Thursday 21 July 2011

विलुप्त हो रही प्रजातियों की टटोल रहे नब्ज

विलुप्ति के अन्तिम कगार पर खड़ी चार वनस्पति प्रजातियां उत्तराखंड की

pahar- वैसे तो हर पौधे का पर्यावरण में अपना महत्व होता है, लेकिन जब पौधे औषधीय प्रयोग वाले हों तो उनकी उपयोगिता और बढ़ जाती है। चिंता की बात यह है कि उत्तराखंड में ऐसी चार पादप प्रजातियां अस्तित्व के गंभीर खतरे से जूझ रही हैं। यह खतरा ढाई दशक से इन्हें चपेट में ले रहा है। इनमें एक वनस्पति तो ऐसी है जो देशभर में सिर्फ उत्तराखंड में ही पाई जाती है। वन अनुसंधान संस्थान (एफआरआइ) के वैज्ञानिक यह पता लगाने में जुट गए हैं कि आखिर किन कारणों से यह पौधे एक-एक कर मर रहे हैं।
मुनस्यारी में पाए जाने वाले जरक (टेरिकॉर्पस टेरिल) के पौधे देशभर में सिर्फ इसी जगह पाए जाते हैं। यह सेहत के लिए मुफीद लोकल मठ्ठा बनाने के काम आता है। इसके पौधों की संख्या वर्ष 1985 से लगातार कम हो रही है। मोहंड देहरादून में पाई जाने वाली वनमूली (एरिमो सेटिक्स) भी विलुप्ति की कगार पर है। जौनसार में लगभग आठ हजार फीट की ऊंचाई पर उगने वाले खोरू (मैहूनिया जानसारासिस) की जड़ों से दवा बनाई जाती है। पिछले 10 सालों में इसकी संख्या में रिकार्ड गिरावट आई है। इसी तरह चंपावत का लोकल तेजपत्ता कहा जाने वाला सिनामोमम ग्लैंडुलिफेरम भी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। इस संकट को देखते हुए वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के आदेश पर एफआरआइ की बॉटनी डिविजन इन पौधों के जीवन पर आए संकट का अध्ययन कर रह रही है। डिविजन की कार्यवाह हेड डॉ. वीना चंद्र ने बताया कि स्थल पर जाकर विभिन्न पर्यावरणीय व पौधों से जुड़े अन्य पहलुओं का अध्ययन किया जा रहा है। समस्या पता लगते ही समाधान के प्रयास किए जाएंगे।

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