Wednesday 25 August 2010

जनगीतों में हमेशा जिंदा रहेंगे जनकवि गिर्दा

फक्कड़ी की मिसाल थे गिरीश तिवारी गिर्दा अल्मोड़ा-कवि कभी मरता नहीं है। गिर्दा बाबा नागार्जुन की फक्कड़ी परंपरा के ऐसे जनकवि थे, जिन्होंने हर दबे-कुचले, पीडि़त जन की पीड़ा को शब्द स्वर देकर उजागर किया। उत्तराखण्ड के किसी भी इलाके में किसी गरीब पर अत्याचार हो रहा हो या कहीं संघर्ष की बात हो, उसको भी मुखर स्वर देकर बेबाक जनकवि की भूमिका में सत्ता के खिलाफ सीना ताने खड़े हो जाते थे। गिरीश तिवारी गिर्दा की प्रारंभिक शिक्षा अल्मोड़ा के जीआईसी में हुई। गिर्दा ने लिखने की शुरुआत हिंदी गीत, गजल व कविताओं से की। कुमाऊंनी में लिखने की प्रेरणा उन्हें जीआईसी में उनके गुरु रहे चारु चन्द्र पांडे से मिली। चिपको आंदोलन के दौरान उनका जनगीत-आज हिमाला तुमनकैं धत्यों छ जागो-जागो ओ मेरा लाल, नि करि दी हलो हमरि निलामी, नि करि दि हलो हमरो हलाल- कुमाऊं ही नहीं पूरे उत्तराखण्ड में आंदोलनकारियों के मुंह से निकलता था। यही नहीं मौजूदा व्यवस्था में गैर बराबरी के खिलाफ उनके तेवर बहुत ही बागी रहते थे। बल्ली सिंह चीमा की कविता गिर्दा अक्सर आंदोलनों में गाते थे-ले मशाले चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के, अब अंधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के। वहीं उनकी कुमाऊंनी रचना आंदोलनकारियों को इस प्रकार शक्ति देती थी-हम ओड़, बारुडि़, ल्वार, कुल्ली कभाडि़ जै दिना य दूनिथैं हिसाब ल्यूलों। एक हांग निमांगू, एक फांग निमांगू, सारि खसरा खतौनि किताब ल्यूंलौ। राज्य आंदोलन के दौरान उत्तराखण्ड का कोई ऐसा कोना नहीं बचा, जहां गिर्दा के इस गीत के बोल न गूंजे हों-कस होलो उत्तराखण्ड कस हमार नेता, कसि होलि विकास नीति, कसि होलि व्यवस्था। यही नहीं गिर्दा की रचनाओं में जहां आग दिखाई देती है, वहीं जीवन दर्शन का फलक इतना व्यापक है कि उनकी छोटी सी कविता विश्व का फैलाव ले लेती है। प्रकृति व गांव के जनजीवन को भी उन्होंने शब्दों से ऐसे बुना कि गांव की सांझ सामने खड़ी हो गई-सावनि सांझ अकाश खुला है ओ हो रे ओ दिगोलालि, गीली है लकड़ी की गीला धुआं है, मुश्किल से आमा का चूला जला है। गिर्दा ने हमेशा आशा और विश्वास को अपने गीतों के माध्यम से बोया। बेहतर भविष्य के प्रति हमेशा आशावान रहे। यही कारण है कि उनके गीत हमेशा जीवन का संदेश देते थे।

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