Thursday 10 June 2010

-धान की रोपाई अनुष्ठान है यहां

-पंचांग से निकाला जाता है रोपाई के लिए दिन -समापन पर दी जाती है बकरे की बलि नई टिहरी- धान की रोपाई का तरीका देश में एक जैसा है। कई स्थानों पर इसे पूजा-अर्चना के साथ किया जाता है। उत्तराखंड राज्य के टिहरी जनपद के मलेथा में पंचांग के मुताबिक धान रोपाई के लिए विधिवत ढंग से दिन निकाला जाता है और समापन पर पशु बलि दी जाती है। कीर्तिनगर ब्लाक मुख्यालय से महज तीन किमी दूरी पर ऋषिकेश-बदरीनाथ मोटर मार्ग पर बसा हैे गांव मलेथा। वीर शिरोमणि माधो सिंह भंडारी की कर्म स्थली मलेथा में पिछले कई सदियों से धान की रोपाई अपने आप मिसाल है। इस गांव में वर्षों से यह परंपरा है कि धान की रोपाई से पूर्व ग्रामीण गांव की राशि के आधार पर पंचांग से रोपाई शुरू करने के लिए दिन निकालते हैं। नागराजा देवता को मानने वाले मलेथावासी दिन निकल आने पर सबसे पहले एक खेत में नागराजा देवता की सामूहिक रूप से पूजा अर्चना के साथ रोपाई का श्रीगणेश करते हैं। परंपरा बनी हुई है कि इस खेत में रोपाई के बाद ग्रामीण फिर अपने-अपने खेतों में रोपाई का काम प्रारंभ करते हैं। इसके बाद पाटा का बौलू नामक तोक में स्थित गांव के अंतिम खेत में रोपाई के दिन समापन पर बकरे की बलि देने के बाद रोपाई का विधिवत ढंग से समापन किया जाता है। बुजुर्गों के अनुसार मलेथा गांव में एक समय में सिंचाई का कोई विकल्प न होने पर यहां पर माधो सिंह भंडारी ने छेंडाधार के पहाड़ पर सुरंग गूल बनाकर चन्द्रभागा नदी से मलेथा के खेतों में पानी लाने की व्यवस्था सोची। इसके बाद उन्होंने पहाड़ को खोदकर अंदर ही अंदर गूल (सिंचाई की छोटी नहर) बनाने में सफलता भी हासिल कर ली, लेकिन इसके बाद भी इस गूल में पानी नहीं आया। ग्रामीणों में मान्यता है कि जब भंडारी द्वारा बनाई गई गूल में पानी नहीं आया तो एक रात माधो सिंह के सपने में देवी मां आई और बताया कि जब तक वह नरबलि नहीं देंगे तब तक गूल में पानी आगे नहीं बढ़ेगा। कहा जाता है कि देवी मां के इस संदेश के बाद भंडारी ने जहां से गूल शुरू होती है वहां पर अपने बेटे की बलि दी थी। बताया जाता है कि आज जिस खेत में ग्रामीण रोपाई का समापन करते हैं उसी खेत में बलि के बाद भंडारी के बेटे का सिर पानी में बहकर आया था। इसके बाद ही समापन पर तब से अब तक यह परंपरा चली आ रही है और इस खेत में बकरे की बलि दी जाती है और बलि के बाद बकरे का मांस पूरे गांव में प्रसाद के तौर पर बांटाा जाता है। यदि मलेथा के खेतों को इस गूल से पानी नहीं मिलता तो आज यह खेत सोना नहीं उगल रहे होते। आज भी दूर से देखने पर ही मलेथा के यह खेत हर किसी का मन मोह लेते हैं। यात्रा सीजन में तो बाहर से आने वाले तीर्थ यात्री व पर्यटक भी मलेथा में रुककर कुछ देर हरियाली से भरे खेतों को निहारते देखे जा सकते हैं। ::::

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