मुंबई के प्रवासी उत्तराखंडियों ने तीसरी बार किया सफल आयोजन ..
‘उत्तराखंड प्रीमियर लीग’ में
अपने पीढिय़ों के रिश्तों को खंगालते युवाओं को देख कर आज जो गहरा सुकुन मिल
रहा है, वह हर खुशी पर भारी है.
उत्तराखंड प्रीमियर लीग इसलिए ......
‘उत्तराखंड प्रीमियर लीग’ में
अपने पीढिय़ों के रिश्तों को खंगालते युवाओं को देख कर आज जो गहरा सुकुन मिल
रहा है, वह हर खुशी पर भारी है.
उत्तराखंड प्रीमियर लीग इसलिए ......
शक
व्यक्तिगत रूप से हम मुंबई के प्रवासी उत्तराखंडी सफलता के शिखर पर हैं और
निजी उपलब्धियों पर इतराने के लिए हमारे पास बहुत कुछ है, पर जब हमारी
सामाजिक पहचान कीसी की निगाहों में सवाल बन कर उभरती है, तो निजी
उपलब्धियों का संसार टूट कर बिखरने लगता है. बहुगुणा, नौटियाल, जोशी, काला,
राणा कौन और कीस प्रदेश के सवाल जब पीछा करते हैं तो वजूद का संकट हर
उपलब्धि पर भारी पड़ जाता है. और यह सवाल कभी-कभी बर्दाश्त की सीमा से बाहर
निकल जाता है.
अपनी जन्मस्थली देवभूमि से छिटक-से गये और संतभूमि में अपनी सामाजिक हैसियत बहुत ज्यादा न गढ़ पाने वाले मुंबई के प्रवासी उत्तराखंडियों के हालात बहुत ज्यादा तो नहीं, पर वर्षों से कुछ-कुछ ऐसे ही रहे हैं. पहाड़ से पलायन कर मुंबई में आ बसे ‘उत्तराखंड’ को इस शहर में एक सदी बीतने को है, पर ‘पहचान का सवाल’ आज भी सवाल बन कर सवाल पूछनेवालों की निगाहों में भी और जवाब देने वालों की निगाहों में बरकरार है.
इस हालात पर कसमसाहट ऐसी कि खत्म ही नहीं हो रही.
ऐसा क्यों हुआ, यह लंबी चर्चा का विषय है.
पर यह भी सत्य है कि इससे बाहर निकलने के प्रयास कम नहीं हुए. पहचान गढऩे की उम्मीदें समय-समय पर रोशन तो हुईं, पर यह उम्मीदें ख्वाबों के आसमां में बादलों के गुच्छे से यत्र-तत्र बिखरे ही रह गये. फिर भी प्रवासी उत्तराखंडी ने हिम्मत नहीं हारी. कई पीढिय़ां खप गयीं, पर मुंबई के संघर्ष-पथ पर उसने समाज को गढऩे के अपने प्रयासों को विराम नहीं लगने दिया. और यह उसी का नतीजा है कि दशको पहले पहाड़ से सागर तक की दूरी नापने वाले उत्तराखंडी की नयी पीढ़ी आज अपनी निजी और सामाजिक हैसियत के साथ मुंबई के नक्शे पर अपनी सशख्त उपस्थिति दर्ज करा रही है.
शायद यहां इतनी बातें कहने की जरूरत नहीं थी, पर ‘उत्तराखंड प्रीमियर लीग’ में पिछले 3 वर्षों से लगभग 500 युवाओं की सक्रिय हिस्सेदारी को देख कर मन आज अपनी उस पीढ़ी को याद करने के लिए व्याकुल हो उठा, जिन्होंने वर्षों सडकों-चौराहों पर गुजर-बसर कर आज की इस पीढ़ी के लिए अपना वर्तमान स्वाहा कर दिया. तिनके-तिनके बसाये आशियानों में आज खूब चहल-पहल है. हर अर्थ में संपन्न नयी पीढ़ी सामाजिक पहचान में नया रंग भर रही है. इसलिए ‘उत्तराखंड प्रीमियर लीग’ के आगाज के मौके पर हम पिछली पीढ़ी के सामने नतमस्त होकर इस जवान पीढ़ी के संघर्ष को भी सलाम करते हैं.
‘उत्तराखंड प्रीमियर लीग’ में अपने पीढिय़ों के रिश्तों को खंगालते युवाओं को देख कर आज जो गहरा सुकुन मिल रहा है, वह हर खुशी पर भारी है.
इसी एक मकसद के साथ वर्ष-2012 में ‘उत्तराखंड प्रीमियर लीग’ ने आकार लिया था और हमें खुशी है कि इसका आकार लगातार बढ़ता जा रहा है.
क्रिकेट के मैदान में अपनों की पूछताछ, अपनों से पूछताछ का यह तीसरा वर्ष है और हम आभारी हैं समाज के उन सभी नुमाइंदों का जो इस प्रतियोगिता के सामाजिक पहलू को समझ कर लगातार साथ खड़े हैं और आभारी हैं उन युवाओं का जिन्होंने अपने खेल के हुनर से न सिर्फ क्रिकेट के मैदान को चकाचौंध कर दिया है, बल्कि नौटियाल, उनियाल, पोखरियाल, खंकरियाल, सौंण, कार्की, कुकरेती, बलोदी, बंदूनी, बडोनी, राणा, बहुगुणा, चंद, नेगी, बिष्ट, भट्ट, चंद, कैंतुरा और मठपाल, जखमोला, देवली के रूप में हमारी पहाड़ी पहचान में नया रंग भर दिया है और भर रहे हैं.
यह नयी पीढ़ी सामाजिक रिश्तों की नयी इबारत लिखने की ख्वाहिशों के साथ रविवार 26 अक्टूबर, 2014 से पोयसर जिमखाना, कांदिवली (प.) से उत्तराखंड प्रीमियर लीग के तीसरे सीजन में पुन: मैदान में है. उम्मीद करें कि खेल के साथ निजी और सामाजिक रिश्तों की यह कडिय़ां साल-दर-साल और जुड़ती जाएं और रिश्तों की गर्माहट समाज को अपनी पहचान के साथ जीने की नयी ताकत दे.
बस! ख्वाहिश इतनी कि अपनी पहचान के लिए उन नेताओं के गले में हार डालने की मजबूरी से बाहर निकलें, जिन्होंने 10 लाख की अपनी इस आबादी से रिश्ता जोडऩे के लिए और अपनी जन्मभूमि से हमारे सरोकार बनाये रखने के लिए इस शहर में एक सूचना केंद्र खोलना तक मुनासिब न समझा.
वर्षों पहले हमने घर छोड़ा, आज घर ने हमें छोड़ दिया.
बहरहाल, किसने किसको छोड़ा, इस पर बात अभी बाकी है.
फिलहाल आपसे अपने युवा खिलाडिय़ों के लिए लिए शुभकामनाओं का इंतजार!
धन्यवाद!!!
अपनी जन्मस्थली देवभूमि से छिटक-से गये और संतभूमि में अपनी सामाजिक हैसियत बहुत ज्यादा न गढ़ पाने वाले मुंबई के प्रवासी उत्तराखंडियों के हालात बहुत ज्यादा तो नहीं, पर वर्षों से कुछ-कुछ ऐसे ही रहे हैं. पहाड़ से पलायन कर मुंबई में आ बसे ‘उत्तराखंड’ को इस शहर में एक सदी बीतने को है, पर ‘पहचान का सवाल’ आज भी सवाल बन कर सवाल पूछनेवालों की निगाहों में भी और जवाब देने वालों की निगाहों में बरकरार है.
इस हालात पर कसमसाहट ऐसी कि खत्म ही नहीं हो रही.
ऐसा क्यों हुआ, यह लंबी चर्चा का विषय है.
पर यह भी सत्य है कि इससे बाहर निकलने के प्रयास कम नहीं हुए. पहचान गढऩे की उम्मीदें समय-समय पर रोशन तो हुईं, पर यह उम्मीदें ख्वाबों के आसमां में बादलों के गुच्छे से यत्र-तत्र बिखरे ही रह गये. फिर भी प्रवासी उत्तराखंडी ने हिम्मत नहीं हारी. कई पीढिय़ां खप गयीं, पर मुंबई के संघर्ष-पथ पर उसने समाज को गढऩे के अपने प्रयासों को विराम नहीं लगने दिया. और यह उसी का नतीजा है कि दशको पहले पहाड़ से सागर तक की दूरी नापने वाले उत्तराखंडी की नयी पीढ़ी आज अपनी निजी और सामाजिक हैसियत के साथ मुंबई के नक्शे पर अपनी सशख्त उपस्थिति दर्ज करा रही है.
शायद यहां इतनी बातें कहने की जरूरत नहीं थी, पर ‘उत्तराखंड प्रीमियर लीग’ में पिछले 3 वर्षों से लगभग 500 युवाओं की सक्रिय हिस्सेदारी को देख कर मन आज अपनी उस पीढ़ी को याद करने के लिए व्याकुल हो उठा, जिन्होंने वर्षों सडकों-चौराहों पर गुजर-बसर कर आज की इस पीढ़ी के लिए अपना वर्तमान स्वाहा कर दिया. तिनके-तिनके बसाये आशियानों में आज खूब चहल-पहल है. हर अर्थ में संपन्न नयी पीढ़ी सामाजिक पहचान में नया रंग भर रही है. इसलिए ‘उत्तराखंड प्रीमियर लीग’ के आगाज के मौके पर हम पिछली पीढ़ी के सामने नतमस्त होकर इस जवान पीढ़ी के संघर्ष को भी सलाम करते हैं.
‘उत्तराखंड प्रीमियर लीग’ में अपने पीढिय़ों के रिश्तों को खंगालते युवाओं को देख कर आज जो गहरा सुकुन मिल रहा है, वह हर खुशी पर भारी है.
इसी एक मकसद के साथ वर्ष-2012 में ‘उत्तराखंड प्रीमियर लीग’ ने आकार लिया था और हमें खुशी है कि इसका आकार लगातार बढ़ता जा रहा है.
क्रिकेट के मैदान में अपनों की पूछताछ, अपनों से पूछताछ का यह तीसरा वर्ष है और हम आभारी हैं समाज के उन सभी नुमाइंदों का जो इस प्रतियोगिता के सामाजिक पहलू को समझ कर लगातार साथ खड़े हैं और आभारी हैं उन युवाओं का जिन्होंने अपने खेल के हुनर से न सिर्फ क्रिकेट के मैदान को चकाचौंध कर दिया है, बल्कि नौटियाल, उनियाल, पोखरियाल, खंकरियाल, सौंण, कार्की, कुकरेती, बलोदी, बंदूनी, बडोनी, राणा, बहुगुणा, चंद, नेगी, बिष्ट, भट्ट, चंद, कैंतुरा और मठपाल, जखमोला, देवली के रूप में हमारी पहाड़ी पहचान में नया रंग भर दिया है और भर रहे हैं.
यह नयी पीढ़ी सामाजिक रिश्तों की नयी इबारत लिखने की ख्वाहिशों के साथ रविवार 26 अक्टूबर, 2014 से पोयसर जिमखाना, कांदिवली (प.) से उत्तराखंड प्रीमियर लीग के तीसरे सीजन में पुन: मैदान में है. उम्मीद करें कि खेल के साथ निजी और सामाजिक रिश्तों की यह कडिय़ां साल-दर-साल और जुड़ती जाएं और रिश्तों की गर्माहट समाज को अपनी पहचान के साथ जीने की नयी ताकत दे.
बस! ख्वाहिश इतनी कि अपनी पहचान के लिए उन नेताओं के गले में हार डालने की मजबूरी से बाहर निकलें, जिन्होंने 10 लाख की अपनी इस आबादी से रिश्ता जोडऩे के लिए और अपनी जन्मभूमि से हमारे सरोकार बनाये रखने के लिए इस शहर में एक सूचना केंद्र खोलना तक मुनासिब न समझा.
वर्षों पहले हमने घर छोड़ा, आज घर ने हमें छोड़ दिया.
बहरहाल, किसने किसको छोड़ा, इस पर बात अभी बाकी है.
फिलहाल आपसे अपने युवा खिलाडिय़ों के लिए लिए शुभकामनाओं का इंतजार!
धन्यवाद!!!
मुंबई से केशर सिंह बिष्ट
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