Tuesday 20 April 2010
नृत्य सम्राट की कर्मस्थली अल्मोड़ा
विराट गौरवशाली अतीत लघुतर होगा रूप चिंता का विषय
सांस्कृतिक विघटन से उबारने वाला नहीं है कोई: पांडे
लोक संस्कृति की आत्मा को खा गए हैं कैसेट: बोरा
अल्मोड़ा-
ऐतिहासिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक परंपराओं की थाती अल्मोड़ा नगरी का समृद्ध व गौरवशाली अतीत रहा है। यह जहां अपनी विविध लोक संस्कृतियों के लिए विख्यात है, वहीं नृत्य सम्राट उदयशंकर की मौजूदगी इसके शास्त्रीय पक्ष को भी अंतर्राष्ट्रीय मंच पर खड़ा करती है।
इसके अतीत पर नजर डालें तो यहां की लोक संस्कृति का अपना विराट स्वरूप देखने को मिलता है, जो आज लघु से लघुतर हो गया है। कभी चैत्र मास में शहर से लगे खासपर्जा गांव में हुड़के की थाप, झोड़े की स्वलहरियां सुनाई देती थी, जो अब लगभग बंद हो गई हैं। दूसरा पक्ष जो नृत्य सम्राट उदयशंकर से जुड़ा है उसकी समृद्धि का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उदयशंकर के शिष्ट जो प्रख्यात फिल्मकार रहे हैं, जिनमें गुरुदत्त, जौहरा सहगल, नरेन्द्र शर्मा शामिल हैं, ने अल्मोड़ा का बड़ा मान किया था।
राजस्थान में जन्मे उदयशंकर ने अल्मोड़ा में भारत के विभिन्न लोक एवं शास्त्रीय नृत्यों को लेकर अनेक प्रयोग किए। अजंता, एलोरा जैसे प्राचीन मंदिरों की नृत्य मुद्राओं से प्रेरित होकर उन सभी का समायोजन नृत्य में कर एक विधा को जन्म दिया, जिसने कला के क्षेत्र में विश्व के मानचित्र पर सदा के लिए अपनी अमिट छाप छोड़ी है। देश-विदेश में ख्याति प्राप्त करने के बाद उदयशंकर ने एक आदर्श सांस्कृतिक केन्द्र की स्थापना करने की इच्छा से अल्मोड़ा को अपना कार्य क्षेत्र चुना। अल्मोड़ा में ही पहली बार रामलीला मंचन छाया नाट्य के रूप में दिखाई गई।
अधोपतन की ओर जा रही संस्कृति, साहित्य व परंपराओं पर नगर के प्रतिष्ठित रंगकर्मी, होली गायक शिवचरण पांडे गहरी चिंता जताते हैं। उनका कहना है कि सांस्कृतिक विघटन की प्रक्रिया जारी है। इससे उबारने वाला वर्तमान में कोई नहीं दिखता है। न परिवार न समाज और न ही सरकार। हमारे जितने भी रीति-रिवाज, बोल-चाल पहचान, सांस्कृतिक मर्यादाएं हैं एक के बाद एक लोग उन्हें त्याग रहे हैं। यह बड़ी चिंता का विषय है। पूछने पर बताते हैं कि आशा की किरण तो तब जगे जब समाज का हर तबका कुछ न कुछ योगदान कर इसे बचाने का प्रयास करे। नहीं तो विघटन की गंगा में बहते रहे फिर उतरना मुश्किल हो जाएगा।
जाने-माने कुमाऊं के रंगकर्मी व प्रतिष्ठित हुड़का वादक चंदन बोरा की चिंता भी कम नहीं है। उनका कहना है कि अब लोक गायकी ही समाप्त हो रही है। बैर, भगनोल, झोड़ा, छपेली, चैती, वसंत, बारामासी कहीं सुनने को ही नहीं मिलता है। लगता है अब न सुनाने वाले हैं और न सुनने वाले। इससे बड़ा दुर्भाग्य कुछ नहीं हो सकता। बाजार में बिक रहे कैसेटों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए श्री बोरा कहते हैं कि इन्होंने लोक संस्कृति की आत्मा को ही खा डाला है। बाजारू स्वरूप देकर इनकी निर्मम हत्या कर दी है। कुल मिलाकर कभी वैभवशाली संस्कृति, साहित्य व परंपराओं के लिए जाने जाने वाला अल्मोड़ा नगरी बढ़ते कंक्रीट के जंगल में खो सा रहा है।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment