Saturday 19 February 2011
लोक के रंग में झूमेगा पर्यटन
राजस्थानी लोकगीत केसरिया बालम आओ नी, पधारो म्हारे देश के बोल कानों में पड़ते ही मरुभूमि की तस्वीर आंखों में तैरने लगती है। मन करता है दौड़कर वहां चले जाएं। जानते हो इसकी वजह क्या है। वजह है पर्यटन का लोक के रंग में रंग जाना। अब ऐसी ही तस्वीर उत्तराखंड में भी देखने को मिलेगी। हिमालय की कंदराओं से फूटने वाले लोक के सुरों पर सम्मोहित हो सैलानी देवभूमि में खिंचे चले आएंगे।
देखा जाए तो देवभूमि के जर्रे-जर्रे में पर्यटन के साथ लोक का रंग भी गहरे तक समाया हुआ है, लेकिन हम इसकी ब्रांडिंग करने में अब तक असफल ही रहे। प्रचार-प्रसार के नाम पर हर साल करोड़ों बहाने के बाद भी पर्यटन के क्षेत्र में ऐसा कुछ नहीं हुआ, जिस पर रस्क किया जा सके। पर्यटकों को खींचने का लोकगीतों से बेहतर माध्यम और क्या हो सकता है। यह बात हालांकि बहुत देर से संस्कृति महकमे की समझ में आई, लेकिन इस दिशा में हो रहे प्रयास बताते हैं कि देवभूमि के गीत-संगीत में पूरी दुनिया को खींच लेने की क्षमता है। बेडू पाको बारामासा के बोल केसरिया बालम से कहां कमतर हैं। आज सिर्फ हम कहते हैं, हिमालै का ऊंचा डाना, दूर मेरो गांव, रंगीलो गढ़वाल मेरो सजीलो कुमाऊं (हिमालय की ऊंची चोटियों के बीच सुदूर बसा मेरा गांव, कैसा रंगीला है मेरा गढ़वाल, कैसा सजीला है मेरा कुमाऊं)। कोशिशें परवान चढ़ीं तो कल यही बात देश-दुनिया से आने वाले सैलानियों की जुबां से भी सुनाई देगी।
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