Tuesday 30 November 2010

देवभूमि के 'सुर में पोलैंड की 'ताल

देहरादून- 'जब शब्द नहीं थे, तब इन्सान ने पत्थरों और लाठी-डंडों को टकराकर सुर उत्पन्न किए। इन्हीं सुरों पर उछल-कूदकर उसने अपने भावों की अभिव्यक्ति की। यही नृत्य का पहला स्वरूप था, जिसने बताया कि संगीत शब्दों के दायरे में कैद नहीं है। इसका अहसास मुझे अपने पोलैंड प्रवास के दौरान हुआ। देवभूमि के संगीत पर थिरकते पोलैंड के युवा। सचमुच मेरे लिए यह किसी सपने जैसा है। मेरे अपने उत्तराखंडी लोकनृत्य व गीत 'तांदीÓ और 'रासौÓ के बारे में नहीं जानते और परदेसी इनकी धुनों पर थिरक रहे हैं।Ó यह कहना है हाल ही में इंडो-पोलिश कल्चरल कमेटी की ओर से पोलैंड के क्राको शहर में आयोजित वर्कशॉप से भाग लेकर लौटे युवा उत्तराखंडी लोकगायक रजनीकांत सेमवाल का। बकौल रजनीकांत, 'क्राको में सिर्फ दो उत्तराखंडी मिले, लेकिन वहां के युवाओं ने हमारे गीत-संगीत को हाथोंहाथ लिया। 'तांदीÓ, 'रासौÓ, 'झुमैलोÓ, 'चोपतीÓ जैसे पहाड़ी नृत्यों की धुन पर वह जमकर थिरके। वे हिमालय के लोकजीवन को जानना चाहते थे। उसे करीब से महसूस करना चाहते थे। कई युवाओं ने कहा वे उत्तराखंड आएंगे।Ó रजनीकांत ने बताया कि जागीलांस्की यूनिवर्सिटी में यह वर्कशॉप हुई। एक-दूसरे की भाषा न जानने के बावजूद स्टूडेंट्स उनसे इस कदर घुल-मिल गए, मानो बरसों का परिचय हो। यह संभव हो पाया हमारे संगीत की वजह से। इंट्रोडक्शन अंग्रेजी में होता था और बाकी सब संगीत कह देता था। यह इसलिए भी संभव हो पाया, क्योंकि वह लोकगीतों में 'पॉपÓ, 'हिपॉपÓ व 'रीमिक्सÓ का प्रयोग करते हैं। इसकी वजह पूछने पर उन्होंने बताया कि हमारे युवा पब या डिस्को में दूसरी भाषाओं के गानों पर थिरक रहे हैं। यदि हम अपने गानों में मूल को छेड़े बिना ऐसे प्रयोग करें तो इस बहाने वह अपनी जड़ों से तो जुड़ पाएंगे। वह कहते हैं कि जब पोलैंड के युवाओं को उत्तराखंडी लोकधुनें थिरका सकती हैं तो हमें क्यों नहीं।- ::::

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