Friday 16 October 2009

झिलमिल दिवा जगी गैनी फिर

पौड़ी गढ़वाल ..झिलमिल-झिलमिल दिवा जगी गैनी फिर बौड़ी ऐगे बग्वाल.. गढ़वाली गीत की ये पंक्तियां बग्वाल यानी दीपावली के शुभागमन का रैबार (संदेश) देती हैं। गढ़वाल में दीवाली मनाने के तरीके बेहद खास हैं। इस मौके पर लक्ष्मी पूजा के अलावा पांडव नृत्य व भैलो मुख्य आकर्षण रहते हैं। गढ़वाल के लोक में दीपावली के त्योहार के दो दिन छोटी व बड़ी दीपावली के रूप में मनाए जाते हैं। छोटी दीवाली के दिन गढ़वाल के हर घर में पूरी-पकोडि़यां बनती हैं। साथ ही गायों के लिए पींडू यानी पौष्टिक आहार भी बनाया जाता है और गांव भर के गौवंश को खिलाया जाता है। आज भी सुदूर गांवों में यह प्रथा चली आ रही है। छोटी व बड़ी दीवाली पर रात को घर के प्रत्येक ताखे (आले) पर दीपक जलाकर मां लक्ष्मी का आह्वान किया जाता है। इसके बाद शुरू होती है गढ़वाल की अनोखी दीवाली। रात्रि भोजन के बाद गांव के एक बड़े आंगन में भाड़ झोंक दिया जाता है। लोकवाद्य ढोल-दमाऊ के सबद (लोक वाद्य की एक ताल) के बाद देवी का आह्वान किया जाता है। इसके बाद पांडव की वार्ताएं (कथाएं) शुरू होती हैं। एक के बाद एक कथाएं चलती हैं और लोक ढोल की थाप पर वार्ता को सुनते हुए उसी अंदाज में पांडव नृत्य करते हैं। इसके बाद भैलो फूंके जाते हैं। भैलो भांग के डंडों पर तिल के दाने बांधकर बनाया जाता है। गांव के सभी लोग अपने साथ भैलो लेकर आते हैं और इन्हें जलाकर खेतों की ओर जाते हैं। आगे-आगे ढोल बाधक व पीछे-पीछे जलते हुए भैलो लेकर लोग नृत्य करते हुए चलते हैं। इसके बाद फिर उसी आंगन में पहुंचकर पांडव कथाएं रातभर चलती रहती हैं और लोग नृत्य में मस्त रहते हैं।

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