Sunday 21 August 2011

गढ़वाली-कुमाऊंनी को निजी विधेयक पेश

देहरादून,- गढ़वाल सांसद सतपाल महाराज ने शुक्रवार को लोकसभा में गढ़वाली और कुमाऊंनी भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने संबंधी निजी विधेयक पेश किया।
सांसद सतपाल महाराज ने कहा कि गढ़वाल क्षेत्र की प्राचीन भाषा वैदिकी थी। ऋषि-मुनियों ने इसी वैदिकी में संहिताएं लिखी हैं। करीब 500 ईसा पूर्व पणिनी ने इसका संस्कार किया और इसे व्याकरण के नियमों में बांधा। इसे वैदिक संस्कृति कहा गया। आगे चलकर वैदिक संस्कृत ने ही प्राकृत भाषा का रूप लिया। इसका प्रयोग कालिदास ने अपने नाटकों में किया। उन्होंने कहा कि द्वितीय प्राकृत भाषा के कई रूप शौरसेनी प्राकृत, पैशाची प्राकृत, महाराष्ट्री प्राकृत आदि बनीं। शौरसेनी अपभ्रंश से पश्चिमी हिंदी, राजस्थानी, गुजराती एवं मध्यवर्ती पहाड़ी समूह की भाषाएं उत्पन्न हुई। इसी समूह में गढ़वाली और कुमाऊंनी भाषाओं की उत्पत्ति हुई। इन्हीं के साथ पूर्वी पहाड़ी भाषा के रूप में नेपाली और पश्चिमी पहाड़ी के रूप में हिमाचली भाषा का जन्म हुआ। लौकिक संस्कृत पाली प्राकृत अपभ्रंश गढ़वाली के क्रम में गढ़वाली भाषा का विकास हुआ।
सांसद ने कहा कि पुराणों के अनुसाद स्वर और नाद का ज्ञान भगवान शिव के रुद्र रूप से देव ऋषि नारद को इसी देवभूमि में मिलने का वर्णन है। ढोलसागर में गुनीजन दास नाम औजी का बार-बार संबोधन होता है। जिसमें स्वर, ताल, लय, गमक का विस्तार से संवाद होता है। गुरु खेगदास का संबोधन आह्वान मंत्रोच्चारण में है। जागरों में अभीष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट निवारण के लिए देवता नाचने की प्रथा है। जागरों में ढोल दमौं, हुड़का, ढौंर, थाली वाद्य यंत्रों का विशेष महत्व है। उन्होंने उक्त दोनों लोक भाषाओं के पौराणिक-एतिहासिक महत्व को सामने रखा।

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