Sunday 7 August 2011

ढोल बना उत्तराखंडी संस्कृति का संवाहक व , सामाजिक समरसता का अग्रदूत

पौड़ी -
ढोल सात समंदर पार संस्कृति के प्रसार का आधार ही नहीं बना, उसने सामाजिक वर्जनाएं तोड़कर एक नई मिसाल भी पेश की है। इसी ढोल की बदौलत सदियों से चली आ रही जड़ मान्यताएं रेत के टीले की तरह ढह गई और प्रतिष्ठित हुई एक नई परंपरा। जिसमें न तो बड़े-छोटे का भेद और न ऊंच-नीच का भाव। ओड्डा गांव के आंगन में एक ऐसा दृश्य साकार हो रहा है, जो रह-रहकर सोचने को विवश करता है कि रूढि़यों के लिए अब कोई जगह नहीं।


यह कोई कल्पना की उड़ान नहीं, बल्कि वह हकीकत है, जिसका साक्षी बना पौड़ी जनपद का ओड्डा गांव। शनिवार को यहां दिल्ली के उद्यमी डीएस रावत व अमेरिका की सिनसिनाटी यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर स्टीफन की पहल पर ऐसा अनूठा सामूहिक भोज हुआ, जिसने सदियों से चली आ रही वर्जनाओं को पलभर में तोड़ डाला। वसुधैव कुटुंबकम् के भाव से सभी जातियों के लोग इस भोज में जुटे और एक साथ एक ही पंगत में बैठकर भोजन किया। भोज में विदेशी मेहमान स्टीफन के साथ ही लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी एवं प्रीतम भरतवाण, भुवनेश्वर संस्कृत महाविद्यालय भुवनेश्वरी के अनुसूया प्रसाद संुद्रियाल, अनिल बिष्ट, उद्यमी डीएस रावत, डा.डीआर पुरोहित, मीरा मूर्ति स्टीफन, चंदन दास, गणेश दास, रामलाल, सोहन दास, सुखारू दास, दीपचंद की मौजूदगी बता रही थी कि जीवन में इससे सुखद कुछ नहीं।
संभवत: पहाड़ में यह ऐसा पहला ऐतिहासिक भोज था, जिसने बता दिया कि उद्देश्य पावन हो तो जड़ मान्यताओं को टूटते देर नहीं लगती। आयोजन का सुखद पहलू यह है कि ढोल ने इसकी बुनियाद तैयार की, जिसे वक्त के साथ हम हिकारतभरी नजरों से देखने लगे थे। इस ढोल ने साबित कर दिखाया कि वह उत्तराखंडी संस्कृति का संवाहक ही नहीं, सामाजिक समरसता का अग्रदूत भी है।

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