Thursday 18 February 2010

धान के धनी 'इंद्रासन' गुमनाम

-चावल की महक तो देशभर में फैलाई, पर खुद हैं अनजान -तराई के कृषक इंद्रासन सिंह ने ही विकसित की थी प्रजाति , रुद्रपुर: गरीबों का बासमती कहलाने वाले इंद्रासन धान की महक लगभग पूरे देश में फैली हुई है, लेकिन विडंबना देखिए,इस धान को खोजने व विकसित करने वाले कृषक इंद्रासन सिंह गुमनाम हैं। इंद्रासन प्रजाति का धान पूरे देश में उगाया तथा बड़े चाव से खाया जाता है। अखबारों में मंडी के भावों में इसका प्रमुख स्थान होता है, लेकिन इस सबसे दूर इस प्रजाति को विकसित करने वाला कृषक आज भी सरकारी सम्मान का मोहताज है। सरकार ने तो नहीं, नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन अहमदाबाद ने जरूर वर्ष 2005 में मेधा की पहचान कर उसे तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के हाथों सम्मान दिलाया। उत्तराखंड के तराई में स्थित ऊधम सिंह नगर जिला खेती के मामले में काफी समृद्ध है। दूर तक फैले खेत तथा हरियाली यहां की विशेषता है। जिला मुख्यालय रुद्रपुर से करीब 14 किलोमीटर दूर इंद्रपुर गांव है। इसी गांव में रहते हैं इंद्रासन सिंह। वह आजादी के बाद 1952 में उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले से यहां आकर बसे थे। स्वतंत्रता आंदोलन में 1942 के दौरान जेल जाने के एवज में सरकार की ओर से आवंटित 15 एकड़ भूमि पर खेती करने लगे। बाद में वह 25 वर्षाे तक इंद्रपुर गांव के ग्राम प्रधान भी रहे। 1972 की बात है, एक दिन वह अपने खेत में टहल रहे थे तो रत्ना नामक धान के खेत में उन्हें कुछ ऐसे पौधे दिखाई दिये जो अन्य की अपेक्षा लंबे व स्वस्थ तो थे ही, उनकी बालियां भी चमकदार व हृष्टपुष्ट थीं। इंद्रासन इन पौधों की बढ़वार से आकर्षित होकर उनकी खास देखभाल करने लगे। जब यह धान तैयार हुआ तो उन्होंने कौतूहलवश उसकी बालियां तोड़कर अलग रख दीं। अगले वर्ष उनसे निकला बीज अलग खेत में बोया। पहले वर्ष इसका बीज एक खेत के लायक ही हुआ। बाद में वह साल दर साल इसके बीज को बोते चले गये। इस धान के पौध की लंबाई व बाली देखकर आसपास के किसान भी इससे आकर्षित हुए बिना नहीं रह सके। धीरे-धीरे यह धान समूचे इलाके में बोया जाने लगा। इसके धान का छिलका पतला व चावल चमकदार होने के कारण लोग इसमें खूब दिलचस्पी लेने लगे। यह धान इलाके में बोया तो जा रहा था, लेकिन तब तक इसका कोई नाम नहीं था। इस पर 1978 में गांव के कृषक डॉ.हरवंश ने एक बैठक बुलाई। चूंकि यह प्रजाति इंद्रासन सिंह के प्रयास से ही विकसित हुई थी, इसलिए उन्होंने इसका नामकरण इंद्रासन कर दिया। तब से यह धान इंद्रासन नाम से ही जाने जाना लगा। इसी दौरान इंद्रासन धान के बारे में पंतनगर विश्वविद्यालय की मासिक पत्रिका किसान भारती में एक लेख प्रकाशित हुआ। इस लेख को पढ़कर बिहार, उड़ीसा, पंजाब, महाराष्ट्र समेत अन्य प्रदेशों के प्रगतिशील कृषकों ने इंद्रासन सिंह को पत्र भेजकर धान का बीज मंगवाया। धीरे-धीरे इस धान का पूरे देश में उत्पादन किया जाने लगा। चूंकि यह बासमती से मिलता-जुलता था, लिहाजा इसे गरीबों का बासमती भी कहलाया जाने लगा। विडंबना यह है कि जिस धान को आज समूचे देश में बोया अथवा खाया जाता है, उसी धान को विकसित करने वाला कृषक गुमनामी में जीने को विवश है। सरकार ने उसे कोई पुरस्कार देना तो दूर सम्मानित करना तक उचित नहीं समझा। यह कृषक सरकारी उपेक्षा के कारण अपने गांव में परिवार के साथ रह रहा है। पंतनगर विवि के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक के अनुसार इंद्रासन सिंह ने भले ही विज्ञान के दृष्टिकोण से कोई नई खोज नहीं की हो, लेकिन धान की एक प्रजाति तो विकसित की ही है। इस लिहाज से वह सम्मान व पुरस्कार के हकदार हैं।

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