरे काम शुरू कराया गया जिससे ज्यादा से ज्यादा जरूरतमंदों को इसका फायदा दिलाया जा सके। सूबे के लिए योजना इसलिए और भी मायने रखती है क्योंकि सरकार का यह प्रयास यदि केंद्र के पैमाने पर खरा उतरा तो योजना देश के दूसरे राज्यों में लागू किया जाएगा। लिहाजा उत्तराखंड दूसरे राज्यों के लिए रोल माडल बन जाएगा।
सूत्रों ने बताया कि सूबे की सरकार ने योजना पर तेजी से काम करने के निर्देश सभी विभागों को दिए हैं। मुख्यमंत्री डा.रमेश पोखरियाल निशंक ने भी योजना की प्रगति पर संतोष जताया है। सूत्रों ने बताया कि इस माह के अंत में दो दिवसीय दौरे पर आ रही केंद्र की एक टीम योजना की प्रगति का जायजा लेगी। योजना के तहत किए जा रहे काम के जिस तरह सकारात्मक परिणाम आ रहे हैं उसे देखकर उम्मीद है कि राज्य सरकार केंद्र के पैमाने पर खरी उतरेगी। सूबे के लिए यह अहम इसलिए भी है कि क्योंकि केंद्र की सहमति के बाद योजना का खर्च केंद्र उठाएगी। याद रहे योजना पर अब तक का सारा खर्च राज्य सरकार ने उठाया है।
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दून में बनी 'वीर की 'तलवार
--आज देशभर में रिलीज होगी सलमान खान की फिल्म 'वीर
-दून में बनी हैं फिल्म में प्रयोग की गईं तलवार
-पिंडारी मॉडल में बनी है तलवार
-इससे पूर्व धारावाहिक चंद्रकांता और हॉलीवुड की कई फिल्मों के लिए तैयार कर चुके हैं वैपन्स
देहरादून
दून में बनीं वस्तुएं देश-विदेशों में अपना डंका बजा रही हैं। इस बार रुपहले परदे पर जो अपनी चमक बिखेरने को बेकरार है वह है यहां की बनी एक तलवार। यह तलवार पिंडारियों की साहसिक गाथा को प्रदर्शित करने वाली सलमान खान की फिल्म 'वीरÓ में नजर आएगी। इतना ही नहीं, फिल्म में युद्ध में प्रयोग किए गए हथियारों का निर्माण में दून में ही हुआ है। ये सभी हथियार देहरादून के पटेलनगर स्थित दून हैंडीक्राफ्ट में बने हैं।
सलमान खान की बहुप्रतिक्षित फिल्म 'वीर शुक्रवार को देश भर में रिलीज हो रही है। इस फिल्म से ही लोगों में पिंडारियों के प्रति जिज्ञासा बढ़ी। डायरेक्टर अनिल शर्मा निर्देशित फिल्म 'वीर में सलमान खान के हाथ में चमचमाती तलवार दून की बनी हुई है। सलमान खान ने इस फिल्म में पिंडारी योद्धा की भूमिका निभाई है। सलमान खान जिस तलवार से अपने दुश्मनों के सरों को कलम करते हैं, उसे देहरादून के कुशल कारीगरों ने तैयार किया है। इस फिल्म में इस्तेमाल होने वाले भाले और टोप भी इसी फैक्ट्री में बने हैं।
दून हैंडीक्राफ्ट के मालिक मोहम्मद जावेद कहते हैं कि लगभग डेढ़ साल पहले फिल्म के प्रोड्यूसर विजय गलानी का फोन आया और उन्होंने फिल्म के लिए तलवार बनाने को कहा। इसके बाद पिंडारियों के समय की तलवार के फोटो के जरिए इसका सैंपल तैयार किया गया। सैंपल तैयार करते समय बहुत ही एहतियात बरतनी पड़ी। इस बात का विशेष ध्यान रखा गया कि ऐतिहासिकता बरकरार रहे। इसके बाद सैंपलों को मुंबई भेजा गया, वहां से स्वीकृति मिलने के बाद ही फिल्म के लिए तलवार तैयार की गईं। उन्होंने बताया कि इससे पहले वे धारावाहिक चंद्रकांता और हालीवुड की कई फिल्मों के लिए वैपन्स तैयार कर चुके हैं। तलवार के साथ-साथ फिल्म में प्रयोग कई अन्य हथियार भी दून में ही बनाए गए हैं। श्री जावेद ने बताया कि तलवार का वजन कुल दो किलो है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता इसका पिंडारी मॉडल में बना होना है। उन्होंने बताया कि सलमान खान के लिए बनाई गई तलवार की कीमत तीस हजार रुपये है। इस फिल्म में प्रयोग भाले, टोपे वाली तलवार का निर्माण भी यहीं किया गया है।
ओंकारेश्वर दर्शन में पंचकेदारों का पुण्य
-स्कंद पुराण में है मंदिर के महत्व का उल्लेख
-साल भर किए जा सकते हैं भगवान के दर्शन
, रुद्रप्रयाग
समय की कमी है, सेहत साथ नहीं दे रही या शारीरिक रूप से सक्षम नहीं हैं, लेकिन मन में भगवान केदारनाथ समेत परम आस्था के केंद्र पंचकेदारों के दर्शन की इच्छा भी बलवती हो, तो परेशान होने की जरूरत नहीं। पंचकेदारों के गद्दीस्थल ओंकारेश्वर मंदिर में भगवान शिव के पांचों स्वरूपों के दर्शन का लाभ लिया जा सकता है। खास बात यह है कि जहां केदारधाम के कपाट शीतकाल में बंद रहते हैं, वहीं ओंकारेश्वर मंदिर में साल भर श्रद्धालु दर्शन कर सकते हैं।
उत्तराखंड में भगवान शिव के पांच स्वरूप स्थापित हैं। इनमें केदारनाथ के साथ तुंगनाथ, मदमहेश्वर, कल्पेश्वर और रुद्रनाथ मंदिर शामिल हैं। प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु पांचों केदार मंदिरों में भगवान का दर्शन करने पहुंचते हैं, लेकिन उच्च हिमालयी क्षेत्रों में स्थित होने के कारण शीतकाल में मौसम की विपरीत परिस्थितियों में यहां मानवीय गतिविधियां नगण्य रहती हैं। ऐसे में शीतकाल में पांचों केदारों की गद्दियां ओंकारेश्वर मंदिर में स्थापित की जाती है। ग्रीष्मकाल में पंचकेदारों के कपाट खुलने के बाद भी उनके स्वरूपों की पूजा यहां की जाती है। ऐसे में ओंकारेश्वर मंदिर में वर्ष भर पांचों केदारों के दर्शन किए जा सकते हैं।
मंदिर का उल्लेख स्कंद पुराण में भी मिलता है। इसके मुताबिक इस मंदिर में पंचकेदारों दर्शन से उतना ही पुण्य मिलता है, जितना कि केदारनाथ व अन्य चार केदारस्थानों पर दर्शन का मिलता है।
हालांकि, धार्मिक व पौराणिक महत्व होने के बावजूद पर्यटकों व श्रद्धालुओं को ओंकारेश्वर मंदिर के बारे में जानकारी नहीं है। जहां केदारनाथ में ग्रीष्मकाल में पांच लाख व अन्य चारों केदारों में भी बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं, वहीं गद्दीस्थल होने के बावजूद ओंकारेश्वर मंदिर में सीमित संख्या में ही भक्त पहुंचते हैं। जानकारी के अभाव में अधिसंख्य श्रद्धालु ग्रीष्मकाल में कपाट खुलने के बाद ही पंचकेदारों के दर्शन करते हैं।
इस संबंध में मंदिर समिति के कार्याधिकारी अनिल शर्मा का कहना है कि मंदिर समिति लगातार भक्तों को पांचों केदारों के बाबत जानकारी उपलब्ध कराती रहती है। उन्होंने बताया कि मंदिर के विकास व जनसामान्य को यहां आने के लिए प्रेरित करने के लिए भी प्रयास किए जा रहे हैं।
-खतरे में हैं उत्तराखंड के मखमली बुग्याल
-एचआरडीआई और वन विभाग की आरएमई रिपोर्ट में हुआ खुलासा
-वनस्पति प्रजातियों की संख्या में आ रही है भारी गिरावट
-पादपों के कम होने से बढ़ सकता है भूस्खलन कर खतरा
गोपेश्वर(चमोली),
उत्तराखंड के मखमली बुग्यालों का अस्तित्व संकट में है। मवेशियों का अनियंत्रित चुगान और जड़ी-बूटियों का अवैज्ञानिक दोहन आनेवाले समय में इन बुग्यालों का वजूद खत्म कर सकता है। यह खुलासा जड़ी-बूटी शोध एवं विकास संस्थान (एचआरडीआई) और वन विभाग द्वारा संयुक्त रूप से तैयार की गई शोध रिपोर्ट 'रेंडम मैपिंग एक्सरसाइज(आरएमई) में हुआ है। रिपोर्ट के मुताबिक बुग्यालों में कई घास और औषधीय पादपों की प्रजातियां तेजी से कम हो रही हैं।
उत्तराखंड के गढ़वाल हिमायल में हिमशिखरों की तलहटी में टिंबर लाइन (पेड़ों का उगना) समाप्त हो जाती है और मखमली घास के मैदान शुरू हो जाते हैं, जिन्हें बुग्याल कहा जाता है। बुग्याल आमतौर पर आठ से 10 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित होते हैं। शीतकाल में ये बुग्याल बर्फ से लकदक रहते हैं, जिससे प्राकृतिक सौंदर्य और निखरकर सामने आता है। इन बुग्यालों में मखमली घास के साथ औषधीय पादपों की 250 से 300 तक प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें से अधिकांश दुर्लभ हैं। पिछले कुछ वर्षों में बुग्यालों में मानवीय दखल बढ़ा है, जिसका प्रतिकूल प्रभाव यहां की वनस्पति पर पड़ रहा है।
जड़ी- बूटी एवं विकास संस्थान गोपेश्वर और वन विभाग ने हाल ही में स्थानीय बुग्यालों पर एक रेंडम मैपिंग एक्सरसाइज की, जिसकी रिपोर्ट में चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। रिपोर्ट के अनुसार नंदा देवी, फूलों की घाटी, गंगोत्री राष्ट्रीय पार्क और कुछ वन पंचायतों को छोड़कर कई बुग्यालों में स्थानीय तथा घुमंतू चरवाहे मवेशियों को चराने और जड़ी-बूटियां ढूंढऩे जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार उत्तराखंड के बुग्यालों में करीब डेढ़ लाख भेड़- बकरियां और करीब दस हजार गाय-भैंस व घोड़े-खच्चर चरते हैं। नतीजतन, बुग्याल में वनस्पतियों का आवरण घटने के साथ खरपतवारों में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है, जिसका बुग्यालों के वजूद पर बुरा असर पड़ रहा है।
जड़ी बूटी शोध एवं विकास संस्थान के निदेशक डा. आरसी सुन्दरियाल का कहना है कि इन दो कारणों से बुग्याल में अतीश, कटुकी, जटामासी, वनककड़ी, मीठा, सालमपंजा, सुगन्धा आदि प्रजातियों की संख्या में तेजी से गिरावट आ रही है। दूसरी ओर, केदारनाथ वन प्रभाग के डीएफओ धीरज पांडे के मुताबिक बुग्यालों में मवेशियों के चुगान से भूस्खलन का खतरा बढ़ रहा है। उन्होंने कहा कि बुग्यालों के संरक्षण के लिए विभाग की ओर से एक प्रोजेक्ट तैयार कर शासन को भेजा गया है।
उत्तराखंड के प्रमुख बुग्याल, अनुमानित क्षेत्रफल और मवेशियों की संख्या
प्रमुख बुग्याल क्षेत्रफल (वर्ग मीटर में) मवेशियों की संख्या
1. पलंग गाड़, छियालेख-गब्र्याल, कालापानी, नाबी, ढांग, लीपूलेख, नम्पा, कुटी, सेला यांगती ज्योलिंग कॉग
365 15000 भेड़-बकरी व 250 गाय-भैंस
2. चोरहोती, कालाजोवार, नीती, तिमर सेन, गोथिंग, ग्यालडुंग, ढामनपयार, मलारी
280 188500 भेड़-बकरी
व 350 गाय भैंस
3. सुंदर ढुंगा, पिण्डारी, कफनी, नामिक 125 2000 भेड़-बकरी व 350 गाय भैंस
4. धरांसी, सरसो पातल, भिटारतोनी वेदनी औली, रूपकुंड
215 4500 भेड़-बकरी व 500 गाय भैंस
5. सतोपंथ, ढानू पयार, सेमखरक, देववन, नीलकंठआधार, खीरोंघाटी, फूलों की घाटी, राजखर्क, कागभुसण्डी
220 4800 भेड़-बकरी व 300 गाय भैंस
6. रूद्रनाथ, तुंगनाथ, विसूरी ताल, मनिनी, खाम, मदमहेश्वर, केदारनाथ, वासुकीताल
235 14000 भेड़-बकरी व 1500 गाय भैंस
Friday, 1 January 2010
साजिश का शिकार हुआ
देहरादून, आंध्र प्रदेश राज्यपाल पद से इस्तीफा देने वाले नारायण दत्त तिवारी का कहना है
कि वे तेलंगाना संघर्ष की राजनीति का शिकार हुए हैं। श्री तिवारी ने कहा कि जनता की सेवा का उनका आंदोलन जारी रहेगा। हैदराबाद से देहरादून लौटे श्री तिवारी ने पत्रकारों से संक्षिप्त वार्ता की। स्वयं पर लगे आरोपों के बारे में पूछे गए एक सवाल पर उनका कहना है कि सब बेबुनियाद बातें हैं। असल में वे तेलंगाना संघर्ष की साजिश का शिकार हुए हैं। वहां राजभवन में रोजाना सैकड़ों लोग घुसने की कोशिश करते रहे हैं। वे लोग चाहते थे कि राज्यपाल अपने स्तर से इस बारे में कुछ कहें। संवैधानिक पद पर रहते हुए उनके लिए कुछ कहना संभव हीं नहीं था। इसी से नाराज लोगों ने एक साजिश के तहत आरोप लगाए। अब 86 साल की उम्र में ऐसे आरोप खुद की असलियत बयां करने को काफी है। आरोप लगाने वालों के खिलाफ कानूनी जंग के सवाल पर श्री तिवारी ने कहा कि लोग जो चाहें कहें, उन्हें किसी से कुछ भी नहीं कहना है। कहीं संघर्ष होता है तो जनसेवा करने वालों पर भी कुछ छींटे पड़ ही जाते हैं। सक्रिय राजनीति से संन्यास के सवाल पर कांग्रेसी नेता ने कहा कि वे महात्मा गांधी के शिष्य रहे हैं और जवाहर लाल नेहरू से उन्होंने बहुत कुछ सीखा है। फिर आजादी का संग्राम लड़ने के बाद से ही जनता की सेवा में लगे हैं। उन्होंने स्वास्थ्य कारणों से इस्तीफा दिया है। पहले तो कुछ दिनों तक यहीं रहकर आराम करना है। फिर नए साल में उत्तर प्रदेश की तरफ जाने का इरादा है। सभी के आशीर्वाद और दुआओं से शायद कुछ वर्ष और जी लूंगा। श्री तिवारी ने कहा कि उत्तर प्रदेश के 200 से अधिक गांवों के लोग उत्तराखंड में आने की मांग कर रहे हैं। इसकी वजह यही है कि इस राज्य का तेजी से विकास हुआ है और यूपी में लोग मायावती से आजिज आ चुके हैं। इस मांग के समर्थन विषयक एक सवाल पर श्री तिवारी ने कहा कि इसका फैसला तो देश की संसद को ही करना है। फिर भी देखा जनता की मांग पर ध्यान दिया जाना चाहिए। इससे पहले तिवारी का देहरादून पहुंचने पर एयरपोट और गेस्ट हाउस में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने जोरदार स्वागत किया।
मोहना तेरि मुरलि बाजी ग्वाल-बालों का संग
देहरादून, प्रसिद्ध गढ़वाली लोकगायक प्रीतम भरतवाण के जागर व गीत और राजन-साजन मिश्रा के
शास्त्रीय गायन से सजी विरासत-2009 की चौदहवीं शाम में चार चांद लगा दिए। यादगार बनी इस शाम में लोगों ने जागर व गढ़वाली गीतों का भरपूर लुत्फ उठाया तो संगीत की महफिल में विभिन्न रागों पर सुध-बुध बिसरा बैठे। राजधानी में अंबेडकर स्टेडियम स्थित डाडामंडल मंदिर परिसर में बुधवार को विरासत की सांस्कृतिक संध्या का आगाज प्रीतम भरतवाण ने मां सुरकुंडा देवी के जागर से किया। इसके बाद तो उन्होंने अपने चिर-परिचित अंदाज में जागर और गीतों की ऐसी झड़ी लगाई कि दर्शकों को मंत्रमुग्ध हो गए। क्या नहीं था उनके तरकश में। न सिर्फ जागर, बल्कि बद्दी शैली के गीत, पारंपरिक पंवाड़े, पंडवार, शिव शैली के गीत, सरैं गीत और न जाने क्या-क्या। प्रीतम ने जा बाडुली सुवा मा रैबार पौंछयो, त्वै बगैर भलु नि लगदु बतैयो सुनाकर फौजी की व्यथा को बयां किया तो मोहना तेरी मुरलि बाजी ग्वाल बालों का संग से दर्शकों को झूमने पर विवश कर दिया। फिर उन्होंने राजुला-मालुशाही की गाथा के अलावा पंडवार में महाभारत के द्यूत प्रसंग सुनाया। इसके पश्चात उन्होंने युवाओं की नब्ज को भांपते हुए जब सरुली मेरु जिया लगीगे सुनाया तो दर्शकों की थिरकन बढ़ गई। फिर तो प्रीतम ने बंग्लादेश कालौंडांड लड़ै लगी चा तेरि सूरत मेरि बिमुलु मन मा बसीं चा, सुंदरा छोरी कई गीत नॉन स्टाप सुनाए। इसके साथ ही उन्होंने मंच से विदा ली। जागर और गढ़वाली गीतों के बाद फिर महफिल सजी और राजन-साजन मिश्रा बंधुओं ने विभिन्न रागों की ऐसी तान छेड़ी कि दर्शक सुध-बुध ही खो बैठे। उन्होंने कार्यक्रम की शुरूआत राग मालकोंस पर आधारित भजन जिनके मन राम विराजे से की। फिर उन्होंने राग दुर्गा जै-जै मां दुर्गे भवानी सुनाया। इसके बाद राग जोग, दरबारी, कांगड़ा आदि की प्रस्तुतियां भी उन्होंने दी। देर रात तक रसिकजन उनके शास्त्रीय गायन में डूबे रहे।
कोदा-झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे।
कोदा-झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे। उत्तराखंड बना जरूर, लेकिन लोग कोदा-झंगोरा के नाम से ही ऐसे बिदकने लगे-
जब मंडुवे की कोई कमी नहीं थी, घरों में भंडार भरे रहते थे, तब लोगों ने उसे हिकारतभरी नजरों से देखा और अब ढूंढकर भी नहीं मिलता तो मारे-मारे फिर रहे हैं। मंडुवे की रोटी का जिक्र आते ही ऐसे चहक उठते हैं, मानो जनम-जनम के भूखे हों और इस हाल में कहीं खाने को मिल जाए तो नजारा देखने लायक होता है। नेशनल हैंडलूम एक्सपो के त्रिवेणी परिसर में लगे गढ़भोज के स्टाल पर मंडुवे की रोटी और तिल की चटनी का जायका लेने के लिए उमड़ रही भीड़ तो यही कहानी बयां कर रही है। जिसने भूले-भटके भी कभी मंडुए का जायका लिया होगा, वह जानता है उसकी अहमियत और कहीं न कहीं से थोड़ा-बहुत जुगाड़ हर साल कर लेता है। लेकिन, जिसने उसे कम हैसियत वाले लोगों का आहार माना, वह आज उसका स्वाद चखने को बेकरार है तो इसके पीछे कहीं न कहीं जड़ों से छूट जाने का दर्द है। जरा एक दशक पूर्व सड़कों पर गूंजते उन नारों को स्मृति में लाने की कोशिश कीजिए, एक ही स्वर सुनाई देता था, कोदा-झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे। उत्तराखंड बना जरूर, लेकिन लोग कोदा-झंगोरा के नाम से ही ऐसे बिदकने लगे, जैसे उसे देखने भर से ही अछूत हो जाएंगे। हुआ क्या, लोग खेती-बाड़ी छोड़कर स्टेटस मेंटेन करने को छानने लगे शहरों की खाक। पहले दिल्ली-मुंबई-चंडीगढ़ जैसे शहरों की ओर दौड़ते थे, अब देहरादून, हल्द्वानी जैसे शहरों में बसने की होड़ लग गई। जेंटलमैन जरूर बन गए, लेकिन जड़ें सूखने लगीं, भला सूखती जड़ें भी कभी पेड़ को हरा-भरा रख सकती हैं। जड़ों से कटकर कौन-सा समाज अपना अस्तित्व कायम रख पाया। यह बात देर ही सही, लेकिन लोगों की समझ में आने लगी है। तभी तो पहाड़ी उत्पादों का जिक्र होते ही निकल पड़ते हैं उनकी खोज में। परेड ग्राउंड में चल रहे नेशनल हैंडलूम एक्सपो में लगा गढ़भोज का स्टाल इसका गवाह है। 25 दिसंबर को जब चंबा (टिहरी) निवासी विक्रम सुयाल ने वहां मंडुवे की रोटी के साथ भांग का तड़का वाले आलू के गुटके बनाने शुरू किए तो शाम होते-होते करीब दो हजार की बिक्री हो चुकी थी। अगले दिन से विक्रम ने तिल की चटनी व झंगोरे की खीर बनानी भी शुरू कर दी। बकौल विक्रम, स्टाल में पहले आओ-पहले पाओ वाली स्थिति है। जो भी एक्सपो में पहुंच रहा है, मंडुवे की रोटी व तिल की चटनी का स्वाद जरूर चखता है। यहां तक कि लोग रोटी व आलू के गुटके पैक कराकर घर भी ले जा रहे हैं
सूबे में फार्मासिस्टों की कमी होगी दूर
देहरादून: सूबे के सरकारी अस्पतालों में आयुर्वेदिक और यूनानी फार्मासिस्टों की कमी दूर सरकार ने190 फार्मासिस्टो की नियुक्ति पर मोहर लगा दी है। विभाग के इस पहल का सबसे ज्यादा फायदा दूर दराज इलाकों के लोगों को होगा। सरकारी अस्पतालों में कार्मिकों की कमी से स्वास्थ्य सेवाओं पर प्रतिकूल असर पड़ा है। दूर दराज इलाकों की बात तो दूर मैदानी इलाकों की स्थिति भी अच्छी नहीं है। शासन स्तर पर हुई समीक्षा के बाद सरकार ने विभाग को कार्मिकों की नियुक्ति शीघ्र करने के निर्देश दिए। आयुर्वेदिक और यूनानी पद्धति के 225 फार्मासिस्टों की नियुक्ति की जानी है। इसमें से 190 की नियुक्ति पर निदेशालय की ओर से आदेश जारी हो गया है। शेष 35 की नियुक्ति पर भी कार्रवाई की जा रही है। चूंकि सूबे के ज्यादातर आयुर्वेदिक व यूनानी अस्पताल दूर दराज इलाके में है ऐसे में यहां के लोगों को मिलने वाली स्वास्थ्य सुविधाओं में इजाफा होगा।
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