Thursday 10 September 2009

उभरने से पहले ही हांफने लगा फिल्म उद्योग

छब्बीस साल कम नहीं होते किसी उद्योग को गति पाने के लिए। फिर चाहे वह आंचलिक फिल्म उद्योग ही क्यों न हो, लेकिन यहां तो गंगा ही उल्टी बह रही है। अब तो निर्माता-निर्देशक में वह हिम्मत भी नहीं दिखती, जिसने एक दौर में आंचलिक फिल्मों के सुखद भविष्य की उम्मीदें जगाई थीं। इन छब्बीस सालों में सिर्फ पचीस फिल्में ही सिनेमा हालों के चौखट तक पहुंचीं, जिनमें दो-तीन नाम ही लोगों को याद हैं। अफसोसजनक यह कि राज्य गठन के नौ साल बाद भी न तो उत्तराखंड में कोई फिल्म नीति बनी और न फिल्म परिषद ही। ऐसे में फिल्म निर्माण करना बर्र के छत्ते में हाथ डालने जैसा है। उत्तराखंडी सिनेमा के इतिहास पर नजर दौड़ाएं तो वर्ष, 1983 में पाराशर गौड़ ने पहली गढ़वाली फिल्म जग्वाल का निर्माण किया। शुरुआत में यह फिल्म चली, लेकिन कमजोर तकनीकी पक्ष और प्रिंट की कमी के कारण औसत बिजनेस ही कर पाई। फिर भी इस फिल्म ने गढ़वाली फिल्मों के लिए रास्ता जरूर खोल दिया। 1984 में गढ़वाल फिल्म्स के बैनर पर कभी दु:ख-कभी सुख बनी। यह फिल्म औसत भी नहीं निकाल पाई। रुपहले पर्दे के मद्देनजर वर्ष 1986 को विशेष रूप से याद किया जाता है। इस वर्ष की सबसे यादगार गढ़वाली फिल्म घरजवैं बड़े पर्दे पर आई। निर्माता विश्वेश्वर दत्त नौटियाल ने तरण तारण धस्माना के निर्देशन में ऐसी फूलप्रुफ योजना बनाई कि इस फिल्म ने सफलता के झंडे गाड़ दिए। दिल्ली में सिल्वर जुबली मनाने के साथ ही मंुबई, मेरठ, कानपुर, लखनऊ जैसे शहरों में भी इसने खूब सफलता हासिल की। लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के कालजयी गीतों ने इस फिल्म को नई ऊंचाइयां दीं। इस फिल्म की सफलता ने गढ़वाली फिल्मों के लिए द्वार खोल दिए और फिर वर्ष 1987 में नेपाली से डब प्यारू रुमाल, कौथिग व उदंकार जैसी फिल्में प्रदर्शित हुई। इनमें कौथिग ही कुछ चल पाई। 1990 में गुजराती फिल्म निर्माता किशन पटेल ने रैबार का निर्माण किया, जो जबर्दस्त प्रचार के बावजूद औंधे मुंह गिर गई। 1992 में राजू भट्ट व संतोष खंतवाल ने नरेश खन्ना के निर्देशन में बंटवारू बनाई, जिसने कई जगह अच्छा प्रदर्शन किया। 1993 में मंुबई से गढ़वाल लौटी अभिनेत्री उर्मि नेगी ने फ्ंयूली बनाई, लेकिन इसका हश्र भी बुरा हुआ। वर्ष, 1996 में ग्वाल दंपती दीपक भट्ट व गीता भट्ट पारिवारिक पृष्ठभूमि पर आधारित बेटी-ब्वारी लेकर आए, लेकिन यह औसत ही रही। 1997 में आई चक्रचाल को कई स्थानों पर दर्शकों ने पसंद किया। इसी वर्ष विश्वेश्वर दत्त नौटियाल ने हिंदी फिल्म हिमालय के आंचल को छ्वटि ब्वारि नाम से गढ़वाली में डब किया। यह भी फ्लाप शो साबित हुई। 1998 में महावीर नेगी ने सतमंगल्या बनाई, जो कुछ ठीकठाक चली। वर्ष 2001 में सरोज रावत की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित गढ़रामी-बौराणी भी हिट न हो सकी। 2002 में अविनाश पोखरियाल ने महंगे बजट की किस्मत बनाई, जो सुपर फ्लाप रही। 2003 में रामपुर तिराहा कांड पर अनिल जोशी व भूपेंद्र चौहान ने अनुज जोशी के निर्देशन में बड़े बजट की तेरी सौं बनाई। इसे अच्छी सफलता मिली। 2004 में गजेंद्र मलिक चल कखी दूर चलि जौंला और सोहनलाल काला औंसी की रात लेकर आए। फिल्में फ्लाप रहीं, लेकिन तकनीकी पक्ष सराहा गया। वर्ष 2006 में शंकर कुंवर ने मेरी गंगा होली त मैमु आली व कैलाश चंद्र द्विवेदी ने किस्मत अपणी-अपणी का निर्माण किया। दोनों ही फिल्में असफल रहीं। इसके बाद कोई निर्माता साहस नहीं जुटा सका है।

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