Saturday 30 April 2011

जौनसार बावर का बिस्सू मेला

बिस्सू का त्योहार उत्तराखंड के जौनसार बावर इलाके और हिमाचल प्रदेश के सिरमौर में बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। उल्लेखनीय है कि जौनसार बावर और सिरमौर के सांस्कृतिक महत्व की देश-दुनिया में पहचान है। यह पर्व हर साल 12 से 30 अप्रैल तक मनाया जाता है। इस उत्सव की तैयारी एक महीना पहले से ही होने लगती है। गांववासी अपने मकानों और गोशालाओं की लिपाई के लिए स्थानीय मिट्टी इकट्ठा करने लगते हैं। इस मिट्टी का लेप करने के बाद सफेद मिट्टी (गदिया/कमेड़ा) से पुताई की जाती हैं। बिस्सू के पहले दिन पारंपरिक हथियारों जैसे ढांगरा (फरसा), तलवार और धनुष-बाण को साफ करने की तैयारी की जाती हैं। इस त्योहार की खास विशेषता धनुष-बाण (ठोउड़ा) का प्रदर्शन है, जो लोगों के लिए खास आकर्षण का केंद्र रहता है। धनुष-बाण खेलने वाले कलाकारों को स्थानीय भाषा में ठोउड़ाय के नाम से पुकराते हैं। इस पर्व में विविध लोकनृत्य का आयोजन होता है और सामूहिक रूप से गीत भी गाए जाते हैं। इन गातों के लय व ताल के साथ गांव का सामूहिक आंगन (साजो आंगण) थिरक उठता है। जिस स्थान पर बिस्सू का त्योहार मनाया जाता हैं, वहां पर गोल समूह बनाकर तांद/हारुल जैसे ऐतिहासिक और पौराणिक गीत गाए जाते हैं। इस ठोउड़ा खेल में कौरव-पांडवों के समय की परंपरा के आधार पर अस्त्र-शस्त्र व तीर-कमान तैयार करना, उसका अभ्यास करना और योद्धाओं की प्रतिष्ठा को प्रमुखता देना होता है। ठोउड़ा खेलने वाले कलाकार दूसरे कलाकार पर बाण मारते हुए कहते हैं, जैथे लागों ली शाटो तैथे कइड़ी भी फाटों (यानी जहां पर मैं बाण मारता हूं, वहां पत्थर भी फट जाता है)। खेल में भाग लेने वाले कलाकार जो पोशाक धारण करते हैं, उसे जंगेल कहते हैं। इस खेल में सुरक्षा की दृष्टि से पांव में विशेष जूते पहने जाते हैं। इस खेल की एक विशेषता यह भी है कि इसमें हमउम्र कलाकार ही भाग लेते हैं। जहां यह खेल होता है, वहां दुकानें भी सजी रहती हैं। कहीं-कहीं पर बिस्सू के पहले दिन दूर जंगल से बुरांस के फूल लाने की परंपरा है, जिसे अगले दिन देवताओं को चढ़ाया जाता है। इस पर्व की इस इलाके में काफी मान्यता है। हालांकि गांवों से पलायन के कारण युवा पीढ़ी इस पारंपरिक त्योहार को अब उतनी अहमियत नहीं दे रही। इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि जिस कोटा क्वानू (चकराता) के प्रसिद्ध खिलाड़ी नैन सिंह राणा ने इस ठोउड़ा खेल में प्रसिद्धि पाई है, उस गांव में आज कोई युवा इस खेल में भाग लेने को उत्सुक नहीं दिखता। जबकि इस परंपरागत त्योहार को बचाने में युवाओं की महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए।

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