Sunday 30 January 2011

कपिल ऋषि की तपोस्थली गुमनाम

-ऐतिहासिक विरासतें विलुप्त होने के कगार पर -13वीं सदी में कत्यूरी शासकों ने कराया था भव्य मंदिर का निर्माण -मंदिर के पत्थरों में बनीं हैं देवी-देवताओं की सुंदर मूर्तियां नैनीताल: देवभूमि उत्तराखंड में आज भी असंख्य ऐतिहासिक एवं धार्मिक स्थल उपेक्षित पड़े हैं। संरक्षण एवं देखरेख के अभाव में कई ऐतिहासिक विरासतें विलुप्त होने के कगार पर जा पहुंची हैं। मंडल मुख्यालय नैनीताल से करीब 60 किमी . की दूरी पर स्थित ऐसा ही बेहद प्राचीन ऐतिहासिक एवं धार्मिक स्थल है कपिलेश्वर महोदव। कभी कपिल ऋषि की तपोस्थली रहा यह प्राचीन स्थल आज उपेक्षा का दंश झेल रहा है। कपिलेश्वर महादेव नैनीताल जिले के रामगढ़ विकास खंड के मौना गांव के समीप अल्मोड़ा व नैनीताल जिले की सीमा पर कुमियां व शकुनी नदियों के संगम पर स्थित है। कहा जाता है कि हिमालय की कंदराओं में तपस्या करने वाले कपिल ऋषि ने यहां भी तपस्या की थी। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार 13वीं शताब्दी में कत्यूरी शासकों ने इस स्थल पर एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया, जो आज कपिलेश्वर महोदव मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। विशालकाय पत्थरों को सुंदर ढंग से तराश कर बनाए गए इस भव्य मंदिर की स्थापत्य कला बेजोड़ है। मंदिर के विशालकाय पत्थरों में देवी-देवताओं की आकर्षक मूर्तियां खुदीं हैं। मंदिर की ऊंचाई लगभग 37 फीट है। हाल ही में इस ऐतिहासिक मंदिर का सर्वेक्षण करने वाले कुमाऊं विवि के पूर्व इतिहास विभागाध्यक्ष प्रो.अजय रावत के अनुसार प्राचीन मंदिर के चारों ओर भग्न मंदिरों के अवशेष विद्यमान हैं, जिससे स्पष्टï होता है कि यहां प्राचीन काल में और भी कई मंदिर रहे होंगे। प्रो.रावत के मुताबिक कपिलेश्वर मंदिर का वाह्य स्वरूप दोनों ओर अलंकृत रथिका वाला है, जिन पर पाश्र्व देवी-देवताओं की आकर्षक मूर्तियां विद्यमान हैं। इनमें चतुर्भुजा, महिषासुर मर्दिनी, द्विभुज लकुलीश (भगवान शिव) और चतुर्भुज गणेश भगवान की मूर्तियां उत्तर-पूर्व तथा दक्षिण की ओर विराजमान हैं। मंदिर के प्रवेश द्वार के ऊपरी हिस्से में लगे पत्थरों में सूरसेन की मूर्ति अलंकृत है और उसके ऊपर त्रिमुखी शिव विराजमान हैं। मंदिर के दरवाजे की चौखट में नाना प्रकार के फूलों की सुंदर आकृतियां भी खुदी हैं। उसके ऊपरी हिस्से में परिचारकों सहित मकर वाहिनी गंगा और कूर्म (कछुवे) पर सवार युमना (देवी) भी चित्रित है। देखरेख के अभाव में प्राचीन स्थापत्य कला की यह बेजोड़ कलाकृतियां धीरे-धीरे नष्टï होते जा रही हैं। मंदिर के उत्तरांग में राहु व केतु को छोड़कर अन्य सभी ग्रहों का उल्लेख मिलता है। मंदिर की शिलाओं में सूर्यमुखी फूल पकड़े सूर्य ग्रह भी विराजमान हैं। कपिलेश्वर मंदिर के पास ही काल भैरव का भी मंदिर है। शिवरात्रि को लगता है मेला नैनीताल: कपिलेश्वर धाम में हर साल शिवरात्रि को मेला लगता है। जिसमें आसपास के करीब दो दर्जन से भी अधिक गांवों से ग्रामीण पहुंचते हैं। कुमियां व शकुनी नदी के संगम पर स्नान करने के बाद श्रद्धालु भगवान शिव का जलाभिषेक करते हैं। शिवरात्रि को यहां भंडारे का आयोजन होता है। इतिहासकार प्रो.अजय रावत के मुताबिक इस स्थल को जागेश्वर की भांति एतिहासिक एवं धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है।

फूलों के देश में दमकी देवभूमि की आभा

देवभूमि के फूलों ने देश में ही चमक नहीं बिखेरी, यूरोप का दिल भी जीता है। फूलों के देश हॉलैंड ने उत्तराखंड के ग्लैडियोलस को सिर आंखों पर बैठाया है। सरकारी स्तर पर पहली मर्तबा हुए प्रयासों से फूल न सिर्फ हॉलैंड पहुंचे, बल्कि वहां से हर हफ्ते पांच हजार कट फ्लावर की डिमांड भी उत्तराखंड को मिली है। फूलों की पहली खेप इसी हफ्ते भेजी भी जा चुकी है। उम्मीद जगी है कि हॉलैंड से अब समूचे यूरोप में उत्तराखंडी फूल अपनी आभा बिखेरेंगे और इन्हें मिलेगी अंतरराष्ट्रीय पहचान। साथ ही किसानों के लिए भी इसे एक नई उम्मीद के रूप में देखा जा रहा है। कारनेशन, जरबेरा, ग्लैडियोलस जैसे कट फ्लावर के मामले में उत्तराखंड ने देशभर में खास जगह बनाई है। बेहतर क्वालिटी का ही नतीजा है कि देश में होने वाले राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फ्लोरा एक्सपो में यहां के फूल खूब चमक बिखेरते आ रहे हैं। इनमें भी सूबे के चार जिले देहरादून, हरिद्वार, ऊधमसिंहगर व नैनीताल का बड़ा योगदान है। सबसे अधिक पुष्पोत्पादक इन्हीं जिलों में हैं। फूलों की बढ़ती चमक को देखते हुए उद्यान महकमे ने पहली मर्तबा इन्हें कृषि निर्यात इकाई के जरिए विदेश की सैर कराने की ठानी और इसमें कामयाबी भी मिली है। यह सफलता भी कहीं और नहीं, बल्कि फूलों के देश कहे जाने वाले हॉलैंड में मिली है। अपर सचिव उद्यान जीएस पांडे के मुताबिक एग्री एक्सपोर्ट जोन के जरिए उत्तराखंड से ग्लैडियोलस के सैंपल हॉलैंड भेजे गए। क्वालिटी के मानक पर तो ये खरे उतरे, मगर पैकिंग में कुछ कमियां रह गईं। बाजार की मांग के अनुरूप कमियां दूर की गई और फिर सैंपल हॉलैंड भेजे गए, जहां लोगों ने इन्हें सिर आंखों पर बिठा लिया। इसी का नतीजा रहा कि अब वहां से हर हफ्ते पांच हजार कट फ्लावर की डिमांड मिली है। पहली खेप इसी हफ्ते हॉलैंड भेज भी दी गई। श्री पांडे के अनुसार हॉलैंड में मिली इस कामयाबी को देखते हुए अब फूलों की खेती को और आगे बढ़ाया जाएगा। इससे किसानों के लिए भी नए द्वार खुले हंै। उन्होंने कहा कि हॉलैंड की डिमांड पूरी करने में सूबा सक्षम है और आने वाले दिनों यहां के फूल समूचे यूरोप में फैलेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं है।

Saturday 22 January 2011

डीएनए बताएगा कहां से आए जौनसारी व बोक्सा

-भारतीय मानव विज्ञान सर्वेक्षण विभाग ने लिए जौनसारी व बोक्सा जनजाति के लोगों के ब्लड सैंपल -करीब 45 गांवों से एकत्रित किए गए नमूने -छह माह में पता चलेगा कहां के हैं इनके वंशज देहरादून: इतिहास के पन्नों को पलटें तो उत्तराखंड की जौनसारी व बोक्सा जनजाति के वंशज को लेकर अलग-अलग मान्यताएं हैं। मगर, वैज्ञानिक रूप में इस जनजाति के बारे में अब तक कोई स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है। पहली बार मानव विज्ञान सर्वेक्षण विभाग डीएनए जांच से उनके वंशजों व अन्य जातियों से उनकी भिन्नता आदि का पता लगाने जा रहा है। वैज्ञानिकों ने करीब 35 गांवों से जौनसारी व बोक्सा लोगों के खून के नमूने लिए हैं। मानव विज्ञान सर्वेक्षण विभाग की टीम ने यह सैंपल्स देहरादून के शिमला बाइपास क्षेत्र में रह रहे 100 बोक्सा व चकराता क्षेत्र के 115 जौनसारी जनजाति के परिवारों से एकत्रित किए हैं। विभाग के अधीक्षण मानव विज्ञानी डा. विनोद कौल ने बताया सैंपल्स की डीएनए जांच कराई जा रही है। करीब छह माह में इस बात की वैज्ञानिक पुष्टि हो जाएगी कि दोनों जनजातियों के वंशज कहां के हैं व इनका इतिहास कितना पुराना है। यह भी पता लगेगा कि जौनसारी व बोक्सा अन्य जातियों से किस तरह अलग हैं। इससे किसी रोग के प्रति उनकी शारीरिक क्षमता का आंकलन भी किया जा सकेगा। डा. कौल ने बताया कि दूसरे चरण में गढ़वाली व कुमाउंनी समुदाय सहित गुज्जर व तिब्बती लोगों की भी डीएनए जांच कराई जाएगी। इस तरह हो रही जांच डीएनए जांच के पहले चरण में ब्ल्ड सैंपल्स को डीएनए एक्सट्रेक्ट विधि से गुजारा जाएगा। इसके बाद माइट्रोकॉन्ड्रियल डीएनए व वाई क्रोमोजोमनल जीन्स की प्रक्रिया पूरी कराई जाएगी। प्रयोग के अन्तिम चरण में डीएनए सीक्वेन्सिंग कराकर पता चल जाएगा कि क्या है संबंधित व्यक्ति की पीढ़ी का इतिहास। शोध के कुछ तथ्य इस तरह की जनजातियां एक ही ग्रुप में रहती हैं, इनके विवाह भी आसपास तक सीमति रहते हैं। डीएनए जैसी जांच को इसमें मदद मिलती है। डीएनए में मिलने वाले नतीजों को वर्ष 2003 में विश्वभर में हुए जीनोम प्रोजेक्ट के रिजल्ट से मिलाया जाएगा। जौनसारी-बोक्सा की डीएनए जांच के जो नमूने जीनोम प्रोजेक्ट के नमूने से मैच करेंगे, उसके आधार पर उनके वंशज आदि का पता लग जाएगा।

दिल्ली में होगा सरनौल का पांडव नृत्य

नौगांव(उत्तरकाशी): उत्तरकाशी के सरनौल गांव के कलाकारों को दिल्ली में अपनी लोकविधा पांडव नृत्य की प्रस्तुति देने का मौका मिला है। आगामी 11 से 16 फरवरी तक आईजीएनसीए (इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फार आर्ट) की ओर से आयोजित इस कार्यक्रम में देश के विभिन्न हिस्सों के लोक कलाकार जुटेंगे। इसमें सरनौल के कलाकार भी प्रतिभाग करेंगे। महाभारतकाल की विभिन्न कथाओं का लोकमंच के जरिये प्रस्तुतिकरण पर आधारित इस कार्यक्रम में सरनौल गांव के पांडव नृत्य की भी प्रस्तुति होगी। इसमें कलाकार पांडव नृत्य के विभिन्न पहलुओं की लोकविधा के रूप में प्रस्तुति देंगे। उत्तराखंड के विभिन्न हिस्सों में पांडव नृत्य की परंपरा है इसमें अनुष्ठान व रंगमंच के तत्वों का अनूठा मिश्रण है। वहीं सरनौल गांव का पांडव नृत्य अपनी खासियतों के कारण काफी प्रसिद्ध है। सरनौल के कलाकार पांडव नृत्य की प्रस्तुति केरल तथा मध्य प्रदेश में भी दे चुके हैैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय दिल्ली से आये डॉ. सुवर्ण रावत ने बताया कि सरनौल के कलाकार प्रत्येक दिन महाभारत पर आधारित प्रस्तुति देंगे। इनमें पांडव वनवास, जोगटानृत्य, गेडा नृत्य तथा गुप्तवास का मंचन किया जायेगा। उन्होंने बताया कि उत्तराखंड से प्रसिद्ध रंगकर्मी डॉ.डीआर पुरोहित के निर्देशन में चक्रव्यूह मंचन व श्रीष डोभाल के निर्देशन में गरुड़ व्यूह की भी प्रस्तुति दी जाएगी।

Thursday 20 January 2011

बागबां ने बचा ली विरासत

चम्बा(टिहरी)-'बागबांÓ के जुनून ने नाउम्मीदी के रेगिस्तान को नखलिस्तान में बदल दिया। बीते चालीस साल से इस गुलिस्तां ने कभी 'पतझड़Ó नहीं देखा। टिहरी जिले के चम्बा ब्लाक के गांव सिलकोटी ने अपने उजड़े चमन को गुलजार कर दिया। आज छह वर्ग किलोमीटर में फैले बांज, बुरांश और काफल के वृक्षों पर सिलकोटी के लोगों को नाज है । इसके लिए उन्होंने न सरकार का मुंह ताका और न ही स्वयं सेवी संस्थाओं का। बस वक्त की नजाकत को समझ पौधे रोपे और बच्चों की तरह उनका पालन किया। ये पौधे अब 'जवानÓ हो चुके हैं। पसीने से सींची 'बगियाÓ की देखरेख के लिए एक वन सेवक भी रखा गया है। जिसे वेतन के रूप में हर परिवार अनाज और पैसे देता है। पर्यावरण पर बौद्धिक चिंतन हो रहा है। सरकार चिंतित है, करोड़ों रुपये पानी की तरह बहा जा रहे हैं। सेमिनार, गोष्ठी और रैलियों में गूंज रहे नारों के बावजूद फाइलें भले मोटी हो रही हैं, लेकिन जमीन पर जंगल सिकुड़ते जा रहे हैं। इन हालात में सिलकोटी के 750 लोगों का यह प्रयास आस के दीपक को जलाए रखने की कहानी है। वर्ष 1970 में जब जंगल के अनियोजित दोहन से जिंदगी की गाड़ी पटरी से उतरने लगी तो ग्रामीणों को अहसास हुआ कि वे क्या खो रहे हैं। फिर क्या था शुरू हो गई चमन की बेनूरी को लौटाने की कोशिश। ग्रामीणों ने संकल्प लिया कि स्वयं अपनी तकदीर लिखेंगे। इसके बाद गांव वालों ने जंगल में न केवल बांज, बुरांश और काफल जैसे वृक्षों के पौधे रोपे, बल्कि उनका पालन-पोषण भी अपने बच्चों की तरह किया। तय किया कि अब जंगल में कटान नहीं होगा। शुरुआत में देखभाल के लिए दो वन सेवक भी रखे गये। जिन्हें मानदेय के रूप में प्रति परिवार कुछ धनराशि और अनाज दिया गया। हालांकि अब एक ही वनसेवक है। नतीजा सामने है। आज छह वर्ग किलोमीटर में शानदार वन लहलहा रहा है। गांव में पानी के स्रोत बढ़ गए हैं। जंगल में कटान की बजाए गांव वाले ईंधन के लिए सूखी या गिरी हुई लकडिय़ां चुनते हैं। घास व चारापत्ती भी इसी तरीके से लिया जाता है। गांव की प्रधान बंसती पुण्डीर का कहना है कि बुजुर्गों की परंपरा और समुदाय की भागीदारी के कारण यह संभव हुआ है। गर्मियों में फायर सीजन में ग्रामीण चौकन्ने हो जाते हैं आग लगने पर खुद आग बुझाने दौड़ पड़ते हैं। ::::

-माटी के मोल बिक रही पहाडिय़ां

(पौड़ी गढ़वाल)-अगर आपको कहा जाए कि उत्तराखंड में पहाडिय़ां बिक रही हैं तो क्या आप विश्वास करेंगे। खासकर तब, जबकि पलायन के कारण खाली होते पहाड़ी इलाके सरकार के लिए चिंता का बड़ा सबब हैं। यह सौ फीसदी सच है और इसका उदाहरण है पौड़ी गढ़वाल जिले में ब्रिटिश हुकूमत की ओर से बसाई गई पर्यटन नगरी लैंसडौन। इसके आसपास सड़क किनारे की जमीनें इन दिनों धनाड्यों के निशाने पर है, जो इन्हें माटी के मोल खरीद रहे हैं। पिछले दो वर्षों के दौरान लैंसडौन तहसील में दर्ज किए गए इस तरह के चार दर्जन मामले इस तथ्य की पुष्टि कर रहे हैं। पौड़ी गढ़वाल जिले में वर्ष 2008 से लेकर अब तक, यानि पिछले दो सालों में लैंसडौन-गुमखाल, लैंसडौन-दुगड्डा और दुगड्डा-रथुवाढाब मोटर मार्गों के इर्द-गिर्द 49 लोगों के जमीन खरीदने के आंकड़े राजस्व महकमे के पास उपलब्ध हैं। इन आंकड़ों के मुताबिक लैंसडौन में ही 4.67 हेक्टेयर जमीन के दाखिले खारिज किए जा चुके हैं। जमीन खरीदने वाले लोगों में कुछ बड़े नेता शामिल हैं तो कई व्यापारी भी इस फेहरिस्त का हिस्सा हैं। दरअसल, इस क्रम की शुरुआत हुई वर्ष 2005 में, जब लैंसडौन के निकट डेरियाखाल क्षेत्र में सड़क से सटे पहाड़ के एक टुकड़े को खरीदकर एक शानदार रिजार्ट का निर्माण किया गया। इससे अन्य लोगों का ध्यान भी इस क्षेत्र की जमीन की अहमियत की ओर गया। इसके बाद तो लैंसडौन के नजदीकी गांव डेरियाखाल से लेकर कोटद्वार मार्ग पर स्थित दुगड्डा तक सड़क किनारे की जमीनों की खरीद-फरोख्त में खासी तेजी आ गई। अब आलम यह है कि लैंसडौन को जोडऩे वाली सड़कों के किनारे किसी भी कीमत पर जमीन उपलब्ध नहीं है। राजस्व महकमे से प्राप्त जानकारी के मुताबिक डेरियाखाल में रिजार्ट निर्माण के बाद पंद्रह बीघा, समीपवर्ती गांव पालकोट में पच्चीस बीघा, लैंसडौन-गुमखाल मोटर मार्ग पर 45 बीघा और कोटद्वार-रथुवाढाब मार्ग पर लगभग 47 बीघा जमीन विभिन्न लोगों ने खरीदी है। इस चौंकाने वाले ट्रेंड को क्या कहें, अफसरों की मानें तो इसके कारण मामूली है, मगर सच यह है कि धनाड्यों को इन्वेस्टमेंट का यह सबसे सुरक्षित जरिया नजर आ रहा है। इस सब में स्थानीय जनता के हित दरकिनार, क्योंकि जमीनों के असल मालिक ग्रामीणों के हाथ महज मामूली रकम ही आ रही है। पौड़ी के जिलाधिकारी दिलीप जावलकर का कहना है कि कानूनी रूप से तो जमीनों की खरीद-फरोख्त नहीं रोकी जा सकती। अगर कहीं काश्तकार को धोखे में रखकर उसकी जमीन खरीदने का मामला सामने आता है तो जिला प्रशासन जांच के बाद जमीन के दाखिल खारिज को निरस्त कर देता है। रथुवाढाब क्षेत्र में इस तरह के दो-तीन मामलों में भूमि का दाखिल खारिज निरस्त किया भी गया है। लैैंसडौन के उपजिलाधिकारी एके पांडेय का कहना है कि लैंसडौन नगर में कैंट एक्ट की बाध्यता के कारण यहां लोगों को जमीन उपलब्ध नही हो पाती है, जबकि इस बीच पर्यटन नगरी में पर्यटन व्यवसाय तेजी से बढ़़ा है। इसलिए कैंट क्षेत्र से बाहरी इलाकों में जमीनें तेजी से लोगों द्वारा खरीदी जा रही है।

अब 'गोदान और 'कफन देववाणी में

अब 'गोदानÓ, 'कफनÓ और 'नमक का दारोगाÓ जैसी कालजयी कृतियां देववाणी संस्कृत भाषा में भी उपलब्ध हो सकेंगी। उत्तराखंड संंस्कृत अकादमी ने महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद की कृतियों को संस्कृत में अनुवाद करने की यह पहल की है। उत्तराखंड संस्कृत अकादमी संस्कृत और उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय संस्कृत को बढ़ावा देने के लिए यह अनूठी पहल कर रहे हैं। कथासम्राट मुंशी प्रेमचंद की अनूठी कहानियां अब संस्कृत में भी उपलब्ध हो सकेंगी। अभी तक मुंशी प्रेमचंद की कहानियों को कई भाषाओं में अनुवादित किया गया है, जिसके चलते देश-विदेश में प्रेमचंद की कहानियां लोगों तक पहुंची। आम जनमानस को केंद्र में रखकर लिखी गई कहानियों का ही असर है कि हर भाषा के लोगों ने प्रेमचंद की कहानियों को हाथों हाथ लिया। अब संस्कृत अकादमी भी प्रेमचंद की कहानियों को संस्कृत प्रेमियों तक पहुंचा रही है। अकादमी ने प्रेमचंद की प्रमुख कृतियों को लेकर अध्ययन शुरू कर दिया है। जल्द ही अनुवाद का कार्य शुरू कर दिया जाएगा। इसके लिए अकादमी में संस्कृत विशेषज्ञों की पूरी टीम गठित की है। टीम में शामिल डॉ. हरीश गुरुरानी का कहना है कि यह संस्कृत प्रेमियों के लिए एक अनोखा अनुभव होगा। उत्तराखंड संस्कृत अकादमी के सचिव डॉ. बु़द्धदेव शर्मा का कहना है कि कालजयी कथाकार मुंशी प्रेमचंद की कहानियां अपने आप में बेमिसाल हैं। अब अकादमी संस्कृत प्रेमियों को यह तोहफा देने जा रही है। इसके लिए टीम गठित की गई है और जल्द ही गोदान, कफन जैसी कालजयी कृतियां संस्कृत भाषा में भी उपलब्ध होंगी।

Wednesday 19 January 2011

प्रियांशु को मिलेगा वीरता पुरस्कार

बहन की खातिर गुलदार से लोहा लेने वाले प्रियांशु जोशी को 26 जनवरी की गणतंत्र दिवस परेड में प्रधानामंत्री के हाथों राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार प्रदान किया जाएगा। शुक्रवार को उत्तराखंड राज्य बाल कल्याण परिषद ने भी प्रियांशु को सम्मानित किया। शुक्रवार को रायपुर अंतर्गत अंबेडकर कॉलोनी स्थित बाल भवन में राज्य बाल कल्याण परिषद ने प्रियांशु का सम्मान किया। इस अवसर पर परिषद की महासचिव पुष्पा मानस ने उसे प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया। श्रीमती मानस ने बताया कि परिषद ने नियमानुसार स्थलीय जांच के बाद राष्ट्रीय वीरता पुरस्कार के लिए प्रियांशु का नाम भेजा था और बीते वर्ष एक दिसंबर को प्रियांशु को राष्ट्रपति वीरता पुरस्कार प्राप्त होने की सूचना मिली है। 26 जनवरी को प्रियांशु को प्रधानमंत्री द्वारा पुरस्कृत किया जाएगा। उसे राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति से मिलने का भी मौका मिलेगा। इस अवसर पर प्रियांशु ने कहा कि यदि उसका भविष्य में फिर कभी इस प्रकार की परिस्थितियों से सामना हुआ तो वह निश्चित तौर से मदद के लिए आगे आएगा। बकौल, प्रियांशु वह अपने पिता के नक्शे कदम पर चलकर सेना में भर्ती होना चाहता है। वह सेना में बतौर अफसर सेवाएं देना चाहता है। उसके पिता आरके जोशी ने बताया कि प्रियांशु पढ़ाई में भी होनहार है और आगे चलकर देश सेवा करना चाहता है। जब प्रियांशु ने दिखाई बहादुरी-केन्द्रीय विद्यालय आइएमए में कक्षा सातवीं के छात्र प्रियांशु ने एक जुलाई 2009 को अपनी बड़ी बहन प्रियंका को उस वक्त गुलदार के हमले से बचाया जा था जब दोनों स्कूल से वापस घर लौट रहे थे। प्रियांशु की बहन पर झपटने के बाद गुलदार ने उसे गंभीर रूप से जख्मी कर दिया। गुलदार के खौफ से बेपरवाह प्रियांशु ने गुलदार से टक्कर ली और प्रियंका को उसके कब्जे से मुक्त कराया था।

विश्व मंच पर पहचान दिलाने से गौरवान्वित उत्तराखंड

पहले दक्षिण एशियाई शीतकालीन खेल समाप्त होते ही आयोजकों के साथ ही उत्तराखंड सरकार राहत की सांस ले रही है, यह लाजिमी भी है। पहली बार किसी अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता की मेजबानी से गौरवान्वित उत्तराखंड को यह आयोजन विश्व मंच पर पहचान दिलाने के साथ ही कई सबक भी दे गया। सबक इस मायने में कि धरातल पर ठोस कार्य किए बिना हवाई किले बनाने से कुछ नहीं होता। यह सही है कि इतने बड़े स्तर पर खेलों के आयोजन का प्रदेश के पास पुराना अनुभव नहीं था। जाहिर है कि ऐसे में कुछ न कुछ खामियां रहनी लाजिमी थीं, लेकिन यदि थोड़ी सी सतर्कता बरती जाती तो खेल और भी बेहतर हो सकते थे। तीन-तीन बार टलने के चलते आयोजकों को तैयारी के लिए पर्याप्त समय मिला था। बावजूद इसके आयोजक समय का सदुपयोग करने से चूक गए। दिसम्बर के पहले सप्ताह तक निर्माण कार्यों को लेकर ही असमंजस की स्थिति बनी रही। बाद में सरकार के हस्तक्षेप से ही हालात में सुधरने शुरू हुए। इतना ही नहीं तैयारियों की कमान स्वयं मुख्यमंत्री को संभालनी पड़ी। उन्होंने खेल मंत्री को निगरानी की कमान सौंपी। बावजूद इसके व्यवस्थाओं को लेकर असंतोष बना ही रहा। कुछ मामलों में आयोजकों की अपरिपक्वता भी सामने आई। मसलन, अंतरराष्ट्रीय नियमों की सही जानकारी के बिना ही एक स्पर्धा आयोजित कर दी गई। नियमानुसार किसी भी स्पर्धा में कम से कम तीन खिलाडिय़ों का होना जरूरी है, लेकिन खिलाडिय़ों की कमी के कारण आनन-फानन में दो को लेकर ही काम चलाया गया। बाद में इसे इवेंट के रूप में मान्यता नहीं मिल पायी। इससे स्पर्धा में प्रतिभाग करने वाले स्कीयर्स भी नाराज दिखे। इनमें से एक श्रीलंका और एक हिमाचल प्रदेश की थी। दोनों को मेडल से वंचित होना पड़ा। मौसम की मेहरबानी भी परेशानी बन गई। भारी बर्फबारी के दौरान औली में फंसे दर्शकों और टीमों को निकालने के समुचित इंतजाम नहीं थे। नेपाल से आये दल भटकते हुए किसी तरह जोशीमठ तक पहुंच पाया। खैर, फिर भी जैसा भी रहा, अच्छा रहा। लेकिन अब सरकार का दायित्व है कि इसे एक सबक के तौर पर ले। जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों को कर्तव्य का जिम्मेदारी का बोध कराना भी सरकार को अपना फर्ज समझना होगा, तभी भविष्य में इस तरह के बड़े आयोजनों में फजीहत से बचा जा सकता है।

इस बार राजपथ पर नहीं दिखेगी उत्तराखंड की झांकी

गणतंत्र दिवस परेड में इस बार उत्तराखंड की झांकी देश की जनता को नजर नहीं आएगी। यह पहला अवसर है जब उत्तराखंड राजपथ से आउट हो गया है।उत्तराखंड सरकार ने राष्ट्रीय राजधानी की गणतंत्र दिवस परेड में शामिल करने के लिए पहले 'चार धामÓ थीम पर आधारित झांकी की पेशकश की थी। बाद में राज्य सरकार ने 'स्पर्श गंगाÓ थीम पर आधारित झांकी का प्रस्ताव भेजा। राज्य की थीम से गणतंत्र दिवस परेड आयोजन समिति संतुष्ट नहीं हुई और झांकियों की दोनों परिकल्पना को अस्वीकार कर दिया गया। महानिदेशक सूचना सुबद्र्धन ने पूछे जाने पर इसकी पुष्टि की। उन्होंने कहा कि गणतंत्र दिवस परेड के लिए चुनिंदा झांकियां ही स्वीकृत होती हैं। उत्तराखंड को लगातार इसका अवसर मिला लेकिन इस बार परेड में राज्य की झांकी शामिल नहीं होगी।

Wednesday 5 January 2011

वापस चाहिए आजादी के परवाने को दी जमीन

पेशावर कांड के नायक स्व.वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के परिजनों को थमाए बेदखली के नोटिस लीज की भूमि को दिया अतिक्रमणकारी करार नजीबाबाद,- गढ़वाल की शान व पेशावर कांड के महानायक 'वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनकी कुर्बानी का ऐसा हश्र होगा। यूपी सरकार ने आजादी के आंदोलन में कुर्बानी को देखते ही जो जमीन स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को लीज पर दी आज उसी सरकार के नुमाइंदों ने उनके परिवार को बेदखल करने का फरमान थमा दिया है। वन विभाग ने स्व.गढ़वाली को परिजनों को लीज की भूमि पर 'अतिक्रमणकारी करार दे दिया, जो भूमि स्वयं गढ़वाली को उनकी वीरता पर उत्तर प्रदेश सरकार के तत्कालीन राज्यपाल की संस्तुति पर लीज पर दी गई थी। 23 अप्रैल 1930 को पेशावर में सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खां के नेतृत्व में आजादी के लिए सड़कों पर उतरे निहत्थे पठानों के प्रदर्शन पर फिरंगी सेना के कैप्टन रिकेट ने गढ़वाली जवानों पर फायरिंग का आदेश दिया। इसे वीर चंद्र सिंह ने ठुकराकर अपने अदम्य साहस का परिचय दिया था। पठानों पर गोली चलाने से इंकार करते हुए अपने साथियों को 'गढ़वाली सीज फायर का हुक्म दिया, उससे ब्रितानिया साम्राज्य की चूलें हिल गईं। सेना में बगावत करने के जुर्म में वीरचंद्र सिंह गढ़वाली व उनके 61 साथियों को कठोर कारावास की सजा के साथ ही गढ़वाली की गांव दूधातोली पौड़ी में भूमि व मकान को कुर्क कर दिया गया। आजादी के आंदोलन में गढ़वाली कई बार जेल गए। इतना ही नहीं, टिहरी राजशाही के खिलाफ हुई जनक्रांति के साथ ही मजदूर-किसान आंदोलनों का भी उन्होंने नेतृत्व किया व जेल की सजा भुगती। आजादी के आंदोलन में गढ़वाली की अहम भूमिका को देखते हुए 1974 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा ने भाबर क्षेत्र के ग्राम हल्दूखाता नजीबाबाद क्षेत्र में पडऩे वाली करीब दस एकड़ भूमि 90 वर्ष की लीज पर श्री गढ़वाली को दे दी। शर्त यह है प्रत्येक 30 वर्ष में भूमि लीज को रिन्यूवल करना होगा। एक अक्टूबर 1979 को वीर चंद्र सिंह गढ़वाली इस दुनिया को अलविदा कह गए। इसके बाद स्व.गढ़वाली के पुत्र आनंद सिंह व खुशाल सिंह उक्त भूमि लीज हस्तांतरण अपने नाम कराने के लिए उत्तर प्रदेश वन विभाग के अफसरों की चौखटें नापते रहे। स्व.गढ़वाली के दोनों पुत्र भी दुनिया को अलविदा कर गए पर विभाग भूमि हस्तांतरण करने को आज भी राजी नहीं। भूमि हस्तांतरण नहीं हुआ तो वर्ष 2005 में लीज भी रिन्यूवल नहीं हो पाई। आज स्थिति यह है कि जिस व्यक्ति ने देश को स्वतंत्रता दिलाने के लिए अंग्रेजों से सीधा मोर्चा लिया, वन अधिकारियों ने उसी 'वीर के परिजनों के लिए 'अतिक्रमणकारी जैसे शब्द का प्रयोग करते हुए वन प्रभाग नजीबाबाद ने उन्हें लीज पर दी गई भूमि से 'बेदखली का नोटिस जारी कर दिया है। 15 दिन के भीतर जमीन खाली न करने पर पुलिस बल का प्रयोग कर खाली करने की चेतावनी दी गयी है। जिससे उनके परिजन काफी परेशान है। बेदखली के निर्देश उच्चाधिकारियों की ओर से दिए गए हैं। इसके बाद ही बिजनौर वन प्रभाग ने स्व.गढ़वाली के परिजनों को भूमि से हटने को कहा है। -रमेश चंद्र, डीएफओ, नजीबाबाद वनप्रभाग बिजनौर