Friday 30 April 2010

-कुछ मीठे, कुछ खट्टे अनुभव दे गया कुंभ

-चार माह के कालखंड में कई मुद्दों पर हुई सार्थक चर्चा हरिद्वार: पेशवाइयों से शुरू होकर ब्रह्मकुंड पर आखिरी डुबकी लगाने के साथ सदी का पहला महाकुंभ विदा हुआ। चार माह के इस कालखंड में मीठी यादें भी रहीं और कुछ खट्टे अनुभव भी। सामाजिक मुद्दों पर व्यापक चिंतन हुआ तो हादसों और अखाड़ों के आपसी मनमुटाव भी सामने आए। कुंभ आमतौर पर धर्म और अध्यात्म का संगम माना जाता है, लेकिन सदी के पहले महाकुंभ पर इसके इतर भी बहुत कुछ नया हुआ, जिसने देश दुनिया को सार्थक संदेश दिया। जनवरी माह में हाड़ कंपा देने वाली ठंड के बीच पेशवाइयों का दौर शुरू हुआ। सदी के पहले महाकुंभ में पेशवाई परंपरागत व आधुनिकता मिश्रित रही। नागा साधुओं ने धर्म रक्षा का संदेश दिया तो कई संतों ने कन्या भ्रूण हत्या रोकने, पर्यावरण के प्रति आम जन में चेतना जगाने का कार्य किया। घड़ी की सुई आगे खिसकी और पेशवाई का दौर थमने के बाद सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक सुरक्षा के मुद्दों पर व्यापक मंथन हुआ। कुंभ में पहली बार आंतरिक और बाह्य सुरक्षा पर विचार करने के लिए विषय विशेषज्ञ जुटे। विशेषज्ञ राय के आधार पर प्रस्ताव तैयार कर केंद्र और राज्य सरकारों को क्रियान्वयन के लिए भेजे गए। देश में आर्थिक असमानता दूर करने, आतंकवाद, संविधान सहित देश के विकास से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर कई दिन तक मंथन चला। नशा उन्मूलन सहित कई सामाजिक मुद्दों पर समाज के जागरूक लोगों व संस्थाओं ने अपनी भूमिका निभाई, जिसमें कई प्रमुख हस्तियां पहुंचीं। इस चार माह के दौरान शायद ही कुंभनगर में ऐसा कोई आश्रम, साधु-संतों के अस्थाई शिविर रहे हों जहां गो-गंगा के मुद्दे पर चर्चा न हुई हो। इस सार्थक पहल के बीच कई खट्टी यादें भी सदी के इस कुंभ को सालती रहेंगी। शंकराचार्य विवाद से इसकी शुरुआत हुई। चार मठों के इतर अन्य मठों को लेकर कई दिनों तक विवाद चलता रहा। चार पीठ, चार शंकराचार्य पर मेला प्रशासन ने मुहर तो लगाई, लेकिन विवाद का अंत तक पटाक्षेप नहीं हुआ। गंगा के मुद्दे पर अखाड़ों की एकता बिखर गई। गंगा पर जिस एका की जरूरत थी वह नहीं दिखी। यह मुद्दा फिर नेपथ्य में चला गया। कुल मिलाकर सदी का यह पहला महाकुंभ अपने साथ कुछ खट्टी तो कुछ मीठी यादों के साथ विदा हुआ। --- कुंभ पर दाग लगा गया हादसा -कुंभ संपन्न, पर दंश देता रहेगा बिरला घाट हादसा : महाकुंभ की विदाई हो चुकी है। अठाईस अप्रैल का अंतिम कुंभ स्नान निरापद संपन्न हो गया। जब कभी इस कुंभ को याद किया जाएगा उस पल महाकुंभ के दामन पर बिरला घाट हादसा 'टीसÓ बनकर चुभता रहेगा। महाकुंभ के चार महीने के दौरान कई श्रद्धालु, मेला प्रशासन, मेला पुलिस सहित आमजन तमाम अनुभवों से रूबरू हुए। सबके अपने अनुभव होंगे। स्नान पर क्या खोया, क्या पाया को लेकर भी चर्चाएं होंगी। सदी का पहला महाकुंभ था यह, इसलिए दुनिया की नजरें भी टिकी थीं इस पर। चार महीने के कुंभकाल के दौरान 11 स्नान पर्व, जिसमें चार शाही स्नान थे, को मेला प्रशासन और मेला पुलिस ने कमोबेश ठीकढंग से संपन्न करा दिया। लेकिन बिरला घाट हादसा जो चौदह अप्रैल को घटा, यदि यह असंयोग नहीं बनता तो महाकुंभ के दामन में कोई बड़ा दाग नहीं लगता। यह अलग बात है कि मेला प्रशासन और मेला पुलिस बिरला घाट हादसे को महज एक दुर्घटना करार देते रहे, दलील पेश करते रहे, पर इस धब्बे को वह इन दलीलों से छुड़ा नहीं सके। सवाल तो कई होंगे, जवाब भले ही नहीं देना पड़े, लेकिन उनके मन में भी यह पीड़ा रहेगी कि काश, सदी के महाकुंभ को निरापद शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न करा पाते। हां, इस बात की जरूर तारीफ होगी कि करोड़ों की भीड़ को भले ही कुछ बदइंतजामी के बीच संपन्न कराया गया हो, लेकिन मेला पुलिस की कुछ मामलों में पीठ भी थपथपाई जाएगी। मसलन इंटेलीजेंस के बेहतरीन तालमेल से कोई आतंकी वारदात करने की हिम्मत भी नहीं कर सका। जांबाज कमांडो हर मोर्चे पर तैनात किये गये थे। श्रद्धालुओं के साथ इनकी सहयोगी भूमिका को भी हमेशा याद किया जाएगा।

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