Thursday 17 June 2010

हुनर को जला गई पेट की आग

pahar1- कम ही लोग जानते होंगे कि ढाई-तीन दशक पूर्व तक देवभूमि में कलाकारों की एक ऐसी जाति भी थी, जिसने सदियों से यहां की सांस्कृतिक परंपराओं का संरक्षण किया। वक्त बदला और चकाचौंध लोक पर हावी होने लगी। जमीन से जुड़ी कला ही नहीं, कलाकार भी सुविधाओं के मोहताज हो गए। पेट की भूख ने उन्हें यहां-वहां हाथ-पांव मारने को मजबूर कर दिया और धीरे-धीरे प्रकृति प्रदत्त यह कला इतिहास के पन्नों में दफन हो गई। बात उत्तराखंड की बाद्दी जाति की हो रही है, जिसके बिना एक दौर में घर-आंगन सूने नजर आते थे। बाद्दी यहां के मूल लोक कलाकार हैं, जो आशुकवि होने के कारण अपने गीत-नृत्यों के जरिए ऐतिहासिक घटनाओं और लोक अनुष्ठानों को संरक्षित रखते थे। इनकी स्ति्रयों (बादिण्यों-बेडिण्यों) को नृत्य व गायन में महारथ हासिल थी। एक गांव से दूसरे गांव बिना आमंत्रण के वे अपनी कला व प्रतिभा का प्रदर्शन करते और वहां से मिला प्रोत्साहन उनके परिवार का संबल बनता। उत्तराखंड की संस्कृति को अपनी कला के माध्यम से जीवित रखने वाले ये कलाकार उपेक्षा और उदासीनता का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। दूरदराज के कुछेक इलाकों में जहां-कहीं उनकी मौजूदगी दिखाई भी देती है, उसमें भी मजबूरी का भाव झलकता है। इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों की चकाचौंध में बाद्दियों को पूछने वाला कोई नहीं रहा। उनका जो रहा-सहा दर्शक वर्ग है भी, वह खुद अभावों से जूझ रहा है। यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब, बाद्दी परंपरा के अवशेष भी ढूंढने मुश्किल हो जाएंगे।

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