Thursday 17 June 2010

हुनर को जला गई पेट की आग

pahar1- कम ही लोग जानते होंगे कि ढाई-तीन दशक पूर्व तक देवभूमि में कलाकारों की एक ऐसी जाति भी थी, जिसने सदियों से यहां की सांस्कृतिक परंपराओं का संरक्षण किया। वक्त बदला और चकाचौंध लोक पर हावी होने लगी। जमीन से जुड़ी कला ही नहीं, कलाकार भी सुविधाओं के मोहताज हो गए। पेट की भूख ने उन्हें यहां-वहां हाथ-पांव मारने को मजबूर कर दिया और धीरे-धीरे प्रकृति प्रदत्त यह कला इतिहास के पन्नों में दफन हो गई। बात उत्तराखंड की बाद्दी जाति की हो रही है, जिसके बिना एक दौर में घर-आंगन सूने नजर आते थे। बाद्दी यहां के मूल लोक कलाकार हैं, जो आशुकवि होने के कारण अपने गीत-नृत्यों के जरिए ऐतिहासिक घटनाओं और लोक अनुष्ठानों को संरक्षित रखते थे। इनकी स्ति्रयों (बादिण्यों-बेडिण्यों) को नृत्य व गायन में महारथ हासिल थी। एक गांव से दूसरे गांव बिना आमंत्रण के वे अपनी कला व प्रतिभा का प्रदर्शन करते और वहां से मिला प्रोत्साहन उनके परिवार का संबल बनता। उत्तराखंड की संस्कृति को अपनी कला के माध्यम से जीवित रखने वाले ये कलाकार उपेक्षा और उदासीनता का जीवन व्यतीत कर रहे हैं। दूरदराज के कुछेक इलाकों में जहां-कहीं उनकी मौजूदगी दिखाई भी देती है, उसमें भी मजबूरी का भाव झलकता है। इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों की चकाचौंध में बाद्दियों को पूछने वाला कोई नहीं रहा। उनका जो रहा-सहा दर्शक वर्ग है भी, वह खुद अभावों से जूझ रहा है। यही हाल रहा तो वह दिन दूर नहीं जब, बाद्दी परंपरा के अवशेष भी ढूंढने मुश्किल हो जाएंगे।

हुनरमंद बनेंगे उत्तराखंड के युवा

देहरादून- सूबे की इंडस्ट्रीज युवाओं का हुनर निखारने को आगे आ रही हैं। स्टेट ओपन यूनिवर्सिटी और टाटा मोटर्स के बीच सर्टिफिकेट कोर्स इन टेक्निकल एक्सीलेंस को लेकर करार इसकी तस्दीक कर रहा है। अन्य नामचीन कंपनियां अशोक लीलैंड व बजाज भी विवि से करार की इच्छुक हैं। ओपन यूनिवर्सिटी ने उद्योगों को रोजगारपरक प्रोग्राम से सीधे जोड़ने की पहल की है। इसके तहत उद्योगों की जरूरत पर आधारित कोर्स तैयार किए जाएंगे। कोर्स की अध्ययन सामग्री विवि तैयार करेगा, जबकि व्यावहारिक प्रशिक्षण इंडस्ट्रीज देंगी। सूबे में प्रशिक्षित युवाओं की फौज खड़ी करने और रोजगार देने से सीधे जुड़े इस कोर्स में आटोमोबाइल इंडस्ट्री ने बाजी मारी है। इसके लिए विवि और टाटा मोटर्स ने बाकायदा करार किया है। करार के मुताबिक आटोमोबाइल सेक्टर में युवाओं को तराशने को विवि टेक्निकल एक्सीलेंस में सर्टिफिकेट कोर्स तैयार करेगा। छह माह के इस कोर्स में दो महीने थ्योरी और चार माह प्रशिक्षण की व्यवस्था होगी। प्रशिक्षण टाटा मोटर्स कंपनी देगी। प्रशिक्षण के दौरान युवाओं को बतौर स्टाइपेंड चार-पांच हजार रुपये की आमदनी भी होगी। इस सर्टिफिकेट कोर्स के चार प्रमुख कंपोनेंट होंगे। पहला कंपोनेंट इंजीनियरिंग व ड्राइंग, दूसरा मशीनों की जानकारी, तीसरा व्यक्तित्व विकास और चौथा सामान्य व्यवहार का होगा। दसवीं व बारहवीं पास युवा इस कोर्स में दाखिला ले सकेंगे। टाटा मोटर्स इस कोर्स में 600 छात्र-छात्राओं को प्रशिक्षण देने की हामी भर चुकी है। खास बात यह है कि इस सेक्टर की अन्य नामचीन कंपनियों ने भी कोर्स में खासी रुचि दर्शाई है। विशेष रूप से अशोक लेलैंड व बजाज के रुख को देखकर विवि बेहद उत्साहित है। बजाज कंपनी ने गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले युवाओं को प्रशिक्षण देने की मंशा जताई है। संपर्क करने पर विवि के कुलपति प्रो. विनय पाठक ने टाटा मोटर्स के साथ करार की पुष्टि की। प्रो. पाठक के मुताबिक मुक्त विवि सूबे के लिए दो उद्देश्यों सशक्तिकरण व रोजगार को ध्यान में रखकर कोर्स तैयार कर रहा है। पहले कोर्स तैयार करने के बजाए इंडस्ट्रीज व रोजगार के अन्य क्षेत्रों से संपर्क साधा जा रहा है। उनकी जरूरत के मद्देनजर रोजगारपरक व व्यावहारिक कोर्स तैयार किए जाएंगे। अकेले आटोमोबाइल सेक्टर में हजारों युवाओं को खपाने की कुव्वत है।

Thursday 10 June 2010

उत्तराखंड के पशु पालन विभाग में १२० पशुधन प्रसार अधिकारियों की भर्ती

उत्तराखंड के पशु पालन विभाग में १२० पशुधन प्रसार अधिकारियों की भर्ती - अंतिम तिथि २५ जून २०१०

-समूह 'गÓ की भर्ती स्थगित

रास्ता निकालने को उच्चस्तरीय समिति गठित - बुधवार को आंदोलनकारी संगठनों ने मुख्य सचिव से भी की मुलाकात देहरादून,--: सरकार ने समूह ग की भर्ती प्रक्रिया स्थगित कर दी है। भर्ती का रास्ता निकालने के लिए मुख्य सचिव की अध्यक्षता में तीन प्रमुख सचिवों की उच्चस्तरीय कमेटी गठित करने के निर्देश दिए गए हैैं। कमेटी पंद्रह दिन के भीतर यह संस्तुति देगी कि इन पदों पर भर्ती के लिए क्या रास्ता अपनाया जाए। लोक सेवा आयोग के माध्यम से भर्ती का विरोध होने के बाद सरकार ने यह कदम उठाया है। समूह ग की भर्ती के मामले में बुधवार को गहन मंथन के बाद मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल निशंक ने चयन प्रक्रिया को स्थगित करने के निर्देश दिए। उन्होंने इसके लिए मुख्य सचिव की अध्यक्षता में सचिवों की उच्चस्तरीय समिति गठित करने के निर्देश दिए। समिति की रिपोर्ट मिलने तक चयन प्रक्रिया को स्थगित रखा जाएगा। समिति में प्रमुख सचिव सुभाष कुमार, आलोक जैन व डीके कोटिया को बतौर सदस्य शामिल किया गया है। मुख्यमंत्री डा. निशंक ने कहा कि राज्य सरकार युवाओं के हितों के लिए वचनबद्ध है। सरकार सभी पहलुओं का परीक्षण कर रही है और ऐसा निर्णय करेगी, जिससे युवाओं को रोजगार के अधिक से अधिक अवसर मिल सकें। राज्य सरकार ने हाल ही में 337 पदों की भर्ती प्रक्रिया शुरू की थी। इन नियुक्तियों को लोक सेवा आयोग के माध्यम से कराने पर स्थानीय युवाओं में नाराजगी थी। वह हित प्रभावित होने का अंदेशा जताकर नियुक्ति प्रक्रिया को आयोग के दायरे से बाहर करने की मांग कर रहे थे। इसको लेकर दो दिनों से राजधानी में उबाल आ गया था। यह पहला मौका नहीं है, जबकि समूह ग की भर्ती स्थगित हुई है। इससे पहले भी 2002 व 2004 में भी इन पदों पर भर्ती नहीं हो सकी। युवाओं की मांग है कि समूह ग की भर्ती अधीनस्थ सेवा चयन आयोग के माध्यम से की जानी चाहिए। राज्य में अभी तक चयन आयोग का गठन नहीं हुआ है। ऐसे में सरकार पसोपेश में है। इससे पूर्व आज दोपहर आंदोलनकारी संगठनों ने मुख्य सचिव एनएस नपलच्याल से मुलाकात कर भर्ती प्रक्रिया रोकने की मांग की। ऐसा नहीं होने पर आंदोलनकारियों ने 11 जून को सचिवालय कूच की चेतावनी दी थी। :

अब तो वो बात कहां?

-आज के गहनों में तिमणियां, बुलाक जैसी कहां बात -आभूषण ही नहीं संस्कृति की पहचान भी थे यह -आधुनिक आभूषणों ने ले लिया इनका स्थान (टिहरी गढ़वाल:-- तिमणियां व बुलाक आज भले ही यह नाम सुनने में अजीब लगते हों, लेकिन कभी यही खास गहने पहाड़ की महिलाओं की पहचान हुआ करते थे। त्योहार-पर्वों के अवसर पर जब महिलाएं इन्हें पहनती थी तो उनकी सुंदरता में चार चांद लग जाते थे। आधुनिक चकाचौंध में आज यह सब खो गए हैं और इनकी जगह अब आधुनिक गहनों ने ले ली है। उल्लेखनीय है कि तिमणियां (गले का हार) व बुलाए (नाक में पहने जाने वाला जेवर) मात्र गहने ही नहीं थे, बल्कि पहाड़ की संस्कृति सभ्यता की पहचान भी थे। शादी-ब्याह व त्योहारों के अवसर पर महिलाएं विशेष तौर पर इन्हें पहनती थी। गले में पहना जाने वाला तिमणियां की बनावट भी विशेष होती थी। इन्हें तैयार करने में काफी दिन लग जाते थे। इन आभूषणों का प्रचलन राजशाही के जमाने से बताया जाता है। उस समय इन आभूषणों का काफी प्रचलन था। लम्बे समय तक इन आभूषणों का राज रहा है। कई स्थानों पर आयोजित होने वाले नृत्य व मेले में महिलाएं इन आभूषणों से लकदक होकर सामूहिक नृत्य करती थी। इन आभूषणों को लेकर कई गढ़वाली गीत भी लिखे गए हैं। तिमणियां व बुलाक केवल आभूषण ही नहीं थे बल्कि वक्त पडऩे पर यह लोगों के आर्थिक मदद के काम भी आते थे। यहां यह बता दें कि आज के आभूषणों के अपेक्षा बुलाक व तिमणियां काफी भारी-भरकम होते थे। आज भी गढ़वाली एलबमों पर यदाकदा पहाड़ की संस्कृति के पहचान यह आभूषण दिखाई देते हैं। आज गांव में यह आभूषण दिखाई नहीं देते बहुत कम गांवों में बुजुर्ग महिलाओं के पास ही यह आभूषण मिलेंगे, लेकिन वह भी अब इन्हें संदूक में ही संभाले हुए हैं। आज यह आभूषण बीते जमाने की बात हो गई है। नई पीढ़ी तो इन आभूषणों से परिचित ही नहीं है। आधुनिक चकाचौंध में इन प्राचीन आभूषणों की जगह नए-नए आभूषणों ने ले लिया है। समय के साथ-साथ गहने भी बदल गए हैं। तिमणियां की जगह अब हार व बुलाक की जगह नथ ने ले ली है। पहले जहां दशकों तक नथ व बुलाक आभूषणों का चलन रहा है वहीं आधुनिक समय में इसमें नित नए बदलाव आ रहे हैं। गांव की महिला सुमणी देवी का कहना है कि पहले जैसे आभूषण अब कहां रह गए हैं। उनका कहना है कि वर्षों बाद भी गांव में बुलाक व तिमणियों का प्रचलन रहा है, लेकिन अब धीरे-धीरे गांव में यह दिखाई नहीं देते। उनका कहना है कि आज के गहनों में बुलाक व तिमणियां जैसी बात कहां।

-नवदुर्गा की छत्र-छाया में सुरक्षित है अल्मोड़ा

-चारों दिशाओं में विविध रूपों में विराज मान हैं मां - पर्यटन के रूप में विकसित नहीं हो पायी सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा-संस्कृति, परम्परा व ऐतिहासिक धरोहरों को समेटे कुमाऊं में अल्मोड़ा का विशिष्ट स्थान है। यहां नौ दुर्गा के मंदिरों में हर साल सैकड़ों भक्त पहुंचते हैं। अल्मोड़ा शहर को बसाने वाले चंद राजाओं ने इसे जहां भौतिक रूप से सुरक्षित बनाया, वहीं दैवीय शक्तियों से भी चारों दिशाओं से सुरक्षित बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कभी चंद राजाओं की राजधानी रही अल्मोड़ा नगरी की चारों दिशाओं मेंं विघ्न विनाशक भगवान गणेश स्थापित हैं। यही नहीं नगर की रक्षा के लिए अष्ट भैरव विपदाओं को हरने के लिए हर पल मौजूद हैं। प्रदेश में यहीं नौ दुर्गाओं के मंदिर भी स्थापित हैं। इसके बावजूद सरकारें इस सांस्कृतिक नगरी को पर्यटन के रूप में विकसित नहीं कर पायीं। अल्मोड़ा के चारों ओर की चोटियों व नगर में विभिन्न रूपों में शक्ति स्वरूपा देवी माताएं रक्षा कर रही हैं। माता के नौ रूपों का वर्णन पुराणों व धार्मिक ग्रंथों में देखने को मिलता है। नगर में अलग-अलग स्थानों पर मां कई रूपों में विद्यमान हैं। इसी प्रकार मां के अलग-अलग उपासक भी हैं। कोई उपासक मां को वैष्णवी रूप में पूजता है, तो कोई शक्ति के रूप में मां के अराधना करता है। इसी लिए कहीं पर 'या देवी सर्वभूतेषु दया रूपेण संस्थिता नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:Ó तो कोई भक्त 'जयंती मंगलाकाली भद्रकाली कपालिनी दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुतेÓ के भाव से मां का वंदन नमन करता है। इसे अल्मोड़ा नगरी का सौभाग्य ही कहा जाएगा कि अल्मोड़ा के चारों ओर रहने वाले वाशिंदों को प्रात: उठते ही हर दिशा में शिखरों पर स्थित मां के दर्शन होते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अल्मोड़ा की रक्षा चारों ओर से देवी-देवता करते हैं। नगर के चारों ओर नजर डालें तो कलेक्टे्रट के ठीक सामने मां बानड़ी देवी (विंध्यवासिनी), पीछे की ओर स्याही देवी (श्यामा देवी), बायीं ओर कसार देवी, पश्चिम दिशा की ओर मां दूनागिरी, नगर में चंद राजाओं की कुल देवी मां नंदा-सुनंदा, मां त्रिपुरा सुन्दरी, मां उल्का देवी, मां शीतला देवी, मां पाताल देवी, मां कालिका देवी, मां जाखन देवी जागृत अवस्था में हैं। मां के भक्त अल्मोड़ा में देश भर से पहुंचते हैं। प्रदेश में केवल अल्मोड़ा ही ऐसा स्थान है जहां नौदुर्गा के मंदिर स्थित हैं। इसके बावजूद सरकार ने इस सांस्कृतिक नगरी को पर्यटन के रूप में विकसित करने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किये।

-शिलाएं खुद का उद्धार कर बन गईं अहिल्या

-राज्य की 26 विधवाओं ने फिर मांग भरने का दिखाया साहस -पहाड़ में भी धीरे-धीरे टूटने लगी हैं रूढिय़ां -समाजशास्त्रियों की नजर में साहसिक एवं जायज कदम हल्द्वानी (नैनीताल): एक दरिया तूफानी है वो, झांसी वाली रानी है वो, कोई पढऩे वाला हो तो, खुद में एक कहानी है वोÓ। हम बात कर रहे हैं उस कहानी की जिसमें राज्य की अबलाओं ने अपने जज्बे से सबला बनने की ठान ली है। इस राह पर वे नित नये मील के पत्थरों को पीछे छोड़ रही हैं। वह भी उस पर्वतीय क्षेत्र के मार्ग पर जहां रूढिय़ों की गहरी खाई और मान्यताओं के दुर्गम रास्ते हैं। अब अल्मोड़ा जिले की नीलिमा (काल्पनिक नाम) को ही देखें। शादी में लगी मेहंदी का रंग भी नहीं छूटा कि खुशियों को ग्रहण लग गया। मार्ग दुर्घटना में घायल पति की मौत ने जिदंगी जीने के सभी रास्ते बंद कर दिये। रूढिय़ों की जंजीर में कैद वह मानसिक मौत की गिरफ्त में थी, लेकिन एक दिन उसने सबला बनने की ठान ली। उसने फिर से शादी रचाई और आज नजीर बन समाज के सामने आ गई। अल्मोड़ा की नीलिमा तो महज एक उदाहरण है। इस तरह का साहस और मान्यताओं को आइना दिखाने में राज्य की 26 महिलाओं को सरकार ने भी अपनी प्रोत्साहन योजना से 11-11 हजार रुपये से पुरस्कृत किया है। आंकड़े गवाही दे रहे हैं कि पिछले एक दशक में राज्य में विधवा विवाह का ग्राफ उत्तरोत्तर बढ़ रहा है। समाज कल्याण निदेशालय के आंकड़े गवाह हैं कि गुजरे वित्तीय वर्ष (2009- 10) में राज्य भर में 26 (35 वर्ष से कम आयु) विधवाओं ने पुर्नविवाह किया। इन्हें प्रोत्साहन के रूप में सरकार ने 2 लाख 86 हजार रुपये दिये। भले ही कुछ लोग विधवा विवाह के पक्ष में न हों लेकिन समाजशास्त्रियों ने इसे वक्त व समय की जायज मांग बताया है। पिथौरागढ़ निवासी समाजशास्त्री एवं वरिष्ठ पत्रकार गणेश पाठक कहते हैं कि अगर समाज तरक्की के रास्ते पर है तो उसकी आलोचना नहीं बल्कि उसे प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। श्री पाठक विधवा विवाह को प्रोत्साहन के लिए जागरूकता की वकालत करते हैं। उनका मानना है कि कम उम्र में (जब बच्चे भी न हों) अगर इस विपत्ति का पहाड़ टूट पड़े तो महिला अपने ही घर में (भले वह हर तरह से सम्पन्न हो) उपेक्षित हो जाती है। उसका पूरा सामाजिक ताना-बाना बिखर जाता है, कुदृष्टि का दंश ऊपर से उसे और असुरक्षित कर देता है। कमोवेश इसी तरह की राय हल्द्वानी के ललित बल्लभ सनवाल रखते हैं। मैदानी क्षेत्रों को छोड़ दें तो पर्वतीय क्षेत्र में आज भी मान्यता और रूढिय़ां ही पूरी सामाजिक व्यवस्था का संचालन कर रही हैं। इसमें लोग बदलाव की वकालत करने लगे है। बदलाव की हवा पर्वतीय क्षेत्र में बह चली है। 26 में 17 विधवा विवाह के मामले पर्वतीय जिले से ही सामने आये हैं। अपर निदेशक समाज कल्याण आरपी पंत कहते हैं कि सरकार भी इस दिशा में प्रोत्साहन देने में पीछे नहीं है। बजट में इस मद में अलग से प्रावधान किया जाता है। पिछले दो वर्षो में विभाग ने विधवा विवाह प्रोत्साहन में 5 लाख 83 हजार रूपये खर्च किये हैं। इस दिशा में अभी और जागरूकता की जरूरत है। प्रोत्साहन राशि पाने वाले विधवा विवाह के मामले टिहरी- 2 उत्तरकाशी- 3 देहरादून- 1 हरिद्वार- 1 अल्मोड़ा- 4 बागेश्वर- 1 चंपावत- 4 ऊधमसिंह नगर-9

-पहाड़ों में दम तोड़ रहीं स्वास्थ्य सेवाएं

-मीलों पैदल चलकर भी नसीब नहीं हैं चिकित्सक - डाक्टरों का टोटा, अस्पताल बने रेफर सेंटर - फार्मेसिस्ट व चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के सहारे चल रहे कई अस्पताल , बागेश्वर- सरकार स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर बनाने के लाख दावे करे लेकिन पर्वतीय क्षेत्रों कई किमी पैदल चलकर भी मरीजों का इलाज नहीं हो पा रहा है। चिकित्सा के अभाव में आए दिन कई मरीजों की मौत हो जाती है। मुख्यालयों में भी सरकारी अस्पताल महज रेफर सेंटर बन गये हैं। दूरस्थ क्षेत्रों में स्थित सरकारी अस्पताल फार्मेसिस्टों व चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के भरोसे चल रहे हैं। जिला मुख्यालय के अस्पताल भी मरीजों को बेहतर सुविधाएं मुहैया कराने में नाकाम साबित हो रहे हैं। चिकित्सकों के सैकड़ों पद रिक्त होने से अस्पताल मात्र रेफर सेंटर बन गये हैं। पिथौरागढ़, चंपावत, अल्मोड़ा व बागेश्वर जिलों के दूरस्थ क्षेत्रों की हालत बेहद खस्ता है। चंपावत के तल्लादेश, डांडा, ककनई, साल मछियाड़ तथा पिथौरागढ़ जिले में मुनस्यारी, धारचूला व डीडीहाट क्षेत्रों में अस्पताल भवन तो बनाये गये लेकिन यहां चिकित्सक ही नहीं हैं। बागेश्वर के गरुड़, कपकोट, कांडा तथा अल्मोड़ा जिले में सल्ट, चौखुटिया, मासी आदि क्षेत्रों के ग्रामीण मीलों पैदल चलकर या मरीज को डोली में रखकर अस्पताल पहुंचाते हैं। जिला मुख्यालयों पर स्थित अस्पतालों में भी मरीजों को बेहतर इलाज नहीं मिल पाता है। कुमाऊं मंडल के छह जिलों में डाक्टरों के 685 पद स्वीकृत हैं लेकिन काफी समय से 408 पद रिक्त हैं। अल्मोड़ा जिले में 149 स्वीकृत पद हैं जिसमें से 94 पद रिक्त हैं। बागेश्वर में 63 पद स्वीकृत हैं जबकि 44 पद रिक्त हैं। पिथौरागढ़ में 121 स्वीकृत पदों में से 64 पद रिक्त, चंपावत में 45 पद स्वीकृत हैं लेकिन 30 पद रिक्त चल रहे हैं। महिला चिकित्सकों की नियुक्ति नहीं होने से प्रसव पीडि़त कई महिलाएं दम तोड़ देती हैं। कुमाऊं मंडल के छह जिलों में महिला चिकित्सकों के 122 पद स्वीकृत हैं जिनमें से 67 पद रिक्त चल रहे हैं। छह जिलों में दंत चिकित्सकों के कुल 27 पद स्वीकृत हैं जिसमें से 15 रिक्त हैं। इनसेट जल्द होगी डाक्टरों की तैनाती: भौर्याल बागेश्वर: प्रदेश के स्वास्थ्य राज्यमंत्री बलवंत सिंह भौर्याल ने डाक्टरों की कमी से हो रही दिक्कतों को स्वीकार करते हुए कहा कि सरकार को ढाई सौ से अधिक चिकित्सक मिल चुके हैं। शीघ्र ही प्रदेश के विभिन्न अस्पतालों में चिकित्सकों की तैनाती की जायेगी। उन्होंने कहा कि डाक्टरों की कमी के बाद भी प्रदेश सरकार एंबुलेंस 108 सेवा के जरिये लोगों को बेहतर सेवाएं मुहैया कराने का प्रयास कर रही है। जल्द ही चिकित्सकों की कमी को पूरा किया जाएगा। इनसेट डाक्टरों के स्वीकृत व रिक्त पदों की सूची जिला स्वीकृत पद रिक्त पद नैनीताल 202 87 अल्मोड़ा 193 121 पिथौरागढ़ 156 112 ऊधमसिंह नगर 160 71 चम्पावत 58 38 बागेश्वर 75 54 ::::

तिब्बती रिफ्यूजी भी विदेशी अधिनियम के दायरे में

बेरोकटोक आ-जा नहीं सकेंगे, प्रावधानों को मानना होगा , रुद्रपुर- तिब्बती नागरिक देश में बेरोक-टोक नहीं आ जा सकेंगे। उन्हें बाकायदा विदेशी अधिनियम (दॅ फॉरेनर्स एक्ट) 1946 के प्रावधानों के तहत स्पेशल एंट्री परमिट प्राप्त करना होगा। उन पर वे सभी नियम-कानून लागू होंगे, जो सामान्यत: विदेशियों पर लागू होते हैं। हालांकि इस किस्म की व्यवस्था पहले से भी थी, किंतु सख्ती के साथ लागू नहीं हो पा रही है। अब इसे समुचित तरीके से लागू करने के लिए विदेश मंत्रालय ने राज्यों को एक बार फिर दिशा-निर्देश दिये हैं। इन निर्देशों में कहा गया है कि सन 1959 में तिब्बती धर्म गुरु दलाई लामा को भारत में राजनीतिक शरण दी गयी थी। इस दौरान हजारों तिब्बतियों को भी देश में रिफ्यूजी की तरह रहने की अनुमति दी गयी थी। इन रिफ्यूजियों को यहां राहत तथा पुनर्वास के तौर पर जमीन तथा अन्य सुविधायें मुहैया कराई गयी थीं। यह सब इसलिये किया गया था, ताकि सामान्य परिस्थितियां होने पर वे तिब्बत लौट सकें। उस दौरान यह भी साफ किया गया था कि रिफ्यूजियों को विध्वंसकारी व चीन के खिलाफ राजनीतिक गतिविधियां संचालित करने की अनुमति नहीं दी जायेगी। साथ ही उन्हें अन्य विदेशियों की तरह ही समझा जायेगा। मंत्रालय के मुताबिक चूंकि तिब्बती रिफ्यूजी विदेशी माने गये हैं, लिहाजा उनको भी यहां आने, ठहरने तथा लौटने के लिए विदेशी अधिनियम के प्रावधान मानने होंगे। लेकिन देखने में आ रहा है कि 1980 तथा 90 के दशक में यहां आये रिफ्यूजी भारत के आर्थिक तथा सांस्कृतिक जीवन में इस तरह रच-बस गये हैं कि वे स्वयं को विदेशी ही नहीं मानते। यही नहीं वे यहां संपत्ति खरीदने तथा भारतीय नागरिक की तरह बर्ताव को भी अपना अधिकार समझने लगे हैं। इससे कई स्थानों पर स्थानीय नागरिकों के साथ टकराव की स्थिति भी पैदा हो रही है। कुल मिलाकर इसका कानून एवं शांति व्यवस्था पर भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है। मंत्रालय का यह भी मानना है कि तिब्बतियों के यहां प्रवेश का उद्देश्य व पंजीयन के साफ दिशा-निर्देश हैं, लेकिन बॉर्डर पर इमीग्र्रेशन चेक पोस्ट और फॉरेनर्स रजिस्ट्रेशन अफसरों की कोताही से दिशा-निर्देश समुचित तौर पर लागू नहीं हो पा रहे हैं। साथ ही देश के भीतर तिब्बतियों के एक से दूसरे स्थान पर होने वाले मूवमेंट से संबंधित प्रावधानों का भी इस्तेमाल नहीं हो रहा है। मंत्रालय के अनुसार 1959 तक भारत में आने वाले अस्थायी रिफ्यूजी ही पुनर्वास का लाभ लेने के हकदार हैं। 1959 तक भारत आने वालों के 1987 तक जन्मे बच्चे भी इस सुविधा के हकदार हैं। मौजूदा दौर में तिब्बतियों की आवाजाही बढ़ी तो वर्ष 2000 में इनके लिए स्पेशल एंट्री परमिट की व्यवस्था की गयी है। यह परमिट काठमांडू स्थित तिब्बती स्वागत केंद्र की सिफारिश पर भारतीय दूतावास जारी करेगा। यह परमिट तिब्बतियों के बच्चों को भी लेना होगा। देश में प्रवेश के बाद इन लोगों के 14 दिन के भीतर संबंधित क्षेत्र के फॉरेनर्स रजिस्ट्रेशन ऑफिसर को रिपोर्ट करनी तथा पंजीकरण कराना होगा। एंट्री, स्टे तथा एग्जिट को रेगुलेट करने के लिए तिब्बतियों को उत्तर प्रदेश के सोनौली तथा बिहार के रक्सौल के चेक पोस्ट से ही देश में आने की अनुमति होगी। जब वे वापस जायेंगे तो उन्हें इसके बारे में बताना होगा। जो लंबे समय से स्पेशल एंट्री परमिट पर रह रहे हैं उन्हें अवधि समाप्त होने पर इसका नवीनीकरण कराना होगा। अध्ययन, शोध, चिकित्सा या तीर्थाटन के लिए आने वाले तिब्बतियों पर भी वे सभी नियम व कानून लागू होंगे जो अमूमन विदेशियों पर लागू होते हैं। मंत्रालय ने जिन इलाकों में तिब्बतियों की मौजूदगी अधिक है वहां प्रावधान लागू हों इसके लिए संबंधित जिलाधिकारियों व पुलिस अधीक्षकों का संवेदीकरण करने पर भी जोर दिया। :::: ">

-धान की रोपाई अनुष्ठान है यहां

-पंचांग से निकाला जाता है रोपाई के लिए दिन -समापन पर दी जाती है बकरे की बलि नई टिहरी- धान की रोपाई का तरीका देश में एक जैसा है। कई स्थानों पर इसे पूजा-अर्चना के साथ किया जाता है। उत्तराखंड राज्य के टिहरी जनपद के मलेथा में पंचांग के मुताबिक धान रोपाई के लिए विधिवत ढंग से दिन निकाला जाता है और समापन पर पशु बलि दी जाती है। कीर्तिनगर ब्लाक मुख्यालय से महज तीन किमी दूरी पर ऋषिकेश-बदरीनाथ मोटर मार्ग पर बसा हैे गांव मलेथा। वीर शिरोमणि माधो सिंह भंडारी की कर्म स्थली मलेथा में पिछले कई सदियों से धान की रोपाई अपने आप मिसाल है। इस गांव में वर्षों से यह परंपरा है कि धान की रोपाई से पूर्व ग्रामीण गांव की राशि के आधार पर पंचांग से रोपाई शुरू करने के लिए दिन निकालते हैं। नागराजा देवता को मानने वाले मलेथावासी दिन निकल आने पर सबसे पहले एक खेत में नागराजा देवता की सामूहिक रूप से पूजा अर्चना के साथ रोपाई का श्रीगणेश करते हैं। परंपरा बनी हुई है कि इस खेत में रोपाई के बाद ग्रामीण फिर अपने-अपने खेतों में रोपाई का काम प्रारंभ करते हैं। इसके बाद पाटा का बौलू नामक तोक में स्थित गांव के अंतिम खेत में रोपाई के दिन समापन पर बकरे की बलि देने के बाद रोपाई का विधिवत ढंग से समापन किया जाता है। बुजुर्गों के अनुसार मलेथा गांव में एक समय में सिंचाई का कोई विकल्प न होने पर यहां पर माधो सिंह भंडारी ने छेंडाधार के पहाड़ पर सुरंग गूल बनाकर चन्द्रभागा नदी से मलेथा के खेतों में पानी लाने की व्यवस्था सोची। इसके बाद उन्होंने पहाड़ को खोदकर अंदर ही अंदर गूल (सिंचाई की छोटी नहर) बनाने में सफलता भी हासिल कर ली, लेकिन इसके बाद भी इस गूल में पानी नहीं आया। ग्रामीणों में मान्यता है कि जब भंडारी द्वारा बनाई गई गूल में पानी नहीं आया तो एक रात माधो सिंह के सपने में देवी मां आई और बताया कि जब तक वह नरबलि नहीं देंगे तब तक गूल में पानी आगे नहीं बढ़ेगा। कहा जाता है कि देवी मां के इस संदेश के बाद भंडारी ने जहां से गूल शुरू होती है वहां पर अपने बेटे की बलि दी थी। बताया जाता है कि आज जिस खेत में ग्रामीण रोपाई का समापन करते हैं उसी खेत में बलि के बाद भंडारी के बेटे का सिर पानी में बहकर आया था। इसके बाद ही समापन पर तब से अब तक यह परंपरा चली आ रही है और इस खेत में बकरे की बलि दी जाती है और बलि के बाद बकरे का मांस पूरे गांव में प्रसाद के तौर पर बांटाा जाता है। यदि मलेथा के खेतों को इस गूल से पानी नहीं मिलता तो आज यह खेत सोना नहीं उगल रहे होते। आज भी दूर से देखने पर ही मलेथा के यह खेत हर किसी का मन मोह लेते हैं। यात्रा सीजन में तो बाहर से आने वाले तीर्थ यात्री व पर्यटक भी मलेथा में रुककर कुछ देर हरियाली से भरे खेतों को निहारते देखे जा सकते हैं। ::::

ये वादियां ये फिजाएं बुला रही हैं तुम्हें

-कुंभ के दबाव से घटे इस बार देशी सैलानी -वर्ष के आखिरी सप्ताह में विदेशी सैलानी बढऩे की उम्मीद -पिछले वर्ष की तुलना में अधिक बरसा धन -सोलह जून से सैलानियों के लिए बंद होगा पार्क हरिद्वार: महाकुंभ के दबाव ने देशी सैलानियों को राजाजी के दीदार से रोक दिया, वहीं विदेशी सैलानियों की आमद ने पार्क के चेहरे पर चमक बिखेर दी। पिछले वर्ष प्रवेश शुल्क की बढ़ोतरी ने तो कमाल कर दिया। पार्क बंद होने से सप्ताह भर पहले ही पिछले सीजन की कमाई का पार्क की चीला रेंज ने रिकार्ड तोड़ दिया। राजाजी की चीला रेंज मालामाल हो चुकी है। राजाजी पार्क 16 जून से सैलानियों के लिए बंद कर दिया जाएगा। गढ़वाल की वादियों में राजाजी नेशनल पार्क प्रकृति के अद्भुत और वन्य जीवों के संगम से गुलजार है। एशियन एलीफेंट की शरणस्थली कहे जाने वाले राजाजी पार्क में इन दिनों बहार आई हुई है। हाथियों का झुंड नजर आ रहे हैं। तेंदुए भी सैलानियों को दिख रहे हैं। चीतल का कुलांचे भरना सैलानियों को रोमांचित कर रहा है। पिछले सीजन में राजाजी नेशनल पार्क का प्रवेश शुल्क प्रति सैलानी 40 से बढ़ाकर 150 रुपये कर दिया गया था। राजाजी पार्क में भ्रमण के लिए प्रति भारतीय सैलानी 350 रुपये और विदेशी सैलानी 600 रुपये के करीब शुल्क पहुंचा दिया गया। शुल्क बढऩे की वजह से राजाजी के खजाने में लक्ष्मी की बरसात हुई है। पिछले सीजन में राजाजी के खजाने में 17 लाख 35 हजार रुपये आए थे, जबकि इस बार अब तक 28 लाख 62 हजार की आमदनी हो चुकी है। हां, देशी सैलानियों के पांव राजाजी की ओर बढऩे से जरूर थमे। पिछले सीजन में 16000 भारतीय सैलानी राजाजी पार्क पहुंचे थे, जबकि इस बार अब तक 12 हजार देशी सैलानी ही पहुंचे हैं। हालांकि पार्क प्रशासन कुंभ के चार महीने के दबाव को इसकी मुख्य वजह मान रहा है। थोड़ी सी मायूसी के साथ खुशी की बात यह है कि विदेशियों का राजाजी पार्क से मोहभंग नहीं हुआ है। पिछले सीजन की तुलना में विदेशी मेहमानों की आमद पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है। पिछले सीजन में पार्क बंद होने तक 1888 विदेशी सैलानियों ने राजाजी की चीला रेंज के दीदार किये, जबकि इस बार अभी तक यह तादाद 1865 पर ही पहुंची है। अभी पार्क बंद होने में सप्ताह भर का समय शेष है। इसलिए माना जा रहा है कि पिछले रिकार्ड को विदेशियों की आमद तोड़ सकती है। पार्क प्रशासन भी यही मान रहा है। 'राजाजी की चीला रेंज सोलह जून से बंद हो जाएगी। हाथियों सहित वन्य जीव खूब नजर आ रहे हैं। कुंभ की वजह से भारतीयों की तादाद कम हुई, लेकिन विदेशियों की मौजूदगी अच्छी रही। प्रवेश शुल्क सहित अन्य में बढ़ोतरी की वजह से पिछले वर्ष की आमदनी को पीछे छोड़ राजाजी के चीला रेंज ने नई उपलब्धि हासिल की हैÓ महेन्द्र सिंह नेगी चीला रेंज, राजाजी नेशनल पार्क

-धूल फांक रहे गढ़वाल कमिश्नरी के जनक

-बच्चा पार्क में 1987 में स्थापित की थी बैरिस्टर मुकंदी लाल की प्रतिमा -वर्ष 2006 से शुरू हुए पार्क के दुर्दिन , कोटद्वार (गढ़वाल) गढ़वाल कमिश्नरी के जनक व बहुमुखी प्रतिभा के धनी बैरिस्टर मुकंदी लाल की प्रतिमा चंद लोगों की राजनीति के चलते राजमार्ग के किनारे धूल फांक रही है। वर्ष 1987 में जिस प्रतिमा को युवाओं व बच्चों में इस महान शख्स के प्रति जिज्ञासा पैदा करने को स्थापित किया गया था, आज उसकी देखरेख करने वाला कोई नहीं है। सत्तर के दशक में कोटद्वार पहुंचे संत स्वामी राम के समक्ष स्थानीय नगर पालिका परिषद ने बच्चों के लिए नगर में एक पार्क स्थापित करने का बात रखी। स्वामी राम ने पार्क के लिए तीन लाख की धनराशि पालिका को उपलब्ध करवा दी, जिसके बाद पालिका ने यहां बदरीनाथ मार्ग पर डाकघर के समीप करीब एक बीघा भूमि पर 'बच्चा पार्कÓ की स्थापना कर वहां झूले व सी-सॉ लगा दिए। इसी पार्क के एक कोने में व्यायामशाला भी थी। शाम होते ही पार्क का नजारा दर्शनीय होता था। एक ओर युवा अपने शरीर को बलिष्ठ बनाते नजर आते, तो दूसरी ओर छोटे-छोटे बच्चे झूलों में झूलते दिखाई देते। पार्क में बच्चों की लगातार बढ़ती आवाजाही को देखते हुए पालिका ने पार्क में बहुमुखी प्रतिभा के धनी बैरिस्टर मुकंदी लाल की प्रतिमा स्थापित की थी। 14 अक्टूबर वर्ष 1987 को उत्तर प्रदेश सरकार के तत्कालीन वन मंत्री बलदेव सिंह आर्य ने प्रतिमा का अनावरण किया, साथ ही पार्क का नाम 'बैरिस्टर मुकंदी लाल पार्कÓ कर दिया गया। हालांकि क्षेत्रीय जनता आज भी इसे बच्चा पार्क के नाम से ही जानती है। मूर्ति स्थापित करने का उद्देश्य स्पष्ट था कि पार्क में आने वाले बच्चों में बैरिस्टर साहब के बारे में जिज्ञासा उत्पन्न हो व भविष्य में वे भी उनके आदर्शों को आत्मसात कर उन्नति के चरम पर पहुंच सकें। वर्ष 2006 में इस बच्चा पार्क के दुर्दिन शुरू हो गए। तत्कालीन कांग्रेस शासनकाल में नगर पालिका ने तमाम विरोधों के बावजूद बच्चा पार्क की भूमि 'प्रेक्षागृहÓ निर्माण को दे दी। कांग्रेस शासनकाल में प्रेक्षागृह के नाम पर इस भूमि में कुछ पिल्लर खड़े कर निर्माण कार्यों की इतिश्री कर दी गई। आज स्थिति यह है कि पिछले चार वर्षों से इस प्रेक्षागृह में निर्माण के नाम पर एक ईंट तक नहीं लगी है व बैरिस्टर साहब की प्रतिमा इस खंडहर के मध्य खड़ी राष्ट्रीय राजमार्ग का धूल फांक रही है। ''वर्तमान में बैरिस्टर मुकंदी लाल की प्रतिमा जिस हालत में है, उसे कोटद्वार के लिए दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है। पूर्व पालिका बोर्ड की ओर से बच्चा पार्क को प्रेक्षागृह के लिए दिया जाना पूरी तरह गलत था।ÓÓ शशि नैनवाल, अध्यक्ष, नगरपालिका कोटद्वार ''शासन की ओर से बजट अवमुक्त न होने से प्रेक्षागृह का निर्माण कार्य पूर्ण नहीं हो पाया है। बैरिस्टर साहब की नई मूर्ति बनाने के लिए भी शासन को प्रस्ताव भेजा गया है।ÓÓ डा. बीपी बडोनी जिला संस्कृति अधिकारी, पौड़ी ''बैरिस्टर मुकंदी लाल की प्रतिमा के वर्तमान हालात दुर्भाग्यपूर्ण है। गढ़वाल की जिस जानी-मानी शख्सियत को युवाओं का आदर्श बनना था, चंद लोगों की 'राजनीतिÓ के चलते खंडहर में पड़ी है।ÓÓ शशिधर भट्ट पूर्व पालिकाध्यक्ष, नगरपालिका परिषद कोटद्वार