Saturday 12 September 2009

निर्भीकता की प्रतिमूर्ति थे पं. गोविंद बल्लभ पंत

- जन्म दिवस 10 सितंबर पर विशेष पं.गोविंद बल्लभ पंत। बाजपुर: अंग्रेजी शासन काल में एक भारतीय वकील काशीपुर न्यायालय में खद्दर की टोपी पहनकर वकालत के लिये जाया करता था। एक बार अंग्रेज न्यायाधीश ने इस पर आपत्ति की और टोपी उतारकर प्रवेश करने को कहा तो उस युवा वकील ने निर्भीकता से कहा.... मैं न्यायालय से बाहर जा सकता हूं लेकिन टोपी नहीं उतार सकता। यह वकील कोई और नहीं बल्कि भारत रत्न पं. गोविंद बल्लभ पंत थे। गोविंद बचपन से प्रतिभाशाली तो थे ही साहस, दृढ़ता व हाजिर जवाबी के गुण भी उनके व्यक्तित्व को विशालता प्रदान करते हैं। साइमन कमीशन का विरोध करने पर लखनऊ में उन्होंने पं. जवाहर लाल नेहरू के साथ पुलिस की लाठियों के आघात सहे व जेल गये, लेकिन जीवन में कभी भी हार नहीं मानी। यद्यपि जीवन पर्यंत वे शारीरिक व मानसिक पीड़ाओं से जूझाते रहे। अल्मोड़ा जनपद के खूंट गांव में 10 सितंबर 1887 को पंडित मनोरथ के घर बालक गोविंद ने जन्म लिया। गोविंद का बचपन अधिकतर ननिहाल में बीता। नाना बद्रीदत्त जोशी उस समय सदर अमीन के पद पर कार्यरत थे घर परिवार में सभी सुख सुविधा के साधन उपलब्ध थे फिर भी बालक गोविंद कई बार सड़क के किनारे मूर्तिवत होकर बैठ जाता था। इसी वजह से उनके नाना प्यार से इन्हें थपुआ कहते थे कुमांऊनी में थपुआ का अर्थ भित्तिचित्त से होता है। पं. पंत बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे जब वे कक्षा 6 में पढ़ रहे थे तब अंकगणित से संबंधित एक प्रश्न कक्षा में पूछा गया कि तीस गज लंबे कपड़े के थान को एक गज प्रतिदिन के हिसाब से फाड़ा जाये तो वह थान कितने दिनों में फट जायेगा? अधिकांश विद्यार्थियों ने उत्तर दिया तीस दिन, जबकि बालक गोविंद का उत्तर था 29 दिन। अपने सहपाठियों को समझााने के लिये गोविंद ने एक कागज को 29 टुकड़ों में फाड़ा तीसवां टुकड़ा अपने आप फट गया सभी सहपाठी गोविंद के सामान्य ज्ञान से आश्चर्यचकित हो गये। वर्ष 1903 में पंत जी ने हाईस्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की तथा प्रांत में तीसरा स्थान प्राप्त किया 17 वर्ष की आयु में उन्हें दिल का दौरा पड़ा तथा गंभीर हालत में मुरादाबाद के चिकित्सालय में भर्ती कराया गया। अस्वस्थता के चलते इन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की इसके पश्चात इलाहाबाद के म्यूर सेंट्रल कालेज से बीए तथा लॉ कालेज से कानून की उपाधि प्राप्त की। पंत जी का वैवाहिक जीवन काफी संघर्षमय तथा मानसिक कष्टप्रद रहा। मात्र 12 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह पंडित बाला दत्त जोशी की बेटी गंगा देवी से हुआ, जिससे एक पुत्र हुआ किंतु वर्ष 1909 में काल ने इनसे पुत्र तथा पत्नी दोनों को छीन लिया मित्रों एवं संबंधियों ने इन्हें पुन: विवाह के लिये राजी किया तथा वर्ष 1912 में इनका दूसरा विवाह किया गया किंतु नियति को कुछ और ही मंजूर था उसी दु:खद घटना की पुनरावृत्ति हुई वर्ष 1914 में पत्नी पुत्र इन्हें अकेला छोड़कर स्वर्ग सिधार गये। चोट पर चोट खाते हुए पंत जी अब उदासीन से हो गये वर्ष 1916 में पंत जी के मित्र राजकुमार चौबे ने इन्हें समझाा बुझााकर इनका विवाह काशीपुर के तारादत्त पांडे की सुपुत्री कला देवी से करा दिया इन्होंने कृष्ण चंद्र पंत को जन्म दिया। महात्मा गांधी के आह्वान पर इन्होंने अपना फलता फूलता कानून का व्यवसाय छोड़ दिया। कुमाऊं में राजनैतिक जागृति लाने के उद्देश्य से 1916 में इन्होंने कुमाऊं परिषद की स्थापना की। परिषद ने कुमाऊं में प्रचलित कुली बेगार प्रथा के खिलाफ सफल अभियान छेड़ा। 1923 में पंत जी उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य बने तथा सन् 1937 से 1939 तक संयुक्त प्रांत के प्रधानमंत्री और 1946 से 1954 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। सन् 1955 से 61 तक पंत जी ने भारत सरकार के गृह मंत्री पद का संचालन कुशलतापूर्वक किया। समाज एवं राष्ट्र के लिये पंत जी की महान सेवाओं को देखते हुए 26 जनवरी 1957 को इन्हें भारत रत्न की सर्वोच्च उपाधि से अलंकृत किया गया। पं.पन्त जब 20 फरवरी 1961 को राज्य सभा में अपने सचिव जानकी प्रसाद पन्त से नोट लिखवा रहे थे उन्हें पक्षाघात का दौरा पड़ा और वह बेहोश हो गये। मौत से जूझाते हुए 07.03.1961 को प्रात: काल में 8:50 मिनट पर स्वाधीनता का यह महान सिपाही चिर निद्रा में सो गया।

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