Tuesday 30 November 2010

पीसीएस (जे) के परीक्षा परिणाम घोषित

: राज्य लोक सेवा आयोग ने पीसीएस (जे) के परिणाम घोषित कर दिए। ऊधमसिंह नगर की रिंकी साहनी ने परीक्षा में पहला स्थान हासिल किया। मंगलवार को उत्तराखंड न्यायिक सेवा सिविल जज (पीसीएस-जे) की मुख्य परीक्षा -2009 का परिणाम घोषित किया गया। मंगलवार देर शाम घोषित हुए परीक्षा परिणाम में ऊधमसिंह नगर निवासी रिंकी साहनी पुत्री सुभाष साहनी ने सर्वोच्च स्थान हासिल किया। राजपुर रोड, देहरादून निवासी शिवानी पसबोला पुत्री महेश चंद्र ने दूसरा, इलाहाबाद निवासी रविप्रकाश पुत्र हरिशंकर शुक्ला ने तीसरा, सहारनपुर निवासी शहजाद अहमद वाहिद पुत्र इरफानुलहक ने चौथा, इलाहाबाद निवासी एकता मिश्रा पुत्री राजीव नयन मिश्रा ने पांचवा, न्यू रोड देहरादून निवासी राजीव धवन पुत्र रामनाथ धवन ने छठा और हरिद्वार ज्वालापुर निवासी मोहम्मद याकूब पुत्र शौकत अली ने सातवां स्थान हासिल किया। आयोग के सचिव कुंवर सिंह ने बताया कि प्रारंभिक परीक्षा में कुल 150 अभ्यर्थी शामिल हुए थे। इनमें से 13 अभ्यर्थियों को साक्षात्कार के लिए बुलाया गया था, जिसमें से सात अभ्यर्थियों का चयन किया गया। -

देवभूमि के 'सुर में पोलैंड की 'ताल

देहरादून- 'जब शब्द नहीं थे, तब इन्सान ने पत्थरों और लाठी-डंडों को टकराकर सुर उत्पन्न किए। इन्हीं सुरों पर उछल-कूदकर उसने अपने भावों की अभिव्यक्ति की। यही नृत्य का पहला स्वरूप था, जिसने बताया कि संगीत शब्दों के दायरे में कैद नहीं है। इसका अहसास मुझे अपने पोलैंड प्रवास के दौरान हुआ। देवभूमि के संगीत पर थिरकते पोलैंड के युवा। सचमुच मेरे लिए यह किसी सपने जैसा है। मेरे अपने उत्तराखंडी लोकनृत्य व गीत 'तांदीÓ और 'रासौÓ के बारे में नहीं जानते और परदेसी इनकी धुनों पर थिरक रहे हैं।Ó यह कहना है हाल ही में इंडो-पोलिश कल्चरल कमेटी की ओर से पोलैंड के क्राको शहर में आयोजित वर्कशॉप से भाग लेकर लौटे युवा उत्तराखंडी लोकगायक रजनीकांत सेमवाल का। बकौल रजनीकांत, 'क्राको में सिर्फ दो उत्तराखंडी मिले, लेकिन वहां के युवाओं ने हमारे गीत-संगीत को हाथोंहाथ लिया। 'तांदीÓ, 'रासौÓ, 'झुमैलोÓ, 'चोपतीÓ जैसे पहाड़ी नृत्यों की धुन पर वह जमकर थिरके। वे हिमालय के लोकजीवन को जानना चाहते थे। उसे करीब से महसूस करना चाहते थे। कई युवाओं ने कहा वे उत्तराखंड आएंगे।Ó रजनीकांत ने बताया कि जागीलांस्की यूनिवर्सिटी में यह वर्कशॉप हुई। एक-दूसरे की भाषा न जानने के बावजूद स्टूडेंट्स उनसे इस कदर घुल-मिल गए, मानो बरसों का परिचय हो। यह संभव हो पाया हमारे संगीत की वजह से। इंट्रोडक्शन अंग्रेजी में होता था और बाकी सब संगीत कह देता था। यह इसलिए भी संभव हो पाया, क्योंकि वह लोकगीतों में 'पॉपÓ, 'हिपॉपÓ व 'रीमिक्सÓ का प्रयोग करते हैं। इसकी वजह पूछने पर उन्होंने बताया कि हमारे युवा पब या डिस्को में दूसरी भाषाओं के गानों पर थिरक रहे हैं। यदि हम अपने गानों में मूल को छेड़े बिना ऐसे प्रयोग करें तो इस बहाने वह अपनी जड़ों से तो जुड़ पाएंगे। वह कहते हैं कि जब पोलैंड के युवाओं को उत्तराखंडी लोकधुनें थिरका सकती हैं तो हमें क्यों नहीं।- ::::

एक आंदोलन से नदी में बहने लगा पानी

हल्द्वानी। एक आंदोलन चिपको, जिसने हरियाली को बचा लिया। एक आंदोलन ‘नशा नहीं रोजगार दो’ जिसने बहुतों को पीना भुला दिया। एक आंदोलन उत्तराखंड राज्य आंदोलन, जिसने अपना राज्य दिला दिया। ऐसा ही एक और आंदोलन जिसने सूखी नदियों में पानी ला दिया। यह ऐसी तसवीर है जिसमें अपना उत्तराखंड देश में हो रहे जन आंदोलनों का अगवा दिखाई देता है। राज्य स्थापना के इस दशक में पानी के लिए मारामारी मची, तो उत्तराखंड ‘पानी बचाओ, नदी बचाओ’ की मुहिम में भी सबसे आगे निकल गया। प्रेरणा भले ही मध्यप्रदेश के‘नर्मादा बचाओ’ आंदोलन से मिली हो, लेकिन सबसे अधिक असर अल्मोड़ा की कोसी घाटी में हुआ। वर्ष 2007-2008 में कोसी से कुछ जागरूक लोगों के साथ पदयात्रा के रूप में चला यह आंदोलन आज पूरे उत्तराखंड में पानी की तरह फैल गया है। अल्मोड़ा की कोसी, मनसारी और लोध घाटी, चंपावत की पंचेश्वर, बागेश्वर की सरयू घाटी, पिथौरागढ़ की गोरी और काली के अलावा गढ़वाल के उत्तरकाशी, चमोली और पौड़ी में इस आंदोलन का व्यापक असर है। लाखों लोग गैर हिमालयी नदियों बचाने के लिए आगे आए हैं। प्रदेश की 27.5 प्रतिशत कृषि भूमि को सिंचित करने वाली गैर हिमालयी नदियों को बचाने की यह अनूठी पहल है। ध्यान रहे कि इन छोटी नदियों से ही इस पहाड़ी राज्य का अस्तित्व है, वरन बड़ी नदियां तो हमेशा महानगरों के ही काम आईं हैं। हमेशा की ही तरह इस आंदोलन में भी जान महिलाओं ने ही फूंकी है। सैकड़ों महिला संगठन इस पर काम कर रहे हैं। कौसानी की तीन घाटियों में 200 से अधिक महिला संगठनों में हजारों महिलाएं चाल-खालों को बचाने में जुटी हैं। मेहनत रंग भी लाई है। गत गर्मियों में पानी के लिए भटकने वाले कोसी घाटी के करीब दो लाख लोगों को इस बार मशक्कत नहीं करनी पड़ी। कत्यूर घाटी के गोमती और गरुड़ गंगा ठ्ठके किनारे बसे कई गांवों के 25 हजार लोग इस आंदोलन के बाद अब अपनी गैर हिमालयी नदियों को बचाने निकल पड़े हैं। कभी वन विभाग से खुन्नस खाए लोग, आज विभाग के सहयोग से चाल-खाल बना रहे हैं। आंदोलन से प्रेरणा लेते हुए गगास में 300 से 500 तक चालें विकसित हो चुकी हैं। इस दशक की इससे बड़ी उपलब्धी और क्या हो सकती है कि हम अब तक दो बार देश की प्रमुख 44 नदियों को बचाने के लिए मेजबानी कर चुके हैं। इसी मंथन के निचोड़ से निकला पानी सूख चुकी उत्तराखंड की 28 गैर हिमालयी नदियों में बह रहा है। गत दिनों हुई झमाझम बरसात इंद्रदेव का आशीर्वाद बनकर बरसी। नदियों रीचार्ज हुईं तो, लोगों को समुचित पानी भी उपलब्ध हो पा रहा है। क असर -

Thursday 25 November 2010

जिन्हें पहाड़ के नैसर्गिक सौंदर्य ने किया अभिभूत

नैनीताल/भीमताल/रानीखेत। रोजगार और सुविधाओं की तलाश में भले ही पहाड़ से बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा हो लेकिन इन शांत वादियों में देश के नामचीन लोगों का मन खूब रम रहा है। देश के राजनेताओं से लेकर उद्योगपतियों तक पर पहाड़ के सौंदर्य का जादू चल पड़ा है। कई बड़ी हस्तियों ने भूमि की खरीद-फरोख्त के साथ यहां अपने आशियाने भी बना लिए हैं। नैनीताल और इसके आसपास के पिकनिक स्पॉट हों या फिर रानीखेत और मजखाली, यहां साल भर सैलानियों का जमघट रहता है। इनमें से कई ऐसे लोग भी हैं जिन्हें पहाड़ के नैसर्गिक सौंदर्य ने इतना अभिभूत किया कि उन्होंने साल में कुछ दिन शांति और सुकून से बिताने के लिए यहीं अपना आशियाना बना लिया। दिल्ली और मुंबई में रहने वाले यह लोग अब पहाड़ की धरती से भी जुड़ चुके हैं। देश के पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल, पूर्व केंद्रीय मंत्री स्व. माधव राव सिंधिया और उनके परिजनों के अलावा आजमगढ़ के पूर्व सांसद अकबर अहमद डम्पी ने रामगढ़ में, पूर्व मिस इंडिया नफीसा अली, आईएफएस अधिकारी पीके भुटियानी ने भक्त्यूड़ा गांव में, तीरूबाला एक्सपोर्ट कंपनी के चेयरमैन टी अग्रवाल ने सनीलेक भक्त्यूड़ा में, सेवानिवृत्त एडमिरल सुशील कुमार ने गोलूधार मेहरागांव में, उद्योगपति रेखा खेतान ने श्यामखेत, पदमश्री डा. यशोधर मठपाल ने खुटानी भीमताल में, साहित्यकार प्रो. दयानंद ने श्यामखेत, पूर्व क्रिकेटर मनोज प्रभाकर ने जंगलियागांव (भीमताल) में, नंदा एस्काट की प्रमुख सीता नंदा, दिल्ली के प्रसिद्ध बत्रा हास्पिटल के स्वामी एलएम बत्रा और कपूर लेम्प्स के स्वामी ने श्यामखेत में, दिल्ली की प्रसिद्ध इंटीरियर डेकोरेटर पायल कपूर ने फरसौली में और शास्त्रीय गायिका शुभा मुदगल के परिजनों ने नौकुचियाताल में अचल संपत्ति जुटाई है। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी गर्मियों में एक-दो दिन के लिए रामगढ़ की वादियों में पहुंचती हैं। इनमें से अधिकांश लोग यहां बंगले और कोठियां भी बनवा चुके हैं। इसी तरह महाराजा कर्णसिंह और उनके बहनोई महाराजा ओमकार सिंह मजखाली के दिगोटी गांव में पूर्व राजदूत हर्षवर्धन सिंह मनराल मजखाली, एसएसबी के पूर्व महानिदेशक तिलक काक रानीखेत, भारत सरकार के पूर्व वित्त सचिव एसपी शुक्ला द्वारसौं गांव में कोठी बनवाकर रह रहे हैं। इनमें से कुछ तो अधिकतर समय यहीं रहते हैं लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो सिर्फ गर्मियां यहां बिताते हैं। शेष समय उनके बंगलों और भूमि की देखरेख केयरटेकर करते हैं। पूर्व पीएम इंद्र कुमार गुजराल, मिस इंडिया नफीसा अली, पूर्वक्रिकेटर मनोज प्रभाकर, शास्त्रीय गायिका शुभा मुदगल के परिजनों की भी है यहां संपत्ति-

हिमालय की नब्ज है उत्तराखंड

: उत्तराखंड हिमालय की ऐसी नब्ज है, जिसे टटोलकर पूरे हिमालय का हालचाल जाना जा सकता है। यहां न सिर्फ अन्य हिमालयी राज्यों से अधिक हिमनद है, बल्कि संरक्षित वन क्षेत्र का दायरा भी सबसे अधिक है। जमीन की संवेदनशीलता ऐसी कि जरा सा भूस्खलन यहां तबाही ला देता है। हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान के आंकड़े बताते हैं कि यदि राज्य के प्राकृतिक संसाधनों से अत्यधिक छेड़छाड़ किया गया तो इसका असर पूरे देश में दिखेगा। दून में चल रहे 'हिमालय नीतिÓ जन संवाद में हिमालयी पर्यावरण शिक्षा संस्थान ने 11 हिमालयी राज्यों के प्राकृतिक संसाधनों के आंकड़ों को सामने रखा। जिसमें पता चलता है कि उत्तराखंड हर लिहाज से महत्वपूर्ण है और संवेदनशील भी। हिमालय के महत्वर्ण 26 ग्लेशियरों में 11 हिमनद सिर्फ इस राज्य में है। प्रदेश में राष्ट्रीय पार्क, वाइल्ड लाइफ सेंचुरी व संवेदनशील वनक्षेत्र भी अन्य राज्यों के मुकाबले अधिक हैं। भूस्खलन की बड़ी घटनाएं सबसे अधिक बार उत्तराखंड में घटी हैं। यानि राज्य का पर्यावरण काफी संवेदनशील है। हिमालयी शिक्षा संस्थान के विशेषज्ञ व नदी बचाओ आंदोलन से जुड़े सुरेश भाई का कहना है कि जारी किए गए आकंड़े राज्य के जल, जंगल और जमीन की कहानी बताने के लिए काफी हैं। मैग्सेसे पुरस्कार विजेता राजेंद्र सिंह भी मानते हैं कि राज्य में ऐसी कोई भी परियोजना नहीं चलाई जानी चाहिए, जिससे यहां के पर्यावरण को नुकसान पहुंचे। क्योंकि उत्तराखंड हिमालय के बड़े हिस्से में बसा है। उत्तराखंड के ग्लेशियर नॉर्थ नंदा देवी (19कमी), साउथ नंदा देवी (15किमी), त्रिशूल (15किमी), गंगोत्री (30किमी), डॉकरैनी (05किमी), चोरबारी (07किमी), गंगोत्री (19किमी), चैखंबा (12किमी), सतोपंथ (13किमी), पिंडारी (08किमी), मिलम (19किमी)। :::: दस साल का उत्तराखंड उत्तराखंड अब दस साल का हो गया है। किसी राज्य के लिए एक दशक इतना बड़ा अरसा नहीं है कि कोई फैसला दिया जा सके, हां! उसकी दिशा और दशा का अंदाजा जरूर लगाया जा सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में पीछे मुड़कर देखें तो सब कुछ आशानुरूप भले न हुआ हो, लेकिन निराशाजनक भी नहीं कहा जा सकता। श्रीनगर में मेडिकल कॉलेज शुरू हुआ और गरीब बच्चे भी डॉक्टर बनने का सपना देखने लगे। मात्र 15 हजार रुपये फीस रख सरकार ने गरीबों के लिए मेडिकल की पढ़ाई को सुगम बनाया। प्रदेश में 108 एम्बूलेंस सेवा शुरू कर स्वास्थ्य सुविधाओं के क्षेत्र में प्रभावी पहल की गई। औद्योगिक विकास को मिली गति भी राज्य के लिए छोटी उपलब्धि नहीं है। इससे भी आगे पर्यावरण संरक्षण में अग्रणीय भूमिका निभा उत्तराखंड ने विश्व मंच पर अपनी अहमियत सिद्ध कर दी है। इस वर्ष आयोजित महाकुंभ के सफल संचालन के बाद अब कोई शुबहा नहीं कि बड़े आयोजनों के प्रबंधन में भी नए राज्य का कोई सानी नहीं है। बावजूद इसके उल्लास के पलों पर उदासी ज्यादा हावी रही। दुनिया की आधुनिक और अस्थिर पर्वत शृंखला हिमालय की गोद में बसे नए राज्य का मिजाज भी उतना ही डांवाडोल रहा, जितनी यहां की भूगर्भीय गतिविधियां। फिर चाहे मिजाज राजनीति का हो या कुदरत का। कुदरत को तो कंट्रोल नहीं किया जा सकता, लेकिन उसके प्रभाव को न्यून करना असंभव नहीं। इसके लिए सर्वाधिक आवश्यकता है आपसी सहयोग की। यह सहयोग चाहिए राजनीति में, कर्मचारियों और आम जनता में। दस साल में पांच मुख्यमंत्री देख चुके शिशु राज्य को राजनीतिक स्थिरता की जरूरत ज्यादा है। तभी जिन सपनों की नींव पर उत्तराखंड की इमारत खड़ी की जा रही है, वह बुलंदी पर पहुंच पाएगी। इसकी जिम्मेदारी न अकेले नेताओं पर है और न ही अफसरों या कर्मचारियों पर। यह दायित्व सबका है। यह ठीक है दस साल की उम्र परिपक्व होने की नहीं है, लेकिन अपने भले बुरे के पहचान की तो है। अब समय आ गया है कि बीती ताहि बिसारने की बजाए उससे सबक ले आगे की सुध ली जाए। आओ हम मुठ्ठी बंद कर देश-दुनिया को अपनी ताकत का अहसास कराएं। -

उत्तराखंड में साहित्यकार की आस

= यह वही उत्तराखंड है, जिसने खड़ी बोली हिंदी का पहला कवि गुमानी पंत, पहला गद्यकार पंडित नैन सिंह रावत, पहला डी. लिट्. पीतांबर दत्त बड़थ्वाल, पहला व्याकरणाचार्य किशोरीदास वाजपेयी, पहाड़ी शैली का पहला चित्रकार मौलाराम तोमर, संस्कृत का अपराजेय शास्त्री विश्वेश्वर पांडे, भारत में सोप ऑपेरा का आविष्कारक मनोहरश्याम जोशी, पहला एकांकीकार गोविंद बल्लभ पंत, प्रकृति के कवि सुमित्रानंदन पंत और चंद्रकुमार बर्त्वाल, मनोविज्ञान का कथा-चितेरा इलाचंद्र जोशी, स्वप्नकथा को हिंदी में जोड़ने वाला रमाप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ और फिर आधुनिक कहानी को दिशा देने वाले शैलेश मटियानी, शिवानी, विद्यासागर नौटियाल, शेखर जोशी, हिमांशु जोशी, पानू खोलिया, पंकज बिष्ट, मृणाल पांडे और मोहन थपलियाल जैसे रचानाकार दिए हैं। - हम भारतीयों के जीवन में घटनाएं अब एक सामान्य सूचना भी नहीं रह गई हैं। अखबार में खबर पढ़ते हैं, मगर दूसरे ही पल घटना मन से उसी तरह गायब हो जाती है, जैसे रसोई में आकर बिल्ली दूध चट कर जाए, और हम उसे डंडा मारकर अपने मन का गुबार भी न निकाल पाएं। साहित्यिक पत्रिका ‘वसुधा’ में वरिष्ठ साहित्यकार चंद्रकांत देवताले का पत्र छपा है, जिसमें उन्होंने जयपुर की एक घटना का जिक्र किया है कि कैसे अलवर के जिलाधिकारी कुंजीलाल मीणा ने हरिशंकर परसाई की कहानी ‘भोलाराम का जीव’ को अपने सभी अधीनस्थ कार्यालयों को भेजकर भ्रष्टाचार को खत्म करने का बीड़ा उठाया और वे उसमें काफी हद तक सफल रहे। हुआ यह कि अलवर के एक नागरिक की पेंशन का पैसा लाख कोशिशों के बाद भी नहीं मिल पाया, तो उसने अपने आवेदन के साथ हरिशंकर परसाई की कहानी ‘भोलाराम का जीव’ जिला कलेक्टर को भेज दिया। मीणा ने जिले के सभी विभागों को इस कहानी की फोटो प्रतियां भिजवाईं और साथ में पत्र भेजा कि हर विभाग के अधिकारियों और बाबुओं को यह कहानी पढ़नी होगी। तसवीर का एक पहलू यह है। दूसरा पहलू उत्तराखंड की नौकरशाही और सरकार की मिलीभगत का है। वर्ष 2003 में सरकार ने प्रदेश के लेखकों, कलाकारों को एकजुट करने के लिए एक पहल की थी, ‘साहित्य, कला और संस्कृति परिषद’ के रूप में। उस वक्त प्रदेश के मुख्य सचिव हमारे सहपाठी थे, रघुनंदन सिंह टोलिया। 1964-65 में नैनीताल के डीएसबी कॉलेज में हमने तत्कालीन प्रिंसिपल डॉ. डी. डी. पंत के नेतृत्व में ऐसी ही प्रतिभाओं का एक संगठन बनाया, ‘द क्रेंक्स’। डी. डी. पंत ने बाद में ‘उत्तराखंड क्रांति दल’ (यूकेडी) को जन्म दिया और टोलिया ने राज्य बनने के बाद प्रदेश के चुनींदा कला-प्रेमियों को एक मंच पर जोड़कर उत्तराखंड की साहित्य और संस्कृति अकादमियों की आधारशिला रखी। इस अकादमी में एक ही मंच पर थे, वरिष्ठ रचनाकार रस्किन बांड और विद्यासागर नौटियाल, कवि लीलाधर जगूड़ी, लोक गायक नरेंद्र सिंह नेगी और रतन सिंह जौनसारी, इतिहासकार शेखर पाठक, रंगकर्मी जहूर आलम और डी. आर. पुरोहित, पुरावेत्ता यशोधर मठपाल, संस्कृतिकर्मी शेर सिंह पांगती और नंद किशोर हटवाल और दो दर्जन से अधिक अनेक दूसरे लोग। सन् 2007 में प्रदेश की दूसरी लोकप्रिय सरकार ने सत्ता संभालते ही पहला काम यह किया कि लेखकों, संस्कृतिकर्मियों और बुद्धिजीवियों के इन दोनों संगठनों को एक फालतू वस्तु की तरह उत्तराखंड की सीमा से इतनी दूर फेंक दिया कि वे हिमाचल-उत्तर प्रदेश की सीमा से इस ओर झांक भी न सकें। यूकेडी को पूरी तरह निचोड़ कर उसके सत्व से अपना पेट भरा और टोलिया के सपनों को ऐसा निचोड़ा कि उसका कतरा भी उत्तराखंड में नहीं बचा रह सके। यह वही उत्तराखंड है, जिसने खड़ी बोली हिंदी का पहला कवि गुमानी पंत, पहला गद्यकार पंडित नैन सिंह रावत, पहला डी. लिट्. पीतांबर दत्त बड़थ्वाल, पहला व्याकरणाचार्य किशोरीदास वाजपेयी, पहाड़ी शैली का पहला चित्रकार मौलाराम तोमर, संस्कृत का अपराजेय शास्त्री विश्वेश्वर पांडे, भारत में सोप ऑपेरा का आविष्कारक मनोहरश्याम जोशी, पहला एकांकीकार गोविंद बल्लभ पंत, प्रकृति के कवि सुमित्रानंदन पंत और चंद्रकुमार बर्त्वाल, मनोविज्ञान का कथा-चितेरा इलाचंद्र जोशी, स्वप्नकथा को हिंदी में जोड़ने वाला रमाप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ और फिर आधुनिक कहानी को दिशा देने वाले शैलेश मटियानी, शिवानी, विद्यासागर नौटियाल, शेखर जोशी, हिमांशु जोशी, पानू खोलिया, पंकज बिष्ट, मृणाल पांडे और मोहन थपलियाल जैसे रचानाकार दिए हैं। साहित्य का मंच भी उत्तराखंड में मौजूद है, हिंदी की पहली कवयित्री महादेवी वर्मा के रामगढ़ वाले घर के रूप में। दुर्भाग्य से इसे भी नष्ट करने में सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी। पहले इसके निदेशक के विरुद्ध जांच कमेटी बिठाई, कुछ हाथ नहीं लगा तो निदेशक की उम्र और योग्यता के लिए ऐसे नियम बनाए कि कोई आवेदन न कर सके। सरकारें तो सभी राज्यों में कमोबेश एक जैसी हैं, मगर नौकरशाही से निवेदन है कि उत्तराखंड के विन्यास में वे अलवर के कलेक्टर कुंजीलाल मीणा से सबक लें। वैसे मीणा तक जाने की भी जरूरत नहीं है। उनके पास तो टोलिया मौजूद हैं और वे शुरूआत कर ही चुके हैं। -

उत्तराखंड की लोक संस्कृति,

उत्तराखंड की लोक संस्कृति, जन मानस, पहाड़, नदी, बुग्याल जन जीवन को गहरे से समझना हो तो नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों से अच्छा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। लोक संगीत के क्षेत्र में नेगी का सफर छत्तीस सालों का है। नेगी लोकगायक हैं। गीतकार हैं। साहित्यकार हैं और संस्कृतिकर्मी हैं। उन्हें उत्तराखंड का प्रतिनिधि कलाकार कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी। उत्तराखंड की मिट्टी पर केंद्रित उनके तमाम गीत पर्वतीय जनमानस में भीतर तक बसे हैं। नेगी साहित्य और कला परिषद के सदस्य रह चुके हैं। तमाम अवार्ड उनके नाम हैं। लोक भाषा साहित्य संस्थान के बतौर अध्यक्ष भी वह सक्रियता से काम कर रहे हैं। उत्तराखंड के दस सालों में लोक संस्कृति की क्या दशा-दिशा रही है। उन्हीं की जुबानी। राज्य बनने से पहले यहां की लोक संस्कृति, उससे जुड़े तमाम पहलुओं पर राजनीतिक नेतृत्व की कमजोर इच्छा शक्ति दिखाई पड़ती थी। लोक संस्कृति का विषय उसे सड़क, बिजली पानी के आगे गौण लगता था। मगर अब सोच में बदलाव आ रहा है -नरेंद्र सिंह नेगी, लोक गायक लोक संस्कृति पर संजीदा हो रहा नेतृत्व उत्तराखंड की लोक संस्कृति के संबंध में शुभ संकेत महसूस किए जा रहे हैं। हर नए राज्य में ऐसा होता है। बहुत पुरानी बात नहीं है, हमें याद है कोई हमसे पूछता था कि आप कहां से हैं, तो जवाब होता था देहरादून। अपने गांव कसबे का परिचय देने में हमें हिचक महसूस होती थी। मगर अब हम सीधे अपने गांव कस्बे के नाम पर आते हैं। उत्तराखंडी कहलाने में अब हमें कोई हिचक नहीं है। मैं अपनी बात कहता हूं। जब हमने गाना शुरू किया तो उस वक्त लोग गढ़वाली की जगह तुरंत ही हिंदी गाने के लिए कह देते थे। आज विदेशों से गढ़वाली, कुमाऊंनी गानों के लिए हमें बुलाया जा रहा है। हमारे शो में लोग टिकट लेकर आते हैं। काफी पहले मोहन उप्रेती अपनी टीम के साथ विदेश जाते थे। दिल्ली उनके लिए प्लेटफार्म बनती थी। मगर आज पौड़ी, मसूरी, टिहरी से कलाकार विदेश जा रहे हैं। ये बदली हुई स्थिति राज्य बनने के कारण है। हमने खुद को उत्तराखंडी मानना शुरू किया है, तो मार्केट पर भी इसका असर दिख रहा है। यहां के लोक कलाकारों को काम मिलने लगा है। आडियो-वीडियो के बाजार में तेजी आई है। सबसे बड़ी बात पर मैं आना चाहूंगा। राज्य बनने से पहले यहां की लोक संस्कृति, उससे जुड़े तमाम पहलुओं पर राजनीतिक नेतृत्व की कमजोर इच्छा शक्ति दिखाई पड़ती थी। लोक संस्कृति का विषय उसे सड़क, बिजली पानी के आगे गौण लगता था। मगर अब सोच में बदलाव आ रहा है। राजनीतिक नेतृत्व की बदली मन:स्थिति को दो उदाहरणों के साथ बताना चाहूंगा। एक, निशंक सरकार ने गढ़वाली और कुमाऊंनी को लोकभाषा का दर्जा दिलाने के लिए संकल्प पारित कर केंद्र सरकार को भेजा है। यह बड़ी बात है। दूसरा, संसद में गढ़वाली और कुमाऊंनी को राजभाषा का दर्जा देने के संबंध में गढ़वाल के सांसद सतपाल महाराज की ओर से उठाई गई आवाज। मेरा मानना है कि प्राइमरी स्कूलों के पाठ्यक्रमों में गढ़वाली और कुमाऊंनी भाषाओं को रखा जाना चाहिए। जिस तरह से यहां भाषा और संस्कृत एकेडमी बनाई गई है, उसी तरह लोकभाषा एकेडमी भी बने। लोक संस्कृति की मजबूती के लिए काम होंगे। साहित्य एकेडमी में जो 24 भाषाएं सूचीबद्ध हैं, उनमें 17वें नंबर पर गढ़वाली और 18वें पर कुमाऊंनी हैं। राजनीतिक नेतृत्व और पब्लिक का पूरा दबाव बना तो दोनों को राजभाषा बनने में देरी नहीं लगेगी। एनडी तिवारी सरकार ने साहित्य और कला परिषद, फिल्म परिषद का गठन कर सराहनीय कार्य किया था। हालांकि खास काम नहीं हो पाया। इन दोनों पर ही काम आगे बढ़ना चाहिए। तभी क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों के लिए संभावनाएं बन पाएंगी। -